दिन बीत रहे हैं बोझिल से,
मेरे हर दिन के,
हर हिस्सों मे तुम सुर्ख़ियों में हो,
मैं गुमनाम कहीं खोयी हूं,
गुमनामी के अंधेरों में..
तुम मशहूर हो रहे हो,
मेरी दुनिया के बाज़ारो में..
मैं हर दिन मिट रही हूँ,
जैसे हर रोज़ सूरज अस्त होता है...
दूर किसी छोर से,
आहिस्ता आहिस्ता..
किसी नीर की शीतलता उसे झुलसा रही हो..
ख़ुद में मिटा रह हो, उसके वजूद को..
और धीरे धीरे पिघल रहा हो किसी सागर में..
था भी क्या पास,
जिसका डर हो खोने का..
फिर क्यों लग रहा है, जैसे खो दिया है,
एक हिस्सा खुद का..
अब बैचैन करने लगा है ये तन्हाई का शोर...
दर-बदर क्या ख़ोज रहा है मन जाने किस ओर..
जैसे कोई रेगिस्तान में प्यासा भटक रहा हो,
एक बूंद जीवन की आस में,
मृगतृष्णा के पीछे...
और तपती रेत में झुलस जाएगा...
एक दिन,
ख़्वाहिश फिर से जीने की साथ लेकर
ख़्वाहिश फिर से मिलन की आस लेकर...
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गम के बादल छटेंगे एक रोज़,
एक रोज़ ख़ुशियों की बरसात होगी...
ख़्वाहिशों भरा दिन होगा एक रोज़,
एक रोज़ सुकून वाली रात भी होगी..
और बीत जाएगा ये वक़्त भी,
गुज़र जाएगी ये बात भी...
कई सालों बाद हम इसके किस्से लिखेंगे..
कोई हमसफ़र होगा जो पढ़ेगा वक़्त के इन
बीते हिस्सों को,
मेरे हर लफ्ज़ से जुड़े उन यादों के एहसासों को...
जिनमें ज़िन्दगी के हर लम्हे गढ़े हैं,
जो गुजरा है वक़्त उनके बिना,
हर रोज़ हम कितना खुद से लड़े है...
और महसूस कर सके उसी तरह,
जिस तरह हम लिखेंगे,
हर हर्फ़ किसी याद से...
और शायद कोई ये भी कह दे,
की हम समझ सकते हैं,
तुम्हारे इस गुज़रे दर्द को..
पर कोई क्या समझ सकेगा,
यूं पल पल गुज़रते एहसासों को..
यूं हर पल यादों में मरते हुए..
हर पल इन यादों में जलते हुए..
फिर भी खाक होने के लिए हर रोज़
ज़िंदा रहे है फिर से मरने के लिए..
क्या समझेगा कोई इस दर्द का हिसाब
जो बेहिसाब रहा है एक एक दिन..
जो कतरा कतरा बिताया है हर लम्हा,
हर दिन...
तुम बिन....
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बीत जाएंगे ये दिन भी,
और बदल जायेगा वक़्त भी..
धूमिल होंगे कई रिश्ते,
उम्मीदों के तूफान में..
मुरझा जाएंगी कई यादें,
वक़्त की दोपहर में..
एक दिन खत्म होंगे हम भी,
जैसे पतझड़ में सूखे पत्ते गिरते हैं..
और मिट्टी में मिल जाते हैं..
या कोई हवा उड़ा ले जाएगी,
और छोड़ देगी किसी देहलीज पर,
अनजानों के बीच अंजाने सफर में..
फिर से मिटने के लिए....
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जी चाहता है....
बेफ़िक्र हो जाऊं यूं ज़िन्दगी के झमेलों से,
इन बन्धनों से कहीं दूर खो जाने को जी चाहता है..
थक गया हूं बहुत ज़िन्दगी के इम्तेहान देते देते...
कभी कभी नाकाम होकर हार जाने को जी चाहता है..
बैचैन बहुत हूं, दुनिया के शोर से,
कभी कभी गुमनाम होकर,
खामोश हो जाने को जी चाहता है..
तकलीफ बहुत देते हैं ये मतलब के रिश्ते,
कभी कभी इस बेमतलब सी ज़िन्दगी को,
हार जाने को जी चाहता है..
अब धुंधली पड़ चुकी है, तेरे ख्यालों की तस्वीरें..
इन तस्वीरो में फिर रंग भरने को जी चाहता है..
एक ज़िन्दगी जो तेरे साथ मुक़म्मल नहीं हो सकती..
फिर भी तेरे साथ जीने को जी चाहता है..
एक डोर जो जुड़ी है, मुझसे तेरी यादों की
उन यादों को साथ लेकर कहीं खो जाने को जी चाहता है..
अब नहीं होता इंतज़ार क़यामत का रोज़ रोज़..
किसी रोज़ क़यामत को गले लगाने को जी चाहता है..
यूँ धुंआं बन हवाओं में उड़ जाने को जी चाहता है..
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🙏🙏....Sarita sharma😊