बुरी औरत हूँ मैं - 3 Vandana Gupta द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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बुरी औरत हूँ मैं - 3

बुरी औरत हूँ मैं

(3)

वहीँ एक दिन घर में उत्सव का आयोजन था जिसमे हम दोनों भी शामिल थे. मेरे छोटे भाई की पत्नी के दूर के रिश्ते के एक रिश्तेदार भी आये थे और शमीना को देख चौंक उठे. उन्होंने शमीना के बारे में छोटे भाई की पत्नी को बताया क्योंकि वो उसे पहचान गए थे और फिर ये बात सारे घर में फ़ैल गयी. मुझे कटघरे में खड़ा कर दिया गया. सबका यही कहना था तुमने तो खानदान की नाक कटा दी, इसे अभी के अभी छोड़ दो लेकिन जब मैंने बताया मैं सब कुछ जानता हूँ तो घरवालों ने मुझसे और शमीना से हमेशा के लिए नाता ही तोड़ लिया. उनका कहना था, ऐसी लडकियाँ मौकापरस्त होती हैं, ये कभी वफादार नहीं हो सकतीं, तुम क्यों उसके ठगने में आ रहे हो, एक दिन पछताओगे, देखना ये ज्यादा दिन टिकने वालों में से नहीं है और फिर अभी तो तुम्हारे विवाह को कोई ज्यादा वक्त नहीं हुआ महज ४ महीने ही तो गुजरे हैं..........लेकिन मुझ पर तो तुम्हारा जादू चढ़ा था न, कैसे तुम्हारे लिए ऐसी बात सुन सकता था इसलिए सबको छोड़ दिया. तुम और मैं साथ हों तो सारा जहान साथ है, मेरी तो दुनिया ही तुम से शुरू होकर तुम ही खत्म होती थी.

पंछियों से दिन उड़ते रहे. जीवन में इन्द्रधनुष के सारे रंग उतर आये थे. मेरे तो पाँव ही जमीन पर नहीं पड़ते थे मानो जीवन की हर चाह पूरी हो गयी थी तुम्हें पाकर इसलिए कभी और तरफ ध्यान ही नहीं गया और इस सब में कब एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला.

मगर पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी आवश्यकताएं बढ़ने लगी थीं. अब तुम्हारा २५००० में गुजारा नहीं होता था और रकम बढ़कर दुगुनी हो गयी थी ऐसे में घर में मुश्किल हालात पैदा होना स्वाभाविक ही था मगर तुम्हें उस सब की कोई परवाह नहीं थी. तुम्हें तो बस जो तुमने मुंह से कह दिया वो चाहिए होता था और मेरी कोशिश सिर्फ तुम्हें खुश करने की रहती थी मगर फिर भी यदा कदा तुम मुझे नाराज़ ही दिखतीं. नाराज़गी के पल मुझ पर बहुत भारी गुजरते. नहीं जानता था चाँद का कृष्ण पक्ष भी होता है.

अब अक्सर आपस में तनातनी रहने लगी जिसका असर हमारे संबंधों पर पड़ता गया. तुम्हें हाथ लगाता, तुम्हारे पास आता तो फ़ौरन झटक देतीं और यही कहतीं :

“बड़े बड़े वायदे किये थे और अब छोटी से छोटी जरूरत के लिए मुझे मायूस होना पड़ता है. क्या यही था तुम्हारा प्यार ? क्या इसीलिए तुम मुझे अपनी ज़िन्दगी में लाये थे ?”

“शमीना ऐसा नहीं है. तुम जानती हो मेरी तनख्वाह कितनी है और उसमे से ज्यादा से ज्यादा पैसे तुम्हें देता हूँ ताकि तुम्हारी जरूरतें पूरी होती रहे फिर चाहे कितनी ही तंगी हो मैं महिना किसी तरह निकलता हूँ. “

“क्या मतलब ? तुम मुझ पर अहसान करते हो ? अरे तुमने ही तो बड़े बड़े वायदे किये थे या वो सिर्फ कोरे सब्जबाग थे ?”

“देखो अगर बात सिर्फ २५००० की होती तो वो तो मैं आज भी ख़ुशी से खर्च कर सकता हूँ लेकिन अब तो लगभग ४५-५० हजार तक तुम्हारी जरूरतें पहुँच गयी हैं तो मैनेज करना मुश्किल हो जाता है, तुम समझ सकती हो मेरी मुश्किल. आखिर बंधी बंधाई इनकम है. अब ७० हजार में से क्या बचता है कुछ भी नहीं.”

“तुम कहना क्या चाहते हो ? क्या मैं सारा पैसा उड़ा देती हूँ अपनी ऐयाशी पर ? क्या तुम्हें पहले मालूम नहीं था मेरी जरूरतों का ?” गुस्से से लाल होते हुए तुमने कहा.

“मुझे मालूम था एक दिन ऐसा आएगा जब तुम ऐसी ही बात कहोगे लेकिन फिर भी पहली और आखिरी बार विश्वास किया तुम पर और उसका नतीजा भी देख लिया”, गुस्से से भुनभुनाते हुए तुम बोलीं.

“अच्छा तब तुम्हारी जरूरतें भी तो सीमित थीं मुझे क्या पता था शादी के बाद तुम्हारी जरूरतें सुरसा सा मुंह फाड़ लेंगी” मैंने भी तैश में आकर अपनी भड़ास निकाल दी और फिर तो तुमने अपना वो रौद्र रूप दिखाया जिसे देख मैं सन्न रह गया. घर की जाने कितनी चीजें टूट गयीं या शायद मैं भी अन्दर ही अन्दर कांच सा दरक गया था बस एक ठेस और लगती तो बिखर जाता और तुमने वो भी करके दिखा दिया.

अगले दिन मैंने सोचा तुम्हें मनाने के लिए एक होटल में डिनर का प्रोग्राम रखा और शाम को जल्दी आने को कह दिया, “तुम तैयार रहना शमीना हम बाहर डिनर करेंगे और एक मूवी भी देखेंगे” क्योंकि जानता था मूवी और डिनर तुम्हारी कमजोरी थे. शाम को मूवी भी तुम्हारी पसंद की देखी और फिर डिनर भी किया तो तुम्हारा मूड भी थोडा बदल गया था और तुम सहज होने लगी थीं.

घर आकर जब बिस्तर पर तुम और मैं लेटे तो तुम करवट बदल कर लेट गयीं, “शायद अब तक नाराज हो मुझसे शमीना ?”

“नहीं” संक्षिप्त सा उत्तर दे तुम चुप हो गयीं

“अच्छा बाबा, माफ़ कर दो न, आगे ऐसा कुछ नहीं कहूँगा जो तुम्हें आहत करे और कोशिश करूँगा तुम्हारी हर जरूरत पूरी करने की बस थोडा ओवरटाइम करना पड़ेगा लेकिन तुम मत फ़िक्र करो,” कह, मैंने उसे अपनी तरफ मोड़ा और सहजता से उसे सहलाने लगा और फिर नदी और सागर की मिलन स्थली पर अचानक ऐसा ज्वार आया जो अपने साथ मेरा सब कुछ बहा कर ले गया जब संभोगरत थे हम दोनों और अंतिम पड़ाव पूरा हुआ तुमने मुझे अचानक जोर से लात मार कर धक्का दिया तो मैं हतप्रभ सा रह गया.

“क्या हुआ शमीना ? कुछ गलत हो गया क्या ? क्या तुम्हें कोई तकलीफ हो गयी ?”

“कहाँ से और कैसे करोगे मेरी इच्छाएं पूरी जब बिस्तर पर तुम जल्दी ढेर हो जाते हो और मैं अधूरी रह जाती हूँ. आज की स्त्री हूँ कोई पहले जैसी नहीं जो अपनी भावनाएं दबाये. अरे जैसे ये तुम्हारी जरूरत है वैसे ही मेरी भी और मैं इतने दिनों से तुम्हें सिर्फ इसलिए बर्दाश्त कर रही थी क्योंकि कम से कम एक जरूरत तो पूरी हो रही थी मगर अब तुम न तो शरीर की जरूरत पूरी कर पाते हो और न ही पैसों की. फिर क्या है इस रिश्ते में जिसके लिए मैं बंधी रहूँ तुमसे ? पता नहीं किस घडी में तुमसे शादी को हाँ कर दी थी ? मेरी वो ज़िन्दगी कितनी अच्छी थी जहाँ कोई टेंशन नहीं जितना चाहे पैसा कमा लो जैसे चाहे खर्च करो कोई न कहने वाला न सुनने वाला और फिर मनचाहा साथी भी मिलता था जिससे शरीर की भी आवश्यकता पूरी हो रही थी, इसी वजह से अपनी पसंद का साथी चुनती थी ताकि वो खुद भी संतुष्ट हो और मुझे भी कर सके. एक तुम हो जिसे सिर्फ अपनी संतुष्टि से मतलब होता है. कभी मेरी फ़िक्र की ? मुझसे पूछा तुम्हें कैसा लगा ? हुंह.... तुम ही उन्हीं आम मर्दों जैसे हो जो औरत को सिर्फ भोग्य समझते हैं.”

मैं और मेरा पौरुष दोनों मरणासन्न अवस्था में पहुँच गए थे..... शब्द जाने किन बीहड़ों में अटक गए थे, एक के बाद एक विस्फोट मेरे अस्तित्व को धराशायी किये जा रहा था......प्रतिकार या बहस के लिए कोई सिरा कहीं नज़र नहीं आ रहा था..... ओह ! ये क्या सुना मैंने ? क्या मैंने जो सुना वो सच है ? क्या औरत को सिर्फ पैसा और शरीर ही चाहिए होता है ? मैंने तो सुना था औरत को सिर्फ प्यार चाहिए होता है और जिसे सच्चा प्यार मिल जाता है वो उसके आगे हर परेशानी और हर कमी को गौण समझती है. वैसे भी रिश्ते में परिपक्वता तभी आती है जब दोनों एक दूसरे के साथ वफादार हों, आपस में विश्वास हो तभी प्रेम को भरपूर खाद मिलती है पनपने को और शायद मैं हार गया था...... मेरी कोशिशें मुझे मुंह चिढ़ा रही थीं. एक धराशायी वृक्ष सा मेरा आत्मबल कुचला जा चुका था.... मुझे याद नहीं सुबह कैसे हुई...... मैं तो एक विक्षिप्त की सी अवस्था को पहुँच गया था.

ज़िन्दगी के किस पन्ने पर कौन सी इबारत लिखी होगी ये किसी को पहले पता चल जाता तो मुमकिन था कुछ तो बदल ही सकता था इंसान लेकिन यही तो ज़िन्दगी की पहेली है जितनी सुलझाई उतनी उलझी है...... यहाँ तो अभी इस घटना से उबर भी न पाया था कि दूसरे धमाके ने मेरे विश्वास और प्रेम की सभी चूलें हिलाकर रख दीं.......तुम एक पत्र छोड़कर कब की जा चुकी थीं :

“ मैं जा रही हूँ अपनी दुनिया में वापस........ अब कभी मत आना मेरी दुनिया में.”

अपनी नाकामी की दास्तान किसे सुनाता और कौन सुनता ? सबसे विद्रोह करके तो ये साथ पाया था और आज वो ही परछाईं मुझे छल गयी थी फिर कैसे संभव था किसी किनारे का मिलना.

मेरा प्रेम संदेस लेकर गए कबूतर अक्सर बैरंग ही वापस लौटते रहे, मैं पल पल मिटता रहा, सिसकता रहा मगर तुम पर न असर हुआ.

मैं एक उलझन में डूबा रहता. ये कैसी शिक्षा है या किन अर्थों में नारी ने समझा है. क्या देह को माध्यम बनाना उचित है ? क्या इस तरह पैसा कमाना जायज है ? ये कैसी बयार बह रही है जहाँ नारी ये नहीं समझ पा रही कि इस तरह भी तो उसका ही दोहन है ?

अरे स्त्री को यदि बराबरी का शौक है तो करे अपने लिए उसी तरह हायर पुरुष को जैसे उसे किया जाता है. क्यों खुद के शरीर को खिलौना बना रखा है ? ये किस दिशा में सोच जा रही है, शायद यही कारण है आज भोली भाली लडकियाँ इस कुचक्र में फंस रही हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं वास्तव में स्त्री मुक्ति है क्या ? उनके लिए सिर्फ देह तक ही सीमित है उनकी मुक्ति.

एक तरफ ये ख्याल तो दूसरी तरफ तुम्हारी उदासीनता मुझे नित्य झकझोरती, मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा. लाख कोशिश की मैंने लेकिन समझ नहीं पाया मेरे प्यार में क्या कमी रह गयी जो तुम सिर्फ पैसों या देह तक ही सीमित रह गयीं.

क्या आधुनिकता का यही अर्थ है ?

क्या स्वतंत्रता इसे ही कहते हैं ?

स्वछंदता और स्वतंत्रता में कुछ तो फर्क होता होगा ?

टीसों के तीर मेरे दिल को छलनी करते रहे मैं भीष्म सा शब्दबाणों की शैया पर लहुलुहान होता रहा. ये कैसी उम्रकैद मिली मुझको जहाँ न जी सकता हूँ और न ही मर सकता हूँ. सोच के भंवर में डूबा जान ही नहीं पाता था क्या सही हो रहा है और क्या गलत. और एक दिन पूरी तरफ विक्षिप्त हो उठा जब तुम्हारे शब्दों की चोट जो बार बार घडी के घड़ियाल सी मेरे जेहन को ठकठकाती रहती और मैं उससे बचने को अपना सिर दीवार में दे मारता था, खाने पीने सोने जांगने की सुध बुध खो चुका था, कभी रोता कभी हँसता, जाने कब और किसने मुझे पागलखाने पहुंचा दिया.

लगभग दस वर्ष बाद जब अब ठीक होकर बाहर निकला तो ये सारी यादें ताज़ा हो उठीं और एक बार फिर मैं तुम्हारी खोज में हूँ शमीना.

हकीकत के आसमां पर वक्त कि नागिन फेन फैलाए खड़ी थी और मैं कल से अनजान आज को रुसवा करता हुआ एकबार फिर विगत के पाँव पलोटने लगा था. झींगुर की झुन झुन से सोच के कबूतर सबसे ऊंची मीनार पर बैठने को लालायित थे और अपनी गुटर गूं से विगत के पन्नों को अक्सर फडफडाते थे तो बचैनी की चींटियाँ एक बार फिर काटने लगतीं. मगर इस बार वो बेताबी, वो बेचैनी या कोई अपराधबोध नहीं था. इस बार थी एक जिज्ञासा. हाँ, जानने की इच्छा. आखिर इतने सालों बाद शमीना आखिर है कैसी और किस हाल में है.

इन्ही प्रश्नों के व्यूह में फंसा मैं उत्तर की चाहत में एक बार फिर खोजने निकल पड़ा.

दस साल काफी होते हैं आज एक सदी बदलने जितना बदलाव आ जाता है. ऐसे में शहर की शक्ल नितांत अजनबी सी मुझ चिढ़ा रही थी. कोई नहीं था जो हाथ पकड़ सहला दे, दो घडी बतिया ले. नए सिरे से ज़िन्दगी बांह पसारे सामने खड़ी थी. एक वृहद् आकाश जिसका न कोई ओर था न छोर. कहने को दुनिया अटी पड़ी थी चेहरों से, भीड़ से, लोगों से मगर मैं इस भीड़ में अजनबी सा चुनने को खड़ा था अपने हिस्से का आसमान.

कहाँ से शुरू करूँ ज़िन्दगी ?

प्रश्न साथ चलने लगा और फिर सोचते हुए पहुंचा अपने फ्लैट पर शहर की अनजान डगर को फर्लान्घ्ता हुआ. फ्लैट का हाल मुझसे कम न था, जगह जगह से उधडा प्लास्टर अपनी कहानी स्वयं कह रहा था. जगह जगह से टूटा हुआ बिलकुल मेरी तरह जैसे कोई मुझे आईना दिखा रहा था. आस पड़ोस क फ्लैट में शुक्र था वो ही लोग थे जो पहले थे तो उसे सँवारने और खुद को सँभालने में ज्यादा दिक्कत महसूस नहीं हुई.

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