मेरी आत्मा मेरा गाँव - नंगथला VANITA BARDE द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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मेरी आत्मा मेरा गाँव - नंगथला

हिसार का एक छोटा सा गाँव -नंगथला

गाँव से नाता क्या छूटा- एक अधूरी कसक मेरे भीतर कहीं दब कर रह गर्इ। बहुत छोटा और सुंदर गाँव था मेरा। गाँव की बात आते ही मन जैसे बच्चा बन कल्पना के पंख लगाकर अतीत में दौड़ जाता है।बहुत ही सुंदर गाँव है मेरा, जिला हिसार,अगरुहामोड पार करते ही गाँव की सौंधी माटी जैसे पुकारने लगती है-नंगथला है मेरे गाँव का नाम। इंसान माटी का ही तो एक पुतला है। गाँव की माटी ही जैसे मुझे अपनी असली पहचान बता देती है।

पाकिस्तान में बसे गानी मोहल्ले का वो विषाल पीपल का वृक्ष, जिसके किस्से नानी से सुन-सुन कर मैं बड़ी हो रही थी , नानी की जुबानी सुनकर मेरी कल्पना ने वृक्ष को जैसे हकीकत में गाँव के पनघट पर ही देख लिया था। नानी का बूढ़ा बचपन जैसे उस स्थान पर आकर अपना गानी मोहल्ला खोज रहा था। भोगा था उन्होंने भारत-पाकिस्तान की त्रासदी को ,भूला पाना संभव कहाँ अपने अतीत के क्षणों को। पढ़ा है मैंने कि अतीत की यादों का सिलसिला बहुत गहरी पैठ बनाता है मानव जीवन में-’’भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण।’’

नानी की कहानियों का सजीव चित्रण तो तालाब के किनारे जाकर मुझे हो ही जाता था,जो छ: पनघटों से घिरा था, और साथ ही उस ताल को घेरते गोलार्इ में फैले उन बरगद के पेड़ों का झुरमुट। उन विषालकाय वृक्षों का तो कहना ही क्या? नानी अधिकतर हम दोनों बहनों को रात गहराने पर सुलाने के लिए उन पेड़ों पर रहने वाले भूतों के किस्से अवष्य सुनाया करती थी।

सुबह सवेरे जाग कर माँ के साथ कुँए पर पानी खीचने जाना। गजब! बस याद करते ही मन फिर नौ-दस साल का बच्चा बन जाता है।गरमियों की छुट्टियाँ “ाुरू होने का इंतजार हम दोनों बहनों को जरूर होता था।और चाहत भी ऐसी कि गरमियों की छुट्टियाँ खत्म होते ही हम पुन: छुट्टियों का इंतजार करने लगते थे।

हम गाँव की जिस हवेली में रहा करते थे ,वो पहले किसी नवाब की हुआ करती थी, जिसे उसने अपनी दो पत्नियों के लिए “ाायद बड़े प्यार से बनवाया था। जबरन या कह लीजिए मजबूरन उसे भी भारत छोड़ भागना पड़ा हो। बहुत ही सुंदर हवेली का निर्माण उसने करवाया था।हवेली के दो हिस्से हुबहू एक जैसे, एक जैसे दो दालान, अनेक कमरे, हवेली के बाहर के चबूतरे। हवेली के दोनों हिस्से हम दोनों बहनों के लिए बूझो तो जानो जैसी पहेली खेल बना हुआ था,जिसका अंतर न कर पाने पर हम दोनों अचंभित हो जाया करती थी और खोज-बीन के पष्चात ,जो असफलता हाथ लगती वो हमें प्रसन्नता से ही भरा कर देती थी,आनंद की स्रोत थी वह हवेली।

गाँव में रहने वाले जनों का तो कहना ही क्या ! पूरा गाँव एक परिवार का आभास कराता था । आजकल के परिवेष में वह माहौल तो बस एक सुखद स्वप्न जैसा ही है।क्यों बदलाव ने मनुश्य को भी बदल ड़ाला? इस प्रष्न के सभी अपने-अपने ढं़ग से निश्कर्श निकालते हैं।

कल्लो काकी,ज्ञानो मौसी, ओमी काका,बन्नो तार्इ, रेखा,जमुनी और बहुत से अपने प्रियजनों के किस्से तो मानो इतने वर्श बीत जाने के बाद भी अवचेतन मन के किसी हिस्से में दबे अपने अस्तित्व का एहसास कराते हैं। गाँव का स्मरण वर्तमान से पलायन ही है । एक सुखद एहसास।सूरज ढलते ही ओमी काका के दालान में सभी बच्चों का उमड़ जाना,बंद मुरगियों को उनके दडबों से निकाल उन्हें पकडने का प्रयास करना, आँख-मिचौली का खेल खेलना,कभी अपनी बनार्इ धुनों पर नाचना या कभी थके-मांदे ओमी काका की मीठी झिडकियाँ सुनना । सब बड़े होते ही मानो एकाएक गायब हो गए । ऐसे में आभास होता है कि बचपन कितना हसीन होता है न!

मेरी माँ तो जैसे पूरे गाँव की नाजुक बेटी थी। गाँव की जमीन पर पाँव रखते ही आधा गाँव तो हमें लिवा लाने के लिए बस अड्डे पर ही उमड़ आता था। प्राण बसते थे उस गाँव में मेरी माँ के जैसे पुन: एक नर्इ ताजगी लौट आती थी उनके चेहरे पर , सच ससुराल जाकर लड़की को अपना पिहर कुछ ज्यादा ही याद आता है,जैसे जी लेना चाहती है वो अपना बीता हुआ कल। माँ को अधिक चहकते तो उस छोटी सी अवस्था में मैं महसूस कर सकती थी।

चूल्हे पर सिकती वो गरमागरम तंदूरी रोटियाँ व साथ उसके घर में बिलोया हुआ सफेद माखन और चूल्हे में माटी की हांडी में चुरती मुंग की दाल ,जो नानी हम लोगों के गाँव जाने पर विषेश तौर पर हमीं लोगों के लिए पकाती थी, कि खुषबू से घर का आंगन रात की रानी के फूलों की खुषबू के समान महक जाया करता था, वो स्वाद से परिपूर्ण भोजन पेट तो भर देता था पर ,मन की तृप्ति कहाँ? हम सभी मौसेरी बहनें व ममेरे भार्इ बहन एक साथ गरमियों की छुटटियों में पहुँच जाया करते थे। एक साथ मिल कर नानी से कहानियाँ सुनना ,देर रात खुली छतों पर चारपार्इयाँ बिछाकर लेट जाना,नींद न आने पर अंताक्षरी खेलना और तेज हवा के झोकों की प्रतीक्षा में सोलह पुर लगाते हुए “ाहरों के नाम गिनना ,अपनेपन की तो बात ही अनोखी होती है। गाँव के घरों के बड़े-बड़े दालान “ाहरों में तो उस समय भी नजर नहीं आते थे,और अब तो जैसे गायब ही हो गए हैं।

हमारे अपने खेतों में कपास की खेती होती थी नानी की वृद्धावस्था थी ,खेंतों की देख-रेख का काम धन्नो चाची के स्वामी यानि कल्लू चाचा किया करते थे। खेतों का भी विषिश्ट ही आकर्शण था हम बच्चों के लिए। इक्के की सवारी हम सब भार्इ बहनों को बहुत पसंद थी, सुबह होते ही चाचा जी से हरे-भरे खेतों में जाने की दरकार होती और फिर क्या हम सभी अपनी-अपनी मस्ती के इक्के पर बैठ जाते और धूम मचाते कँटीली झाड़ियों से खट्टे बेर तोड़कर खाते खेतों में पहुँच जाया करते थे। हमारा गाँव बहुत ही सुंदर था आत्मा बसती थी हम सबकी वहाँ।पर “ाहरों में ही जीवन जीना हम सब की जरूरत थी,ये दबाव था या इच्छा मेरे लिए कुछ भी कह पाना आसान नहीं।

हाँ ,एक और विषेश आकर्शण था गाँव का, कि अधिकतर सभी महिलाएँ मथा हुआ आटा लेकर पंडिताइन जी के यहाँ जमावड़ा लगाया करती थीं। रात को सुलगता पंड़िताइन जी के घर का सांझा चूल्हा एक ऐसा स्थान था ,जहाँ रोज-मर्रा की जरूरतों से जूझता महिला -समाज अपनी सभी चिंताओं के सांझे चूल्हे पर सिकती रोटियों के जलाकर भस्म कर दिया करता था। प्रेम पूर्वक अपने परिवार-जनों के लिए रोटियाँ सेंकती थी। कहते हैं भोजन यदि प्रेमपूर्वक बनाया और परोसा जाए तो खाने वाले व्यक्ति के “ारीर को पोशित करता है,यही कारण था “ाायद की गाँव जाकर हम सभी अपने आप को बहुत ही स्वस्थ महसूस किया करते थे,क्योंकि माता के स्नेह के साथ नानी और गाँव में रहने वाले हर व्यक्ति का हमें असीम स्नेह प्राप्त होता था। गाँव का हर घर हम बच्चों के लिए अपने घर जैसा था।

हमारे गाँव के बीचों-बीच भगवान विश्णुजी के एक मंदिर था। “वेत दीवारों से निर्र्र्मित। छोटा सा मंदिर था पर घर भर की महिलाओं के लिए आस्था और विष्वास का द्वार। मेरी स्मृतियों में एक विषेश स्थान है इस मंदिर का। मुझे अटूट विष्वास था कि स्वंय नारायण यहीं इसी मंदिर में विराजमान हैं और आज भी आँखों को बंद करने व र्इष्वर को याद करने पर मैं अपने-आप को इसी मंदिर में पाती हूँ। प्रात:पाँच बजे सभी महिलाएँ नहाधोकर प्रभात-फेरी गाती,भगवान विश्णु को अपनी अर्चना के फूल समर्पित करने पहुँच जाया करती थी। मंदिर के परिसर में एक कुँआ और चारों तरफ से मंदिर को घेरते पीपल के पेड़ों का समूह था, जिसमें सुबह-सवेरे बहुत सारे तोते आकर बैठ जाया करते थे, मंदिर की परिक्रमा करते हम सब मिलकर मंदिर में होने वाली आरती संग पेड़ों पर बैठे उन पक्षियों का सुर सुनकर आनंदित होते थे । मुझे आज भी याद है मंदिर में गूँजती भगवान विश्णुजी की वो आरती’’ हे रमन रेती रमन प्रिय विष्व भानु जय घनष्याम जी बिन आपके इस लोक में नहीं लगत कछुअ विराम जी’’ उस आरती के बोलों से गाँव भर की औरतों के होंठ फडफडा उठते थे उनकी तल्लीनता आरती में खुद को डूबा देने की सामथ्र्य किसी ध्यान से कम नहीं होता था। उस पल वो प्रार्थना सीधा आत्मा को उसके प्रेमी र्इष्वर से सभी को जोड़ दिया करती थी।

मंदिर के पास एक सूखा ताल था,जिसे एक विषालकाय बरगद के पेड़ की “ााखाओं ने अपने आवरण में लिया हुआ था, वो तालाब हम सभी बच्चों का ध्यान अवष्य अपनी ओर खींचता था,हम सभी को उस तालाब के पास जाने की मनाही थी ,सुरक्षा की दृश्टि से ,कि कहीं हमें चोट न लग जाए। बूढ़ी पुरखिन औरतें उनके अपने तर्क उस वृक्ष को लेकर, वैसे मुझे कभी उनकी बातों पर पूरा विष्वास नहीं होता था,फिर भी हम उस समय बच्चा बुद्धि थे एक डर कहीं था कि हो सकता है कि वे जो कहती हैं सच हुआ तो।माँ से भी हमने उस पेड़ पर रहने वाले उस भूत की कहानी सुनी हुर्इ थी ,खैर माँ तो अधिकतर उस भूत का डर दिखाकर हमें सच बोलने को बाध्य किया करती या कभी बिस्तर में बिना उधम किए बिना सो जाने को। कहानी सत्य थी या झूठ हम बच्चों ने कभी उसका आंकलन करने का प्रयास नहीं किया।

गाँव की खूबसूरती वहाँ रहने वालों के दिलों में बसती थी और हम “ाहर से कुछ समय गाँव में छुट्टियाँ बिताने के मकसद से ही गाँव जाया करते थे ,इसलिए विषेश आकर्शण हुआ करता था हमारे लिए।वहाँ जैसे कुछ समय बिताकर हम अपने लिए असीम प्रेम का खजाना भर लिया करते थे। लिखने की बात करूँ तो मन गाँव की सादगी से कुछ इस कदर बंध जाएगा कि वर्णन मेरे उस छोटे से गाँव का बढ़ता ही चला जाएगा क्योंकि दिल में बसता है कहीं।आज भी जब गाँव की याद आती है तो इक्के की सवारी करता हम भार्इ बहनों का झुंड़,कच्ची खेतों तक जाने वाली पगड़डी,काँटों से घिरी वो सुनहरे बेर की झाड़ियाँ, लहलहाते खेत, वो गाँव का छोटा सा मंदिर,गाँव का वो तालाब जो पनघटों से घिरा था, उस सुखे तालाब को कैसे भूला दँू जो आज भी कभी याद आने पर मन को अतंकित कर ही देता है। एक विषाल खंड कहीं भीतर बसता है,जो आज भी एकांत क्षणों में मन को सुखद अनुभव से भर देता है।

जो आज मात्र मेरे लिए स्वप्न बनकर ही साथ है। माँ की मृत्यु बहुत ही छोटी अवस्था में हो गर्इ थी। माँ गर्इ ,माँ के साथ जैसे गाँव भी छिन गया । दोनों स्मृतियों में जैसे आज भी जीवित हैं। चौबीस सालों के पष्चात जब मैंने अपने पति के बच्चों सहित गाँव का रूख किया तो देखा बहुत बदल गया है सब वहाँ।मेरी नानी की हवेली के भग्नावषिश्ट आज भी अपनी एक बदली कहानी सुनाते हैं ,वो सभ्यता वो एक साथ मिल-जुलकर रहने वाली संस्कृति विलुप्त हो गर्इ है कहीं। आज भी मंदिर उसी तरह खड़ा है, पर आरती में डूबी वो मस्ती मैं जैसे कहीं खोज रही हूँ। तोते तो मुझे नजर आए पर उनकी गिनती करती वो बच्चों की आँखें कहीं गुम हैं।आँखें नम हो गर्इ वर्तमान में जैसे अतीत खोज रहा था।एहसास हो आया कि बीता हुआ हर दिन तो मौत ही के समान है, जो वापस लौटकर नहीं आता। तभी क्या देखा कि मेरे दोनों बच्चे मंदिर की छत पर कहीं चढ़ गए और जोर-जोर से खुषी में उछलने कूदने लगे ,तो लगा जैसे फिर बीता हुआ दिन जिया जा सकता है अपने बच्चों के रूप में। उदास मन प्रसन्नता से भर गया। जीवित है मेंरा गाँव मेरी यादों में ,एक सुखद अनुभूति।