Vrindavan ki Galliyon Mai Kahan kho gaye Krishan books and stories free download online pdf in Hindi

वृंदावन के गलियारों से कृष्ण तुम कहाँ गुम हो गए?

वृंदावन के गलियारों से कृष्ण तुम कहाँ गुम हो गए?
मन कुछ बहुत ही विचलित था। ईष्वर जो मात्र अनुभूति के स्तर पर ही प्राप्त हो सकता है जैसे इस चलती फिरती दुनिया में उसे पा लेना चाहती थी। कैसी विडम्बना है मनुष्य के मन की । भीतर ही मिलने वाले उस तत्व को विचलित हो , बाहर खोज-बीन शुरू कर देता है। क्या बाहर भटकती इस दुनिया में हे ईष्वर! तुझे पाना आसान है? क्या भीतर न मिल पाने की अवस्था में तू मुझे बाहर मिल जाएगा? ये प्रष्न मेरा किसी और से नहीं ,अपने आप से ही है। विचार आया कि चलो एक प्रयास ऐसा भी किया जाए । ईष्वर, तुम्हें बाहर की दुनिया में पा लेने का। शायद इसी खोज में मैंने सपरिवार वृंदावन जाने का निष्चय ही कर डाला। सरपट दिल्ली से वृंदावन तक जाने के लिए यमुना-एक्सप्रेस का रास्ता खोज डाला। एहसास हुआ कि खुले चौड़े विशालकाय हाइवे से गुजरते हुए हम श्रीकृष्ण से मिलने अभी कुछ ही पलों में जा पहुँचेंगें। उन तंग गलियों में जहाँ उनसे मिलने का दावा बड़े विष्वास के साथ किया जाता है। हे ईष्वर! तेरी महिमा भी बड़ी ही निराली है। वृंदावन की भूमि पर पाँव धरते ही एहसास हो गया कि बहुत कुछ बदल गया है वहाँ। जैसे काया ही पलट गई है पूरे शहर की। तंग गलियों में ही क्या कृष्ण आज भी विराजमान होंगे ? जहाँ तक जाने का मार्ग इतना सुगम हो गया हो । क्या इस आधुनिकता का लाभ हमारे श्री कृष्ण को प्राप्त हो रहा होगा? प्रष्न तो कहीं मन में था, पर उत्तर दूर-दूर तक नहीं खोज पा रही थी। कहते हैं भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों के रास्ते अलग-अलग होते हैं। कह लीजिए कि बिल्कुल ही विपरीत होते हैं। आप या तो जीवन में विलासिता को पा सकते हैं या ईष्वर की भक्ति में लिप्त जीवन। पर यहाँ पहुँच एक संगम नजर आया मुझे। आरामदायक गाड़ी में ईष्वर के घर जाने तक का मार्ग। वाह! क्या खूब! यानि भौतिकता में लिप्त ईष्वर की आध्यात्मिकता की मंजिल। ये भी खूब रही। गाड़ी पार्किंग में लगा , हम चल पड़े कृष्ण से मिलने, निधिवन की तंग गलियों की ओर। निधिवन जिसके लिए हमने कई तरह की कहानियाँ भी सुनी हैं कि रोज सूरज के ढल जाने पर निधिवन को पूरी तरह से सात तालों में बंद कर दिया जाता है कि श्री कृष्ण अभी भी यहाँ रोज आते हैं विलासिता की सारी सामग्रियाँ उनकी गोपियों के साथ रासलीला रचने के लिए रख दी जाती है। आने वाले सैलानियों को इस बात की हिदायत साथ दे दी जाती है कि अपनी जिज्ञासा कि ,जो श्री क्ष्ण को देख लेने की मन में उजागर की है , उसे शांत करें क्योंकि आप लोगों को सक्षात उनके दर्षन न हो पाएँगें। खेद है कि जाकर भी तुम्हारे दर्षन नहीं कर पाई। पंडित पांडे तो तुम्हारे होने का आभास पूरे दिन कराते रहे। पर क्यों मैं दिन में ही रात खोजने लगी। जब वे मुझे तुम्हारी उपस्थिति का आभास होने का प्रमाण दे रहे थे, तब क्यों उन सबकी बातों में मुझे सत्य का प्रमाण नहीं मिल रहा था। शायद मात्र कारण यही था कि तुम्हारी उपस्थिति कराते हुए वे डरा रहा था कि देखने भर की इच्छा में मृत्यु का खौफ था। सोचती हूँ जहाँ डर विद्यमान हो, वहाँ तुम्हारी उपस्थिति हो ही कैसे सकती है। मन की व्याकुलता को शांत करने आई थी, पर किस प्रकार की अधीरता मुझे घेरती जा रही थी। तुम्हें खोज लेने के स्थान पर तुम्हारे अस्तित्व के प्रमाण ने मुझे तुमसे दूर कर दिया था। वो क्या था? स्पष्ट करना मुष्किल है , जब नंद बाबा के मंदिर में माता पिता को स्मरण करने के लिए कहा गया तो पापा याद आ गए। व्यथा बढ़ गई कि शारीरिक तौर पर तो वे पाँच तत्वों में विलीन हो चुके हैं। बाहरी तौर पर उन्हें कैसे खोज सकती हूँ कैसे उन्हें दुबारा पा सकती हूँ। दुख का एहसास लिए जब मंदिर की परिक्रमा करना शुरु की तो पंडित जी के मुख से निकला आज एकादषी है, यानि वह दिन जब वे शरीर को पाँच तत्वों में विलीन हो गए थे। ऐसा लगा कि जैसे वे मुझे अपने होने का आभास करा रहे थे। यानि अनुपस्थिति में भी मैं उन्हें उपस्थित मान रही थी। खोजने तो कृष्ण तुम्हें आई थी न , पर अपने पापा की अनुभूति कर बैठी। खैर चहलकदमी अब इस्कॉन मंदिर की तरफ थी। मंदिर में तुम्हारे भक्तों को तुम्हारी भक्ति में लीन देखा। सबको मदमस्त होकर नाचते गाते देखा, जैसे समाज या आसपास की कोई भी सुध नहीं । क्यों उन सभी को भक्तिमय देखकर भी तुम मुझे नजर नहीं आए ? कहा नहीं जा सकता। अंतिम पडाव बाँके बिहारी का मंदिर था । लगा जैसे यहाँ तो तुम तुझे मिल ही जाओगे। भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की खाते तेरे द्वार तक तो आ गई। तेरी प्रतिमा को भी निहारा दूर से पूजा अर्चना भी की। चौखट पर तेरे आकर लगा कि तुम्हें अब तो देख ही लूँगी पर मंदिर के दावेदारों या कर लीजिए कर्मचारियों का तनाव व क्रोध उनके मुख से निकलती कटु शब्दों की धारा , तुम्हारे सम्मुख पहुँचने की होड़ व अपने बच्चे के मुख ये निकला शब्द कि चलो यहाँ से ऐसे नहीं जाना आगे , तुम्हारे पास जाने की चाह तुमसे दूर ले गई। जो सुखद अनुभूति लिए मैं आई थी वह कोसों दूर हो गई। रास्तेमेरे कथित भक्तों के शोरगुल को देख लगा कि यहाँ क्या सच में तुम विराजते हो भी या मेरा भ्रम ही है कि तुम यही कहीं हो। अब पड़ाव दिन भर के बाद घर की ओर था निराषा थी कि तुम्हें यहाँ आकर भी पा न सकी। मंदिर के बाहर सड़कों पर गाड़ियों का घना जााम लगा हुआ था। यातायात की सारी व्यवस्था को जैसे लगा जाम अँगूठा दिखा रहा था। घडी में सात बज चुके थे। तनाव गहराने लगा था कि समय रहते घर तक पहुँचना अब मुष्किल हो जाएगा। जाम में गाड़ी फँसी हुई थी तभी देखा कि एक आदमी आक्रोष और क्रोध में अपनी गाड़ी से उतरा और एक रिक्षा चालक के पास जाका उसे बड़ा जार से तमाषा लगा दिया। शोर-षराबा , कोलाहल , गाड़ियों से निकलने वाली तीव्र आवाजों ने अब पूरी तरह से तुमसे दूर कर दिया था। लगा कि कृष्ण नगरी में ऐसा क्या है , जो महानगरों से उसे अलग बनाती है। लगा कि नाम मात्र यह तुम्हारी नगरी रह गई है। भीतर से जैसे आवाज आई कि हे कृष्ण ! तुम कहाँ खो गए हो? यहाँ तक आकर भी क्या तुम्हें नहीं पा पाऊँगी? क्यों ईष्वर तेरे धाम में भी इतना तनावमय वातावरण। तभी संध्या आरती की गूँज से पूरा वातावरण भरा उठा। षोर शराबे को चीरती तुम्हारे मंदिरों की घंटियों पूरे शोर को जैसे अपने भीतर समेट लिया था। लगा कि जैसे उसी शोर में तुम खड़े मुस्करा रहे हो। आभास हुआ कि श्रद्धा भक्ति जैसे मंदिर की घंटियों से गुजरती हुई हृदय के भीतर जा रही थी। वही तुम्हारी उप्स्थिति का एहसास करवा रही थी। रास्ते से घर आते हुए एहसास हुआ कि हृदय को खुष कर देने वाला पल ही तुम्हारी उपस्थिति का सूचक है। लगा कि जैसे तुम गलियारों में भी बसते तो होगे पर उस पल जैसे तुम वृंदावन में होकर भी मेरी अनुभूति में थे । क्या कहूँ कि तुम वहीं थे या भीतर कहीं । पर सच कहूँ तो मैंने तुम्हें पा लिया।

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