ईश्वर चुप है
नीला प्रसाद
(3)
रंजना मंदिर की सीढ़ियां तय कर चुकी है। आंगन में प्रवेश कर रही है। अब देहरी पर घंटी बजा रही है। सिर पर दुपट्टा ओढ़ लिया है। आंखें बंद करके उस भगवान को देखना चाहती है, जिसकी इतनी महत्ता है.. उसे महसूसना, पा लेना चाहती है वह! वह उसमें प्रविष्ट हो जाए और उसे अपना ले - जैसे इतनों को अपनाया है। वह उसे उसी शांति से भर दे जिसकी खोज में यह मंदिर इतने लोगों से भरा हुआ है। वह उसके मनमोहन को ला दे। नहीं ला पाए तो इतना तो बता ही दे कि वह जिंदा है या नहीं। वह उसके घर में दुविधा के उस वातावरण को दूर कर दे, जिसमें डूबा हर कोई, दूसरे को यह भरोसा दिलाता रहता है कि मनमोहन जिंदा है और एक दिन लौट आएगा− जबकि अंदर - ही - अंदर सबों को संदेह है कि वह मर चुका है और कभी नहीं लौटेगा। उसकी मौत सच नहीं है - नहीं, यही सच है। वह मंदिर में नजर दौड़ा रही है। क्या पता यहीं कहीं बैठा हो, वेष बदले, दाढ़ी बढ़ाए.. बूढ़ा -सा हो गया हो और रंजना को जब - तब यहां आती देख तसल्ली पाता रहता हो कि घर पर सब ठीक है! पर क्या उसे पता है कि अब वह दिल्ली रहती है, यहीं नौकरी करती है और पुराना शहर, घर सब छोड़ दिया है? हां, उसे जरूर पता होगा कि उन सबों ने सात सालों से भी ज्यादा उसके लौटने का इंतजार किया - उसी पुराने घर में, जहां से एक दिन वह यह कहकर मुस्कराता ऑफिस जाने को निकला था कि शाम को जल्दी लौट आएगा। रंजना उससे कहना चाहती है कि मेरी चिंता मत करना मनमोहन, बस अपना खयाल रखना, लौटने की कोशिश करना - जल्दी से जल्दी। तुम्हारे बिना मैं बहुत अकेली पड़ गई हूं। बाहर से हंसती हूं पर अंदर से सूख गई हूं, पत्थर की होती जा रही हूं। अब तो तुम आ गए तो पहले तुम्हें मुझको जगाना पड़ेगा। पत्थर को पिघलाना पड़ेगा। पत्थर के अंदर से बहता सोता ढूंढना पड़ेगा, वरना मैं.. मैं तो जैसे अब प्यार करने के नाकाबिल हो गई हूं.. हां, तुम्हारे मम्मी - पापा मुझे अब भी प्यार करते हैं। उन्हें लगता है कि मैं बहुत अच्छी महिला हूं और चाहे जाने लायक हूं। मैं तो मान्या, आन्या को अकेली पाल भी न पाती, और जैसा कि मेरे पापा कह रहे थे - उनके साथ मायके लौट जाती। फिर वहीं कुछ करती। पर तुम्हारे पापाजी, मम्मीजी ने जाने नहीं दिया। कहा कि मैं राजी हो जाऊं तो वे ही मेरी दूसरी शादी करवा देंगे या फिर मैं शादी न करना चाहूं, तुम्हारा इंतजार करना चाहूं - तो मेरी मर्जी! वे तुम्हारे लिए मुझे रोके रखेंगे कि एक दिन तुम आओ और अपनी बेटियों समेत पत्नी के साथ अपना घर फिर से बसाओ। नहीं, चचेरे जेठजी से शादी की बात तो मैंने मानी नहीं थी− मान्या ने भी झटके से कह दिया कि वह किसी और को पापा बोल ही नहीं सकती, इसीलिए मैंने उस बारे में कुछ सोचने की जहमत नहीं उठाई। पर क्या तुम आओगे सचमुच! ईश्वर की मूर्तियों पर नजर जाते ही उसे गुस्सा आने लगा है। मूर्तियां हैं सब की सब। एक जगह खड़ी, लोगों को आते -जाते और खुद पर न्योछावर होते देखती रहती है। मन - ही - मन मुस्काती होंगी कि सब उन्हें कितना भाव देते हैं - वे कुछ नहीं करतीं, जिसके साथ जो होना होता है, होता रहता है फिर भी सब उसके दरबार में हाजिरी बजाते रहते हैं। पर क्या पता ईश्वर का अस्तित्व सचमुच होता हो! ईश्वर लोगों के लिए कुछ प्लान करके, उन्हें उसी अनुसार जीने के लिए बाध्य करता हो। तो जब ईश्वर ने उसके लिए कुछ तय कर दिया है और उसे बदलना ही नहीं चाहता, तो फिर उससे क्या मांगना!
उसके मन में सन्नाटा छा गया है। वह चुप है, ईश्वर भी। रंजना आंखों की कोरों से आंसू पोंछ रही है, ईश्वर उसे कुछ नहीं कहते। यह भी नहीं कि रोओ मत। रंजना के मन में उठ रहा है कि भगवान, क्या तुम इतने मजबूर हो कि मेरे लिए लिखी स्क्रिप्ट बदल ही नहीं सकते? क्या तुम इतने मजबूत हो कि मैं आंसुओं से नहला दूं तब भी पिघलोगे ही नहीं? क्या सचमुच स्थिति ऐसी है कि मुझे ही नहीं, तुम्हें भी लग रहा है कि रोना, और रोकर ही हल्के होने की कोशिश, मेरा एकमात्र अधिकार, मेरी एकमात्र नियति है?
दीप, धूप, मंत्रोच्चार और आरती.. यह आखिरी दिन है। अब मैं तुम्हारे यहां कभी नहीं आऊंगी। कुछ मांगूंगी भी नहीं - वह मन में कह रही है। भगवान तब भी चुप हैं। चुप शायद इसीलिए कि उन्हें पता है कि ये दुविधा ही उसकी नियति है.. या उन्हें तय है कि उनके यहां नहीं, तो आखिर और कहां जाएगी रंजना?
आज मनमोहन का जन्मदिन है। हर साल की तरह आन्या ने पापा के लिए बर्थडे कार्ड बनाया। हर साल की तरह उसमें अपनी मम्मा, दादाजी और दादीजी से सिग्नेचर करवाए। कार्ड पूजा घर में रख दिया जाएगा। भगवान जादू से उस कार्ड को, उसके पापा जहां भी हों, पहुंचा देंगे। तब पापा को सबों की शुभकामनाएं मिल जाएंगी - आन्या को पक्का भरोसा है। भगवान सब जानते हैं कि आन्या, मान्या के पापा कहां हैं। कौन लोग उन्हें ले गए हैं और क्यों वापस आने नहीं देते। क्यों उन्हें यही सही लगता है कि पापा को बेटियों से दूर रखें। हो सकता है कि पापा कोई जुगत लगा रहे हों कि बेटियों के पास आ जाएं तब भी मारे न जाएं, क्योंकि पापा को पता है कि यहां आते ही लोग उन्हें मार देंगे। पापा की पसंद का खाना दादी ने बनाया और पोतियों को खिला दिया। मान्या, आन्या के लिए जरूरी है कि वे अपने पापा को जानें− उनकी पसंद, नापसंद, उनके जीने का तरीका, वैल्यू सिस्टम। वैसे ही, जैसे दूसरी लड़कियों को पापा को समझना और उसी अनुसार जीना पड़ता है। दादा - दादी तो बस पापा के रिप्रेजेन्टेटिव हैं। हर वक्त कहते रहते हैं ‘तुम्हारे पापा यहां होते तो तुम्हें जरूर टोकते कि ऐसे कपड़े मत पहनो। मोहन को लड़कियों की उघड़ी टाँगें बिल्कुल नापसंद हैं’, ‘नहीं, तुम सेना में नहीं जा सकती− मनमोहन सुनेगा तो नाराज होगा’ । ‘क्यों भई, इतनी रात गए तक क्यों खेलती रही बाहर? सांझ ढले लड़कियों को घर आ जाना चाहिए। मोहन आएगा तो मुझे टोकेगा’।
मान्या सुनती रहती है। बारह साल की हो चुकी। मां यानी रंजना से लंबी हो गई। उसे पढ़ना और खेलना दोनों पसंद है। सेना में भर्ती होना चाहती है। दादाजी टोकते रहते हैं कि नहीं, यह तुम्हारे पापा को पसंद नहीं आएगा। जब उसे स्पोर्ट्स चैंपियन अवार्ड मिला तो दादाजी बोले−
‘तुम्हारे पापा यहां होते तो एक प्राइज तुम्हें अपनी ओर से भी देते। तो उसके आने तक उसकी ओर से मैं दे देता हूं।’
दादाजी ने चेक बुक निकाल लिया और ‘जो जी में आए, ले लेना’, कहकर तीन हजार रुपये का चेक काट कर मान्या को दे दिया। मान्या ने खुश होने की बजाए, उन्हें अजीब नजरों से देखा।
शायद यह इसीलिए हुआ। उसकी उन अजीब नजरों को पहचानने में हुई भूल के कारण, कि आज के उसके व्यवहार, उसके अंदर चल रहे विद्रोह और झंझावात को कोई पहले से भांप नहीं पाया। इनोसेंट आन्या तो हर साल की तरह कार्ड पर - ‘हैपी बर्थडे पापा, लव यू, जल्दी वापस आओ’, लिखकर मान्या के पास गई थी। उसे उम्मीद थी कि आंखों में नमी और होंठों पर मुस्कराहट के साथ मान्या हर साल की तरह अपना नाम कार्ड पर लिख देगी और आन्या को शाबासी देगी कि कितना सुंदर कार्ड बनाया है, पापा देखेंगे तो बहुत खुश होंगे। पर अबकी तो विस्फोट हो गया। उसने जलती निगाहों से आन्या को देखा और फट पड़ी−
‘कब तक खुद को और मुझे बेवकूफ बनाओगे तुम सब? कब तक?? पापा अब नहीं हैं। वे मर चुके हैं। ही इज नो मोर।’ वह एक - एक शब्द पर जोर देती हुई ऊंचे स्वर में कह रही थी.. ‘और मरे हुए के पास कोई कार्ड नहीं जाता। कोई भगवान उन्हें वापस नहीं भेजता। मरे हुए न खीर खाने आते हैं, न कार्ड देख पाते हैं। आन्या, पापा मर चुके हैं। इस घर में हर कोई अरसे से यह जानता है, पर अंदर से जानता हुआ भी, दूसरों के सामने जताता रहता है कि वह उन्हें जिंदा मानता है। जिंदा होते तो पिछले आठ बरसों में कोई तो संदेसा भेजा होता, कभी तो संपर्क की कोशिश की होती। जान का भय होता, तब भी चुपके - चुपके, हम सबों को देखने, हमसे मिलने आते रहते। दादाजी एक ओर तो ममा से सालों पहले कह चुके कि वे दूसरी शादी कर लें, दूसरी ओर वे कहते रहते हैं कि मनमोहन आएगा, मनमोहन आएगा। फिर वह यह करेगा, वह करेगा.. इसे डांटेगा, उसे दुलारेगा.. मैं थक गई हूं, यह सब सुनते - सुनते, सहते - सहते। अब ये सब बंद करो...प्ली..ज़। अब और नाटक मत करो। अब और मत बहलाओ मुझे.. प्लीज़, मुझे धोखे में मत रखो।’
वह सुर खींचती हुई लगभग चिल्लाकर बोल रही थी। फिर वह पांव पटकती कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर गई और रोने लगी। पूजा घर के बाहर खड़े वे सब− पापाजी, मम्मीजी, रंजना, आन्या− एक -दूसरे से नजरें बचाते, एक - दूसरे से छुप जाने की कोशिश करते, आंसू रोकते, कुछ क्षण खड़े रहे। फिर अचानक आन्या आकर रंजना से लिपट गई और बुक्का फाड़कर रोने लगी। अगर बाकी सब समझते थे, तब भी वह तो समझती हुई भी नहीं समझती थी। वह पापा के आने के इंतजार में खुश -खुश जीती थी। अब इस तरह परदा हटाकर एक दूसरा सच दिखा दिए जाने की कोशिश से वह आहत हो गई। उसे झटका लगा।
‘मम्मा आप सचमुच की विधवा हो?’ उसने पूछा।
खूबसूरत गहनों - कपड़ों से लकदक चमकती रंजना ने खुद को एक बार देखा और ठक हो गई। जवाब उसे मालूम नहीं था। मालूम था तो बस इतना कि आन्या उसे बहुत प्यार करती है, उसके दुख - दर्द की परवाह करती है। थकने पर हाथ - पांव दबाती है, रोती देख विचलित हो, खुद भी रोने लगती है। रंजना हड़बड़ा गई। नहीं, आन्या को रोने नहीं देना है। उसने मूर्ति बने खड़े पापा - मम्मी पर एक नजर डाली और बोली−
‘नहीं बेटा, मान्या झूठ बोलती है। पापा मरे नहीं हैं, वे एक दिन तुम्हारे पास जरूर लौटेंगे। हम सब जब गुरु जी के पास गए थे तो उन्होंने तुम्हारे सामने कहा था न कि मनमोहन जिंदा है− कहा था कि नहीं?’
‘कहा था’, आन्या रोती - रोती बोली। उसने खुद को विचलित होने से रोकते हुए आन्या को खुद से सटा लिया। उसके आंसू पोंछने लगी, उसकी सुबकियां कम करने को उसे थपकियां देने लगी।
पापाजी अपने बेडरूम में जाकर कुर्सी पर बैठ गए तो रंजना, आन्या को उनकी गोद में बिठा आई।
पापा उसे धीरे - धीरे थपकते नम आंखों से कहीं खो गए। मम्मीजी पूजा घर में वापस घुस, हाथ जोड़, आंखें मूंदे भगवान के आगे गिर - सी गईं और जोर -जोर से रोने लगीं।
रंजना हिम्मत करके मान्या के कमरे में घुसी। वह अब भी रो रही थी। रंजना उसके बिस्तर के सिरहाने बैठ गई। मान्या को कोई जवाब देने, कुछ बोलने से पहले, उसे अपने अंदर से जवाब पाना जरूरी था। उसने अपने अंदर की दुनिया को उलट-पलट कर देखा। उसने अपने अंदर की दुविधा को टटोल, खंगालकर देखा। दुविधा अंदर थी - जीभ लपलपाती, आग की तरह लपकती, लील लेती.. दुविधा अंदर की दुनिया में बसी हुई थी - पूरी तरह। पर वह नहीं होती तो रंजना तो कवच विहीन हो जाती। दुविधा उसका कवच थी, जो बहुत कुछ से उबार लेती थी। किसी की इशारा करती आंखें जब कभी उसे खींचने लगतीं, तो आगाह कर देती थी कि हो सकता है कि मनमोहन अभी जिंदा है, लौट आएगा और उस आकर्षण की ओर खिंच जाने या कोई निर्णय लेने की जरूरत ही नहीं है। खुद को संभाल, संजोकर रखना और उसका इंतजार करते रहना है - बस। किसी आकर्षण, किसी निमंत्रण को तवज्जो नहीं देनी.. कभी बेटियों को लेकर असुरक्षा हो तो खुद को याद दिला देती थी कि वैसे घबराने की कोई बात है नहीं। मनमोहन आएगा और बेटियों की जिम्मेदारी खुद ही उठा लेगा। बेटियों को लगता था कि वे बिन बाप की नहीं है, रंजना को लगता नहीं था कि वह विधवा, असहाय है। पति के घर, उसकी ब्याहता के अधिकार और इज्जत से रहती आई है वह, सास - ससुर पूरा मान देते हैं, क्योंकि बेटा कभी भी वापस लौट आ सकता है!
पर अभी की दुविधा यह थी कि मान्या के अलग तरह से स्पष्ट महसूसने का क्या करें!
‘मान्या - चुप हो जाओ मेरे बच्चे, और ऐसी बातें मत करो। पापा जरूर जिंदा हैं। गुरु जी बार -बार तो कहते हैं। कुछ मजबूरियां हैं उनकी कि वे हम तक नहीं आ सकते। हमारे साथ औरों की तरह जी नहीं सकते। और फिर, जो हम जानते नहीं हैं, उसे पक्के तौर पर कैसे कह सकते हैं? तुम कैसे कह सकती हो कि पापा मर चुके हैं? तुमने उनकी लाश देखी है, किसी को ऐसा बोलते सुना है? जिन लोगों पर हमें संदेह है कि उन्होंने किडनैप करके रखा है, वे अपनी जीत का डंका पीटने तक को कभी कह नहीं सके कि उन्होंने उन्हें मार दिया है..’ वह बोलती हुई ठिठक कर रुक गई। यह सब वह बेटी से कह रही थी या खुद को दिलासा दे रही थी? ‘तो वे हैं या नहीं हैं - कोई नहीं जानता। हो सकता है तुम्हीं सच हो कि वे अब नहीं हैं। पर जब हम ये सिद्ध कर ही नहीं सकते तो मान कैसे लें! नहीं मान सकते तो हम आन्या की हंसी, अपने पापा के लिए कार्ड बनाने की उसकी खुशी छीन कैसे लें? उसने तो पापा को एक तरह से देखा ही नहीं। वह तो तब सिर्फ दो महीने की थी। उसके दिल में हूक उठती होगी न कि उसके कोई पापा हों? तुम तो पापा की गोद में झूलने की खुशी जानती हो। उनके साथ खेलने, उन्हें घोड़ा बनाने की तुम्हें याद है पर आन्या ने तो कुछ जाना ही नहीं न! उसके पापा तो बस फोटो में हैं या दिल में। वह तो कल्पना भर में उनसे रोज मिलती और आने का इंतजार करती जीती है.. सोचो कि जब दादाजी ने कहा कि मैं फिर से शादी कर लूं तो तुमने ही साफ कहा न कि तुम पापा की जगह किसी और को देख भी नहीं सकती। किसी और को पापा कह ही नहीं सकती। तो आन्या की तो सोचो... उसके दिल में पापा के लिए उठते हूक की सोचो। उसे पापा को महसूसने दो। मत कहो कि पापा नहीं हैं.. उसके साथ ऐसा मत करो मान्या! और फिर क्या पता कि गुरु जी ही सच्चे हों और पापा एक दिन लौट आएं सचमुच। आखिर ये दुनिया इतनी विचित्र है कि..’ रंजना का गला अनचाहे रूंध गया। उसे रोती देख, चुप हो चुकी मान्या फिर से रोने लगी।
क्रमश..