बुरी औरत हूँ मैं - 4 - अंतिम भाग Vandana Gupta द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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बुरी औरत हूँ मैं - 4 - अंतिम भाग

बुरी औरत हूँ मैं

(4)

अब जरूरत थी एक सिरा पकड़ने की. पहले नौकरी की व्यवस्था करनी जरूरी थी इसलिए अपनी पुरानी कम्पनी में ही जाकर दरख्वास्त लगाई तो उन्होंने हाथों हाथ मुझे ले लिया शायद मेरी किस्मत के खुदा को मुझ पर रहम आना शुरू हो गया था.

ज़िन्दगी एक ढर्रे पर जब चलने लगी तो खुद को व्यस्त रखने को सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गया. दिन कंपनी में और शाम वहां. अब सुबह शाम की व्यस्तता में मैं शमीना को एक हद तक भूल चूका था. यूँ भी ज़िन्दगी में करने को कुछ बचा नहीं था. कुछ मित्र लोग कहते भी थे, ‘यार, दूसरी शादी के बारे में सोच. क्यों बेकार में अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर रहा है, ज़िन्दगी का सफ़र अकेले नहीं कटा करता ‘ मगर मैं जो अब उम्र का एक हिस्सा लगभग बेख्याली में गुजार चुका था, मेरा मन उनकी बात पर ठहरता नहीं था. अब तो विश्वास के धागे इतने कमजोर हो चुके थे कि हल्का सा यदि कोई झटक भी देता तो टूट सकते थे इसलिए अपनी तन्हाई के साथ खुश रहता था.

जिन संस्थाओं से जुड़ा था वहां अक्सर सभी तरह के लोगों से मिलना जुलना लगा रहता. वहां की समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश करता. सभी में लोकप्रिय हो चुका था क्योंकि शायद उनका दर्द अपना सा लगता और मैं हर किसी से आत्मीय नाता बना लेता जिसकी सभी को जरूरत होती है. एक संस्था में तो सिर्फ स्त्रियाँ ही रहती थीं जो ज़माने की सताई होती थीं तो एक में सिर्फ बुजुर्ग और एक में सिर्फ बच्चे. इस तरह हर उम्र के लोगों से अक्सर मिलना और बतियाना काफी हद तक केवल उनके ही नहीं मेरे अकेलेपन को भी कम कर देते.

साल दर साल गुजरते रहे. मैंने अपने आप को उन संस्थाओं के प्रति इतना समर्पित कर दिया था कि उनके सञ्चालन का जिम्मा भी मेरे कन्धों पर धीरे धीरे आ गया. पुराने बुजुर्गों ने मुझे ये जिम्मेदारी सौंप दी क्योंकि उन्हें विश्वास था मुझ पर या शायद मेरा समर्पण देख उन्होंने ये निर्णय लिया. इसी जद्दोजहद में और दस साल गुजर गए.

एक दिन अचानक सैंडी से मुलाकात हो गयी तो जेहन की हर परत खुलती चली गयी. अरे ये तो सैंडी है, शमीना की दोस्त. एक बार फिर कौतुहल ने जन्म लिया, जो चिंगारी वक्त की राख में दबी थी फिर भड़क उठी और मैं सैंडी से बात करने को आतुर हो उठा.

“सैंडी,पहचाना मुझे ?”

“ हूँ, हाँ शायद कहीं देखा तो है “

“मैं नरेन्, शमीना का पति “

“ओह! नरेन् तुम...... ओह माय गॉड, कितने सालों बाद. कैसे हो, कहाँ हो ?”

“सैंडी,मेरी छोडो, क्या तुम्हें कुछ पता है शमीना के बारे में ? कहाँ है वो ? कैसी है ? क्या करती है ? “

जैसे ही मैंने शमीना का नाम लिया मानो कुनैन की गोली मुंह में घुल गयी हो सैंडी के ऐसा मुंह बना लिया.

“क्या तुम अब तक उसके चक्कर में पड़े हो नरेन्”, आश्चर्य से उसने प्रतिप्रश्न किया

“नहीं सैंडी, बस जानना चाहता था कि वो कहाँ है और कैसी है ? क्या जी पा रही है वो ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर ? कब से अपने प्रश्नों का उत्तर पाने को बेचैन हूँ बेशक अब मेरे दिल में और मेरी ज़िन्दगी में उसके लिए कोई जगह नहीं लेकिन फिर भी अपनी जानकारी के लिए मेरे लिए ये जानना जरूरी है अगर बता सकती हो तो प्लीज बता दो”, जब गिडगिडाते हुए नरेन् ने कहा तो सैंडी बोली

“नरेन, जाने कैसी सोच थी उसकी, सच बहुत दुःख हुआ था मुझे जब पता चला कि वो तुम्हें छोड़कर चली गयी अपनी दुनिया में वापस और तुम्हारी दुनिया ही उजड़ गयी मगर तब मैं हिम्मत ही नहीं कर सकी कि तुमसे मिलूँ और बात करूँ जाने तुम मुझे क्या समझते शायद उस जैसा ही” लम्बी सांस भरते हुए एक सांस में सैंडी ने कहा.

“ हाँ, शायद तुम सही कह रही हो सैंडी, वो एक ऐसा दौर था मेरे जीवन का जहाँ अपने पर से भी विश्वास मेरा उठ गया था तो यदि तुम कुछ कहतीं भी तो शायद मैं समझ नहीं पाता.”

“ नरेन, शमीना शायद जान ही नहीं पायी जीवन के अर्थ. उसे पता ही नहीं था कि स्वतंत्रता के सही मायने क्या हैं. महानगर की चकाचौंध ने शायद उससे उसका विवेक भी छीन लिया था और वो एक बिना मल्लाह की कश्ती सी बहती रही और उसे ही जीवन समझती रही. सपनों के इन्द्रधनुष को यथार्थ मान लिया था उसने तभी तो भविष्य से बेखबर रही. जानते हो, क्या हुआ उसका ? “

“ नहीं, वो ही तो जानना है”

“नरेन तुम यदि उसे देखते तो शायद पहचान भी नहीं पाते. कहाँ तो मखमली गुलाब सा उसका रंग रूप था और कहाँ ऐसी दुर्दशा हो गयी थी कि कोई भी उसे नहीं पहचान सकता था. अभी हाल ही में कुछ महीनों पहले मुझे मिली थी एक फुटपाथ पर जब मैं वहां से सड़क क्रॉस कर रही थी वो अचानक मेरे सामने आई और बोली सैंडी, पहचाना मुझे ?”

मैं हैरत से उसे देखने लगी और सोचने लगी आखिर ये कौन है जो मेरा नाम जानती है और इस अधिकार से बात कर रही है वहीँ उसे देख डर लग रहा कि कहीं कोई चोर उच्च्क्कों में से न हो जो मुझे बातों में मुझे फुसला कर मेरी चीजों पर हाथ साफ़ कर ले मगर जब उसने अपना परिचय दिया तो मैं ठगी सी खड़ी रह गयी, क्या ये वो ही लड़की है जो सारी दुनिया को मुट्ठी में करने के ख्वाब देखा करती थी आज भिखारिन से भी बदतर स्थिति में है लेकिन मैं उसके बताने पर भी उसे नहीं पहचान पा रही थी क्योंकि वक्त ने कोई भी पहचान चिन्ह उसके चेहरे पर नहीं छोड़ा था, चितकबरा सा चेहरा, खिचड़ी से बाल, फटे पुराने मैले कुचैले कपडे. लेकिन उसके बताने पर यकीन करना ही था और मैं उसकी उस दुर्दशा के बारे में जान्ने को बेचैन हो गयी और उसे अपने साथ पास के पार्क में ले गयी वहां बैठ उसके बारे में सब जाना.

“नरेन, तुम्हें छोड़ने के बाद वो फिर उसी धंधे में वापस आ गयी थी और अपनी शर्तों पर, अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जीने लगी थी लेकिन वो कहते हैं न सभी की ज़िन्दगी में परिवर्तन आते ही हैं ऐसा ही उसके साथ हुआ. एक मालदार आसामी था बस उसकी एक ही डिमांड थी कि रोज वो उसके साथ सोये और मुंहमांगे पैसे लेती रहे. और शमीना को चाहिए ही क्या था बस वो वैसा ही करने लगी और फिर एक दिन कुछ महीनो बाद जब हकीकत सामने आई तो वो कहीं की नहीं रही थी.”

“क्या हुआ ऐसा सैंडी ?” बेचैन हो व्यग्रता से मैंने पूछा

“नरेन उस इंसान को एड्स थी और वो एक सनकी था जो अपने माध्यम से ये बिमारी सुन्दर लड़कियों को दे रहा था क्योंकि उसे ये बीमारी एक सुन्दर लड़की से मिली थी और उसी के प्रतिशोध स्वरुप उसने ये रास्ता पकड़ा जिसमे शमीना फंस गयी थी.”

“अब शमीना के लिए हर रास्ता बंद हो चुका था जहाँ से वो पैसे कमा सके. शारीरिक सम्बन्ध बना नहीं सकती थी किसी से भी और दूसरा कोई काम आता नहीं था. जितने पैसे थे वो कुछ ही दिन में ख़त्म हो गए और उसके बाद शुरू हुआ उसका संघर्ष का सफ़र. एक तरफ बिमारी दूसरी तरफ पैसे न हो पाने की वजह से कहीं रहने तक के लाले पड़ गए तो वो कुछ दलालों के हत्थे चढ़ गयी जिन्होंने उसे भीख के काम में लगाया और वो मजबूरन उस काम में उतर गयी क्योंकि इश्वर ने पेट एक ऐसी चीज लगाईं है जिसकी अनदेखी इन्सान नहीं कर सकता और उसी की खातिर सब कुछ करने को मजबूर हो जाता है वैसा ही शमीना के साथ हुआ. मगर वहां भी उसकी परेशानियों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. फुटपाथ ही घर बन गया था, सभी तरह के लोग वहां सोते थे और कितनी ही बार औरत होने की वजह से उनकी ज्यादतियों की शिकार होती थी फिर चाहे कितना ही मना करे अपनी बिमारी का हवाला देती मगर जिसे वासना का कीड़ा काट लेता है वो किसी बात पर यकीन नहीं करता और वो भी उसकी इस बात को झूठ मानते, जाने कैसे कैसे लोगों ने वहां उससे सम्बन्ध बनाए जिनके कारण यौन रोगों की भी शिकार हो गयी और जब उस दिन मिली और उसने ये सब बताया तो मैं अन्दर तक हिल गयी तब उसने कहा कि ये उसके कर्मों की ही सजा है. उसने एक देवता जैसे प्यार करने वाले शख्स का दिल दुखाया था तो सजा तो मिलनी ही थी बस उसकी अंतिम इच्छा थी कि किसी भी तरह वो मरने से पहले तुमसे मिलकर अपने किये की माफ़ी मांग ले लेकिन तुम्हारे सामने भी नहीं आना चाहती थी, न ही अपनी पहचान तुम्हें बताना चाहती थी इसलिए तुम्हारी खोज खबर भी नहीं रखती थी. “

“नरेन्, पता नहीं आज वो जिंदा है या नहीं, मगर उसके लिए मुझे दुःख हुआ कि जाने किन भावनाओं के वशीभूत हो उसने अपनी ज़िन्दगी को खिलौना बना लिया और मैं कुछ कर भी नहीं पायी उसके लिए, अपनी रौ में बहती हुई सैंडी बोले जा रही थी और जब उसने कहा कि शमीना ने कहा था कभी नरेन् मिले तो उसे मेरा ये सन्देश दे देना,

एक बुरी औरत हूँ मैं जो यौन संक्रमण से ग्रसित हो कब एड्स को दावत दे बैठी पता ही नहीं चला..... जो मैंने किया उसका दंड तो भुगतना ही था..........हो सके तो मुझे माफ़ कर देना नरेन.”

कह भरे मन से सैंडी चली गयी और मैं कुछ हद तक अब शायद निश्चिन्त हो चुका था या शायद मेरी खोज को एक अर्थ में विराम मिल चुका था इसलिए गुम हो गया एक बार फिर अपनी संस्था के काम में, झोंक दिया अपना सब कुछ उनके लिए और ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर चलने लगी फिर से.

“बाबूजी, बाबूजी, जल्दी चलिए,” बदहवास सा कर्मचारी रामदीन चिल्लाया

“अरे क्या हुआ रामदीन ? इतने परेशां क्यों हो ?”

“बाबूजी, वो देखिये वहां गेट के पास एक स्त्री बेहोश पड़ी है और लगता है जिंदा नहीं बचेगी “

मैं लगभग दौड़ता हुआ गेट तक पहुँचा और उस स्त्री को रामदीन की सहायता से सीधा किया. एक झटका सा लगा,शायद कहीं देखा है....... मगर कहाँ याद नहीं.खिचड़ी से बाल, रंग रूप भी चकत्तेदार, फटा हुआ मैला कुचैला सूट, चेहरे पर दायें से बाएं कटे का निशान, पपडाए कटे होंठ, एक बांह जली हुई, ऐसे में कैसे संभव है अचानक किसी को देखने पर याद रखना, “अरे रामदीन, जल्दी से पानी लाओ ? होश में लाओ इसे.”

रामदीन पानी छिड़कता है तो थोड़ी से वो कुलबुलाती है. मैं एक घूँट पानी उसके मुंह में डालता हूँ तो उसकी आँख खुलती है.......... अजनबी निगाहों से सबको देखती है और पूछती है :

“मैं कहाँ हूँ ? कौन हैं आप लोग और ये कौन सी जगह है ?”

“चलिए, पहले आप अन्दर चलिए उसके बाद आपकी हर बात का जवाब देते हैं “, कह मैंने और रामदीन ने उसे सहारा दिया और अन्दर ले आये मगर इस बीच उसने मानो जेहन पर कब्ज़ा ही कर लिया था, यादों के झुरमुट से सिरा पकड़ने की कोशिश कर रहा था मैं कि वो बोली :

“ नरेन्, तुम में आज भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया”, सुन चौंक उठा मैं, आखिर ये है कौन जो मेरा नाम तक जानती है.

“आप मुझे जानती हैं”, हैरत में पड़ा मैं बोल उठा

“हाँ, एक गहरी श्वांस भर उसने कहा मानो हाँ कहने के लिए भी एक लड़ाई वो खुद से लड़ रही हो और सोच रही हो हाँ कहूं भी या नहीं. “

“नरेन पहचाना नहीं क्या मुझे ?” मेरी ओर बेबसी से देखते हुए वो बोली

नहीं, असमंजस की सी स्थिति में पड़ा मैं अपने जेहन के घोड़े दौडाने लगा था कि शायद कोई सिरा हाथ लगे तो पता चले आखिर ये है कौन मगर जेहन के तार बेजार से बंगले ही झांकते मिले.

“ “नरेन, तुम सही थे और मैं गलत....... ये आज कह सकती हूँ मगर उस वक्त जवानी के जूनून ने मेरी आँखों पर जाने कौन सी गांधारी पट्टी बाँधी थी कि अपने आगे न किसी को देखती थी न समझती थी और जो मैंने तुम्हारे साथ किया शायद ये उसी का दंड है कि ज़िन्दगी अंतिम बार तुमसे मिलाने ले आई और तुमसे माफ़ी मांग शायद मैं थोडा सा प्रायश्चित कर सकूँ.

दुविधा के बादलों में घिरा मैं असमंजस में पड़ा उसे देख और सुन रहा था मगर पहचान के कोटर में कबूतर गुटर गूं करने से इनकार करते ही रहे.

“नरेन, कैसे पहचान सकते हो तुम मुझे, ये सब मेरा ही किया धरा है तो भुगतना भी मुझे ही होगा.......अच्छा है तुमने नहीं पहचाना, जाना आसान हो जायेगा वर्ना हमेशा एक खलिश के साथ याद आती रहूँगी...... जिन रास्तों की मंजिलें नहीं हुआ करतीं वहीँ फिसलने ज्यादा होती हैं और उन पर चलने का खामियाज़ा मैंने ऐसा रोग पाकर किया कि अब जीने की चाह ही ख़त्म हो चुकी और वैसे भी अब तो जीने की मियाद भी ख़त्म हो चुकी है, कौन सी सांस आखिरी हो कह नहीं सकती....... बस जाते जाते एक विनती है तुमसे, हो सके तो मुझे माफ़ कर देना, मैं तुम्हारे काबिल कभी नहीं थी “.

“ क्या हुआ है तुम्हें और तुम्हारा मुझसे आखिर क्या नाता है ? मैं तुम्हें पहचान क्यों नहीं पा रहा, प्लीज बताओ मुझे.”

“बस इतना याद रखो एक ‘ बुरी औरत हूँ मैं ‘ जो यौन संक्रमण से ग्रसित हो कब एड्स को दावत दे बैठी पता ही नहीं चला..... जो मैंने किया उसका दंड तो भुगतना ही था............ बस इश्वर की शुक्रगुजार हूँ जो उसने तुमसे मिलवा दिया ताकि एक बार माफ़ी मांग सकूँ..........हो सके तो माफ़ कर देना मुझे........अपनी थरथराती साँसों के साथ उसके आखिरी लफ्ज़ फिजां में गूँज उठे और मैं पहचान के तिलिस्म में घूमता एक असमंजस का आईना बन गया था जहाँ न रूप ने न गंध ने पहचान के बादलों को छाँटा, बदली छंटी भी तो लफ़्ज़ों की कुदाल से कटती हुई या जाने काटती हुई, मेरे प्रेम के वटवृक्ष को धराशायी करने को काफी थी .

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