ईश्वर चुप है - 4 - अंतिम भाग Neela Prasad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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ईश्वर चुप है - 4 - अंतिम भाग

ईश्वर चुप है

  • नीला प्रसाद
  • (4)
  • ‘सॉरी मम्मा... पर मेरी भी तो सोचो। मैं नहीं मान पाती कि पापा जिंदा हैं। अब मुझे पापा को जिंदा मानना नाटक जैसा लगता है। आन्या तो आपसे लिपट सकती है, आपके दुख में शरीक हो सकती है, मैं वह भी नहीं कर सकती क्योंकि मुझे हर क्षण याद है कि वह मैं हूं, जिसने आपको दूसरी शादी करने से मना कर दिया। वह मैं हूं जिसके कारण आज हमारे पास न अपने पापा हैं, न दूसरे पापा। ये गिल्ट मुझे अंदर - ही - अंदर खाता रहता है कि मेरी मम्मा दुखी रहती हैं मेरे कारण, मेरे कारण, मेरे कारण.. मैंने मना नहीं किया होता तो आपकी दूसरी शादी हो गई होती। तब आज आन्या और मेरे पास कोई तो पापा होते। वे हमारे स्कूल आते, हमारे साथ खेलते, हमें घुमाने ले जाते, हमें पढ़ाई करवाते, चीजें ले देते.. मेरे कारण ही तो आप शादी का सुख जान ही नहीं पाईं। दूसरी शादी कर लेतीं तो हम सब अपने अलग ढंग से जीते होते। न रोज ये पापा का इंतजार रहता, न ये दुविधा, ये कन्फ्यूज़न कि पापा हैं कि नहीं हैं, जिंदा हैं कि मर चुके हैं, आएंगे कि नहीं आएंगे... कोई कह दे कि हरिद्वार में देखा था तो लगें फोन मिलाने इसको - उसको कि खोजो, हर आश्रम में देख आओ, पूरा शहर छान मारो। फिर कोई कह दे कि नहीं हरिद्वार नहीं, हरिद्वार जाने वाली ट्रेन में देखा था− क्या पता पहले किसी स्टेशन पर उतर गए हों और हम ठगे से एक दूसरे का चेहरा देखते रह जाएं। अब सोचो कि सचमुच पापा ही होते तो ये सब कहने वाले अंकल को पहचानते क्यों नहीं, खुद बात क्यों नहीं करते? सब झूठ है ममा, सब भुलावा है। इट्स हाई टाइम, यू गेट मैरिड अगेन ऐंड लेट्स ऑल मूव ऑन.. मुझे मेरे गिल्ट से छुटकारा दिला दो कि मेरे कारण ही आप शादी नहीं कर पाईं और बस पापा का इंतजार करते जीना, आपकी किस्मत बन गया। आप शादी कर लो। नए पापा अगर मुझे पसंद नहीं करेंगे, तो मैं दादी - दादा के साथ रह लूंगी, नए पापा को चेहरा भी नहीं दिखाऊंगी.. प्लीज़, आप शादी कर लो और ये सब नाटक बंद करो। आप अभी बिल्कुल यंग हो - नॉट इवन थर्टी फाइव। आपकी उम्र में तो कई लड़कियां पहली शादी कर रही होती हैं.. ऐंड यू आर सो ब्यूटिफुल’।

    रंजना के अंदर तूफान आ गया। उसकी आंखों से धार - धार आंसू बहने लगे, हिचकियां आने लगीं। मान्या सोचती है कि बस उसके ‘ना’ करने की वजह से रंजना की दूसरी शादी नहीं हुई। इसी गिल्ट में जीती है वह− जबकि यह सच नहीं है। हिचक रंजना के मन में भी थी। तब मोहन को गए सिर्फ दो साल हुए थे और मानने का कोई कारण नहीं था कि एक दिन लौट नहीं आएगा। इसीलिए तो मान्या ने मना किया तो रंजना तुरंत मान गई। वैसे भी शादी की बात चचेरे जेठ से हो रही थी, जिनकी पत्नी हाल ही में गुजरी थीं। तो मरे की जगह लेना, रंजना सोच तक नहीं सकती थी। जेठ जी को कभी उस नजर से देख पाएगी या नहीं, जैसे मोहन को देखती थी− यह भी तय नहीं था। इसी कारण उस समय ज्यादा कुछ सोचे बिना ही बेटी के बहाने, ‘ना’ कर दी। उस बात का पछतावा भी नहीं है - कहां मोहन, कहां जेठ जी! मोहन जितना प्यार, और कोई मुझे कर ही नहीं सकता− बस इतना ही सोचा। मोहन एक दिन जरूर लौट आएगा− यह भी सोचा। रंजना को तो आज भी कभी - कभी लगता है कि रात को बंद दरवाजे की फांक से मोहन सबों को सोता देख जाता है। वह उसे मर गया मान ही नहीं पाती, न खुद को विधवा महसूसती है। हां, सधवा भी नहीं मान पाती। उसे पता है कि वह बहुत खूबसूरत है - इतनी बार, इतनों के मुंह से सुना है कि खुद भी यही मानने लगी है। ऑफिस में भी सब यही कहते हैं− ‘देखो, इतनी खूबसूरत काया, इतना खूबसूरत चेहरा, इतनी मीठी आवाज और ये बदकिस्मती..’

    कल ही तो सबों के सो जाने के बाद, मनमोहन की याद में, अपनी शादी का अलबम देखने लगी थी। दुल्हन के वेष में वह कितनी खूबसूरत लग रही थी। तस्वीरें देखती कुछ सोचने लगी। बार - बार मनमोहन से कुछ कहने -पूछने का मन होने लगा, पर तस्वीर वाला पति जवाब नहीं देता! दुल्हन के वेष में शर्माती, खिलखिलाती बैठी वह, और मन में उठते कितने तरह के भाव.. उन भावों को अब कोई भाव नहीं देता। तब किसी पंडितजी ने कहा क्यों नहीं कि ये शादी नहीं होनी चाहिए− इस रिश्ते में बाधा ही बाधा है?!

    पापाजी कहते हैं कि जब तुम्हें इतनी हुलस के साथ हम अपने घर लाए और तुम्हारी खूबसूरती, तुम्हारी हंसी, तुम्हारे अच्छे व्यवहार से हमारा घर रौशन हो गया, तब हमने कभी सोचा थोड़े था कि एक दिन ऐसा आएगा कि तुम खुलकर हंसना चाहोगी तब भी, और रोना चाहोगी तब भी – हमें तुम्हें रोकना होगा।

    वह सोच रही है−दूसरी शादी, दूसरा पति, दूसरा घर, दूसरे ससुर - सास, दूसरा परिवार− एक विवाहित, स्थिर जीवन, जैसे दूसरों का होता है? एक ऐसा पति, जो उसकी बेटियों को अपना ले, उनके स्कूल उनका पिता बनकर जाए, घुमाए, सारी जिम्मेदारियां ले। ऐसा ही चाहती है मान्या। और खुद रंजना क्या चाहती है? उसने आंखें बंद कर लीं।

    “मान्या, यह तुम्हारे कारण नहीं है कि मैंने दूसरी शादी नहीं की। पहले जब दादाजी ने कहा, तब भी अपने लिए नहीं, तुम दोनों के बारे में ही सोचा था! डर रही थी−अकेले दो बेटियां पालने के नाम पर। इस समाज में एक अकेली, युवा महिला को दो बेटियों के साथ रहते होने वाली दिक्कतों और असुरक्षा के खयाल से.. इतना डरी हुई थी मैं कि यह मान ही नहीं पा रही थी कि तुम्हारे दादाजी भी बहुत बूढ़े नहीं हैं। उन्होंने जानबूझकर वी.आर.एस लिया ताकि तुम्हारे पापा को नौकरी मिल जाए - कोई -सी भी नौकरी− क्लर्क की ही सही, ताकि वे कोलियरी में बने रहकर कोल ट्रांसपोर्ट का धंधा आराम से कर सकें। दादाजी को रिटायर होने में तब पंद्रह साल बाकी थे.. पर तब मैं ये सारे हिसाब लगा ही नहीं पाई। मैं अकेली हो गई हूं, और ऐसे समाज में दो बेटियों को पालना है, जो लड़कियों को बिन बाप की समझ, खेल का सामान बनाना चाहता है, एक अकेली महिला को अवेलेबल समझने लगता है - यही सब सोचा। फिर तुमने जैसे ही ‘ना’ की, मैंने भी ‘ना’ कर दी−ज्यादा सोचे बिना। वैसे तो अभी सब अच्छा चल रहा है और किसी फेरबदल से क्या होगा, कहना मुश्किल है, पर मैं समझ सकती हूं कि तुम एक अभाव महसूसती हो। महसूसती तो मैं भी हूं। दादाजी ने हम सबों को ऐसे अपना लिया है कि मुझे तुम दोनों के लिए भरोसा रहता है कि तुम दोनों के सिर पर छत भी है, दादाजी भी, फिर भी एक सूनापन इस घर में सबों को घेरे रहता है..’ रंजना ने कुर्सी पर सर पीछे टिका लिया।

    ‘क्या आपको लगता है कि पापा जिंदा हैं और कभी आएंगे?’ मान्या ने फिर से पूछा।

    रंजना ने नहीं सुना। वह कहीं खो गई थी। कितने मौसम, कितने दिन, कितनी रातें.. सब सूने के सूने रह गए। न मोहन, न मोहन भगवान, किसी ने उसकी प्रार्थनाओं का कोई जवाब नहीं दिया। किसी ने नहीं सुनी उसके दिल की कराहें, पुकारें..वह पुकारती रही और वे दोनों चुप के चुप रहे। ‘सावन बीतो जाए पियरवा, मन मोरा घबराए रे.. मोरा सैयां मोसे बोले ना।‘ वह पुकारती - पुकारती थक गई है। अब वह कोई नई शुरुआत करने के लायक रही है क्या? क्या जाने क्या -क्या होगा, नई शादी करने पर? पापाजी, यानी ससुरजी ने कह दिया है कि वह चाहे तो शादी कर सकती है पर तब, उसे इस घर से संपत्ति मिलने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। वह जेठ जी से शादी करती, तब की बात और थी। तब तो सब कुछ घर का घर ही रहता न! कभी उसे लगने लगता है कि तमाम दूसरी संपत्तियों की तरह पापाजी उसे भी संपत्ति ही समझते हैं, इसीलिए किसी और को देना नहीं चाहते। वह संपत्ति की तरह हमेशा उनके कब्जे में रहे और घर से बाहर किसी और की न हो जाए.. पर, यह संपत्ति नहीं है, जिसने उसे दूसरे विवाह से रोक रखा है। यह तो मोहन के जिंदा होने, न होने की दुविधा है। वैसे तो सब ठीक -सा ही लगता होता है पर तभी कुछ क्षण आते हैं और इस ठीक -से लगते होने का मुलम्मा उतारकर उसकी इच्छाओं को नंगा कर जाते हैं। वह पति की बाहों, उसके सहारे के लिए तड़पने लगती है। अपने अकेलेपन से खौफ खाने लगती है। जैसे सूनी सड़क पर ठंढी हवाओं के बीच नंगे बदन दौड़ते जाने का अहसास हो, जो किसी घर, किसी गरमाहट की तलाश में भगाता रहता हो। वह औरों के बच्चों को अपने पापा के साथ गप्पें लड़ाते, पापा से रूठते - पढ़ते, पापा के साथ होने की सुरक्षा महसूसते देखती है तो मान्या, आन्या के लिए सोचने लगती है कि क्यों न इनके पास भी कोई पापा हों.. क्यों न वह फिर से शादी कर ले? पर यह कोई इतना आसान थोड़े है− किसी ऐसे को खोज निकालना, जो उसे, उसकी बच्चियों समेत अपना ले। अब इतने साल बीत जाने पर उसे लगने लगा था कि वह मजबूत हो गई है, कॉन्फिडेंट भी। पर बेटी की एक बात ने उसके ऊपर चढ़ा मुलम्मा उतार दिया। वह जानती थी कि अंदर से वह कितनी कमजोर, कितनी असुरक्षित है.. कितनी अकेली!! थोड़ी देर को लगा कि मान्या सही तो कह रही है− ऐसे कितने दिन जी सकती है वह! कि साल दर साल, पतझर, वसंत, सावन आते-जाते रहें और वह, अपनी बेटियों के साथ किसी का इंतजार करती जीती रहे!

    ‘मम्मा, क्या आपको लगता है कि पापा कभी लौटेंगे? कि वे जिंदा हैं?’ मान्या ने एक बार फिर पूछा।

    ‘अं,’ रंजना चौंकी। ‘मुझे नहीं पता कि वे जिंदा हैं या नहीं। सवाल अब ये नहीं रहा कि वे हैं या नहीं। अब तो बस इस सच्चाई का सामना करना है कि हम उन्हें मरा हुआ मान लेंगे तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। यह सही है कि मैं एक अदना-सी क्लर्क हूं, थोड़ा कमाती हूं, पर तुम दोनों की सभी जरूरतों के लिए दादाजी तो हैं न! अब तो मेरे जीवन में एक ही उद्देश्य है - तुम्हें और आन्या को अच्छी तरह सेटल करा देना। उसके बाद अपनी कोई परवाह नहीं। एक गर्वीली मां और सास बनी जीना चाहती हूं। बस, तुम्हारे पापा लौट आएं और..’, उसने कुछ क्षण सोचकर कहा। वह मान्या से कह थोड़े सकती थी कि ये मान लूंगी कि मेरे पति मर चुके हैं, तो लालची निगाहों से ताकते पुरुषों की हिम्मत बढ़ जाएगी। संपत्ति बांटने कौन-कौन रिश्तेदार नहीं आ धमकेगा। पापा - मम्मी से कई लोग पहले ही पूछ चुके हैं− बहू को मायके क्यों नहीं भेज देते? अभी तो पापा दृढ़ आवाज में कह देते हैं कि मेरे मनमोहन की अमानत हैं ये तीनों− उसके आने के बाद उसे सौंपकर ही जाऊंगा। खुद देखभाल करूंगा, उसके आने तक, वरना उसे क्या जवाब दूंगा?.. और रिश्तेदार चुप लगा जाते हैं। ऑफिस में कई लोग मुझे लिफ्ट देना चाहते हैं, मुझसे दोस्ती करना चाहते हैं। मैं जानती हूं कि इस बहाने वे क्या चाहते हैं। अभी जब मैं कहती हूं कि न पति को पसंद आएगा, न ससुर को, कि मैं किसी और की कार में घर लौटूं, तो वे मुझे अजीब नजरों से देख चुप लगा जाते हैं, कभी मुंह पर कह नहीं पाते कि तुम भ्रम में हो कि तुम्हारा पति कभी लौटेगा.. पर अगर मैं अपने मुंह से कह दूं कि मैं मान चुकी हूं कि वे मर चुके हैं तब तो.. पर यह सब मान्या से कहना शायद जल्दी होती। वह सिर्फ बारह की है।

    ‘मान्या, मेरे बच्चे, अपने मन से यह निकाल दो कि दुबारा शादी न करने का कारण तुम हो। मैंने कहा न कि यह तुम्हारे कारण नहीं है। जरा यह सोचो कि आज हम इस जिद पर उतर आएं कि पापा अब कभी नहीं आएंगे तो आन्या, दादा - दादी के दिल पर क्या गुजरेगी? इकलौता बेटा गंवा चुके होने का दुख तो उन्हें खा ही जाएगा। क्या वे मुझे विधवा के वेश में देख पाएंगे, या तुम्हें और आन्या को अच्छा लगेगा?’

    मान्या आकर उससे लिपट गई - जाने कितने अरसे बाद। ‘ठीक है मम्मा, मैं समझ गई।’ फिर रंजना से अलग होकर भी, कुछ देर उसके सामने ही बैठी रही। यह कुछ देर जाने कितनी देर था। उसके बाद उसने हाथ बढ़ाकर, मां के, और अपने आंसू पोंछ डाले। वह कमरे से निकली और आन्या को पुकारने लगी।

    ‘आन्या, कहां हो तुम... और तुम्हारा कार्ड कहां है? मेरा नाम लिखे बिना ही पूजा घर में रख आई क्या?’

    वह बिल्कुल स्वाभाविक रूप में हंस रही थी और आन्या को गुदगुदा रही थी - जैसे कुछ हुआ ही नहीं। पापा के चेहरे पर जमा हुआ “कुछ” गल गया। मम्मी पूजा घर से निकल आईं।

    अब मान्या की हंसी झेलना रंजना के लिए मुश्किल हो रहा था। क्या वह अंदर से चाहती थी कि मान्या अपनी जिद पर अड़ ही जाए कि पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं? वह जिद करके मां की दूसरी शादी करवा डालने को दादाजी के पीछे ही पड़ जाए? आखिर क्या चाहती थी रंजना, कि इस कदर बेचैन हो रही थी? अपनी हंसती हुई बेटियां, उसे अंदर उगते किसी कसक से बाहर क्यों नहीं निकाल पा रही थीं?

    कोई बेचैनी उसे इस कदर निगलने लगी कि वह घर से चल दी। ईश्वर से झगड़ा करके सच जानने की कोशिश में एक बार फिर उसके कदम मंदिर की ओर मुड़ गए। ईश्वर, जो उसकी किसी प्रार्थना से नहीं पिघलता था, किसी सवाल का जवाब नहीं देता था, उसे फिर से अपना एकमात्र सहारा लगने लगा। पर मंदिर पहुंचते ही वह किसी अफसोस, किसी गुस्से से घिर आई क्योंकि उसका सैंया फिर से चुप था, तो चुप था। न भगवान, न मोहन, कोई उससे कुछ बोलता नहीं था। न आशा बंधाता था, न रोने देता था।

    उसके मन में सन्नाटा छा गया है। वह चुप है, ईश्वर भी। रंजना आंखों की कोरों से आंसू पोंछ रही है, ईश्वर उसे कुछ नहीं कहते। यह भी नहीं कि रोओ मत। वह मोहन को पुकार रही है, वह मोहन भगवान को पुकार रही है और उसकी पुकार मंदिर में चारों ओर फैलती, दीवारों से टकराती, उसी तक वापस लौट आ रही है, पर सब चुप हैं - वह, मोहन और भगवान!

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    (हंसः जनवरी 2012)