अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे भाग-14
दो से भले तीन
तभी उसे प्रसन्नता से उछलते कूदते आते हुये शेरू को देखा और अगले ही क्षण उन दो डाकुओं को उनके एक तीसरे साथी के साथ आता हुआ देख कुछ शांति का अनुभव किया। अभी वह इस परिस्थिति को समझा भी न था कि एक चिंता ने उसे आ घेरा- अभी तक तो दो ही थे, अब तीन से बचना तो और कठिन हो गया है।
उसे घबराया हुआ देख वे तीनो हंसने लगे और नवागंतुक डाकू ने अपने साथियों से पूछा, “तुम लोग इस प्रकार इसकी निगरानी करते हो?”
“नहीं यह तो हमने इसे अभी अभी ही बांधा है। हम इसका सर काटकर वापस जाना चाह रहे थे।”
“क्यों? क्या अपराध किया है इसने?” उसने अपने पुराने साथियों से पूछा।
“कुछ नहीं। किंतु तुम तो देख रहे हो, इस जगह युद्ध होने वाला है और हम भागे नहीं तो इस युद्ध के बीच फंस जायेंगे। और भागते हैं तो यह अवसर पाकर हमारे हाथ से भाग निकलेगा और हमारे शत्रुओं को हमारे छुपने के स्थान की सूचना दे देगा।”
“किंतु सिर्फ अपराध की सम्भावना के आधार पर तो अपराध का दंड देना उचित नहीं है।” नवागंतुक ने कहा।
“किंतु यदि यह भाग गया तो हमें प्राण दंड मिलेगा।”
“किंतु अपने सरदार के वचन को तोड़कर तो तुम मृत्यु दंड के साथ साथ नर्क के भी भागीदार बनोगे।”
“फिर हम क्या करें।”
“अपने सरदार के वचन की रक्षा...” नवागंतुक बोला, “एक माह की अवधी तक तुम्हे इसके प्राणों की रक्षा अपने प्राण देकर भी करनी चाहिये। भूलो मत डाकू अपने वचन के पक्के होते हैं। यदि तुमने वचन की रक्षा नहीं की तो आने वाले समय में कोई डाकुओं पर विश्वास ही नहीं करेगा।”
अब दोनो डाकुओं को भय से पसीना आ गया।
‘सारे डाकू उज्जड गंवार नहीं होते...’ व्यापारी ने मन ही मन कहा। इस तीसरे डाकू ने उसके मन में एक सम्मानजनक स्थान बना लिया था।
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“अब तुम जल्दी इसके बंधन खोलो और तुरंत यहाँ से प्रस्थान करने की सोंचो। राजा की सेना बढ़ी आ रही है। युद्ध किसी भी समय प्रारम्भ हो सकता है...।”
इसके साथ ही नवागांतुक डाकु बढ़कर व्यापारी के बंधन खोलने लगा। आसन्न मृत्यु से अभयदान पाकर व्यापारी की जान में जान आई।
“...और यदि मैं तुम्हे इस क्षेत्र से बाहर निकालकर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने में असफल हुआ तो, लौटकर अपने समूह में अपने साथियों और अपने सरदार को अपना चेहरा नहीं दिखा पाऊंगा। तुम्हे नहीं पता, सरदार को तुम्हारी कितनी चिंता है। तीन दिन पूर्व ही मुखबिरों से आसन्न युद्ध का समाचार पाते ही सरदार ने मुझे तुम्हे खोजकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने का कार्यभार देकर विदा किया है। जंगल में तुम्हें ढूंढते ही मुझे तीन दिन गुज़र गये...”
“धन्य है वह सरदार जिसे अपने अधीनस्तो की इतनी चिंता है।” व्यापारी बोला, “यह महान नायकों का ही गुण है, और यही गुण उन्हे सफल नायक बनाता है...”
“किंतु तुम्हे अधिक प्रसन्न होने की आवश्यक्ता नहीं है। यदि तुम एक माह की अवधि में अपने कार्य को पूर्ण करने में सफल नहीं हुये तो सरदार तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे और यदि भागने का प्रयास किया तो हम तुम्हें जीवित नहीं छोड़ेंगे। तुम्हे हमारे सरदार के साथ हुई संधि तो याद है न?” वह व्यापारी की लल्लोचप्पो भरी बात काटकर बोला।
“कैसी संधि और कैसी समय सीमा? ये दोनो यमदूत तो बात बात पर मेरे प्राण लेने पर आतुर रहते हैं। मेरा तो सारा समय ही इनसे अपने प्राणो की रक्षा करने में व्यय होता रहा है। क्या तुम्हारे समूह में तुम जैसे समझदार, विद्वान और कर्तव्यनिष्ठ लोगों का अभाव था जो मुझे इन दो मूढ़ लोगों के हवाले कर दिया गया?” व्यापारी ने उस नये डाकू को फुसलाने के लिये अपनी लच्छेदार बातों का जाल फेंका।
“सरदार ने यदि इन्हे यह कार्य सौंपा है तो कुछ सोंचकर ही सौंपा होगा।” व्यापारी की बातों से अप्रभावित रहते हुये उस नवागांतुक डाकु ने कहा, “तुम्हे सिर्फ अपनी संधि का पालन करने के बारे में चिंता करनी चाहिये; क्योंकि एक माह की अवधि जल्द ही समाप्त होने वाली है, और इस बीच तुम्हें खजाना ढूंढकर देने का अपना वचन पूरा कर दिखाना है।”
“इन मूर्खों के कारण मेरा सारा मानसिक श्रम तो इनसे अपने प्राणों की रक्षा में लग जाता है। ऐसे में समय पर कार्य पूर्ति कैसे सम्भव है। हाँ, आप जैसे विद्वान व्यक्ति साथ होता तो बात और थी।”
“हे चतुर व्यक्ति तुम चाहते क्या हो?” वह व्यापारी से बोला तो व्यापारी के मन में कुछ और समय की मुहलत की सम्भावना जाग उठी। कुछ और समय मिल जाये फिर देखा जायेगा।
“मेरा तात्पर्य है, इनके साथ की अवधि तो बेकार ही गई है। अब आप आ चुके हैं तो हम यहीं से अवधि की गणना करें।” उसने कहा।
“किंतु यह अवधि तो तय समय से अधिक हो जायेगी...”
“यह बात तो है, लेकिन यह आवश्यक भी है।”
“यह कैसे सम्भव है? बात तो एक माह की ही थी?”
“किंतु तुम तो स्वयम् देख चुके हो...”
“संधि, संधि होती है और वचन, वचन होता है।” उस नवागांतुक डाकू ने मानो अपना फैसला सुना दिया हो। व्यापारी चुप रह गया। उसे आश्चर्य हुआ, क्या विश्व में ऐसे मानव का अस्तित्व भी सम्भव है जो अपनी प्रशंसा से भी प्रभावित नहीं होते?
नहीं ऐसा सम्भव ही नहीं...
विश्व का इतिहास ऐसी विभूतियों के उत्थान और पतन की कहानियों से भरा पड़ा है जो अपने जनोन्मुखी कार्यों के कारण लोकप्रिय हुये और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर जा पहुंचे। उनकी लोकप्रियता, उनकी स्वीकार्यता ही उनकी शक्ति रही और इसी शक्ति के कारण वे शक्तिशाली हुये। आमजन ने उनकी प्रशंसा में गीत गाये। उनके अधीनस्तों ने बिना किसी शंका के उनकी आज्ञाओं का पालन किया फलस्वरूप उनके अधीनस्त उनके चाटुकार हो गये। अपनी प्रशंसा और स्तुति सुनना उन शासकों का स्थाई स्वभाव बन गया। इसके चलते वे पथभ्रष्ट हुये। जिससे प्रजा का जीवन कठिनाइयों से भर गया किंतु वे अपनी प्रशंसा के नशे से नहीं उबर पाये और तानाशाहों के रूप में अपने परिणाम को प्राप्त हुये। उनकी लोकप्रियता ही उन्हे ले डूबी।
तो निष्कर्ष्र यह निकलता है कि प्रशंसा एक ब्रह्मास्त्र है और कोई भी इस अस्त्र से बच नहीं सकता। क्योंकि थोड़ी बहुत प्रशंसा तो हज़म की जा सकती है लेकिन इसकी अधिक मात्रा मनुष्य का दिमाग घुमा देती है। प्रशंसा का भी अपना एक नशा होता है।
व्यापारी अपने इन्ही विचारों में डूबा हुआ था और वह नवागांतुक अपने दोनो साथियों को समझा रहा था कि उन्हें इस क्षेत्र से निकलकर किस प्रकार उस खाई को पार करके ऊपर पहाड़ के शिखर पर पहुंचना होगा क्योंकि वह स्थान इस युद्ध से अप्रभावित रहेगा और उस पहाड़ की दूसरी ओर एक अन्य प्रांत की सीमा लग जाती है, जो तीन ओर से समुद्रतटों से घिरा हुआ है।
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आगे है...
भाग-15 एक रहस्य का अनावरण- व्यापारी के प्राण कुत्ते में