निर्वाण
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15 अगस्त, 2016
आमफावा फ्लोटिंग मार्केट की सीढ़ियों पर उस दिन हम देर तक बैठे रहे थे। हम यानी मैं और माया- माया मोंत्री! बिना अधिक बात किए। दिसंबर की यह एक धूप नहायी सुबह थी, बेहद ताज़ा और ठंड, दिन चढ़ने के साथ धीरे-धीरे मीठी ऊष्मा से भरती हुई... हवा में अजीब-सी गंध थी- घाट की अनगिनत सीढ़ियों पर तितली के रंग-बिरंगे जत्थे-से मँडराते पूरी दुनिया से आए सैलानियों की देह गंध, नावों में पकते-बिकते थाई पकवानों की गंध और गंध नदी की, नावों में लदे मौसमी फूलों और फलों की...
गंध के इस मसृण संजाल में एक गंध माया की भी होगी... किसी अनचीन्हे जंगली फूल या नमकीन समंदर की तरह... माया के बालों पर उतर कर शहदिया पड़ गई धूप को तकते हुये जाने कितनी देर तक मैं चुप बैठा रहा था। माया भी, हमेशा की तरह, अपने में गुम! ना मालूम वह कौन-सा देश है जहां वह रहती है! उसकी देह के साथ मैं अक्सर अकेला रह जाता हूँ! जैसे किसी पोर्सलीन डॉल के सानिध्य में होऊँ! ऐसी डॉल जो बहुत सुंदर तो होती है मगर प्राणहीन भी! उसमें उसको ढूँढना आसान नहीं होगा, अब तक समझ चुका हूँ। बहुत विहड़ है वह, बहुत सघन भी! इस तरह बार-बार उसकी तरफ एक जुनून भरी यात्रा में निकलना और खाली हाथ लौट आना... ठीक जैसे आज भी! अब प्रतीत होता है, भीतर काई-सा कुछ जमने लगा है चुपचाप, थकने लगा हूँ मैं...
एक बार उसी ने कहा था, अनमनी-सी- सैलानी यहाँ आते हैं, कुछ ‘बहत’ के बदले नदी पर तैरते बाज़ार की रंगीनी लूट कर लौट जाते है, रह जाती है अकेली नदी, अपने भीतर के अडोल सन्नाटे के साथ...
उसकी बातों में कविता होती थी, हर शब्द में एक बिम्ब खड़ा हो जाता था, जिंदा, चलता-फिरता-सा! मैं उसकी कुहरीली आँखों में एक बार फिर ढूँढने की कोशिश करता हूँ और निराश होता हूँ, जाने क्यों माया के होंठों की हंसी कभी उसकी आँखों तक नहीं पहुँचती! एक गुमसुम, सहमा-ठिठुरा मौसम- किसी मटमैले-से दिन की दहलीज पर सदियों से ठहरा हुआ! अब लगता है, वो नदी शायद माया ही है, प्रांजल देह और मौन भरे तल की उदास नदी... मैं उन सैलानियों में से नहीं, मुझे नदी के साथ मिल कर नदी हो जाना है, उसके साथ निकलना है समुद्र में समा कर असीम हो जाने की महायात्रा पर... मैं उसे विश्वास दिलाना चाहता हूँ मगर मेरी बात उस तक नहीं पहुँचती, कभी पहुंचेगी भी?... एक लंबे अर्से से मेरा अकेला दुख शायद यही है।
नदी की भाप उड़ती सतह पर नावों का मेला है, मधु मक्खी के गुंजार-सा उठता शोर, उसमें घुली पकवान, इत्र, पसीने की गंध, हंसी के टुकड़े, पानी की इस्पाती सतह पर झरती धूप की बेसुमार चमकीली पन्नियाँ... एक सिक्के-सा खनकता क्षण, सबके मन जेबों की तरह भरे हों जैसे... इस मंजर का कोई कोना खाली नहीं हो सकता शायद, बस माया की बात अलग है! वह रीती-सी दिखती है, हर भराव के बावजूद!
दोपहर का सूरज जब एकदम सर पर था, माया के कहने पर हम सीढ़ियों से उतर कर पास की छोटी-संकरी गलियों के संजाल में आ गए थे। इन तंग गलियों में लोग नदी की तरह अविरल बहते रहते हैं। हर समय, रंग और जीवन से भरे हुये। चमकते चेहरों का जुलूस... भीड़ ऐसी कि चलते हुये कंधे छिल जाय। छुट्टियों के दिन यहाँ की गलियां फूड मार्केट में तब्दील हो जाती हैं। हर तरफ खाने-पीने के स्टॉलस और चमचमाती दूकानों के विंडोज में सजी बाजार की रंगिनियाँ, उनके सम्मोहक इशारे...
नदी के क्रासिंग ब्रिज के पास कुछ रेस्तरा हैं जिनकी बाल्कनी नदी की तरफ खुलती हैं। दोपहर के इस समय इन रेस्तराओं में तिल धरने की जगह नहीं होती। बाल्कनी के दरवाजे पर खड़े हो कर हम कोई खाली जगह तलाश रहे थे जब अचानक से एक जोड़ा के उठने से हमें बैठने की जगह मिल गई थी। बिल्कुल बाल्कनी का कोने वाला टेबल। बैठते हुये माया मुस्कराई थी- हम बहुत लकी हैं आकाश! हमें यहाँ, इस वक्त बैठने की जगह मिल गई... मैंने मेनू से नजर उठाई थी- लकी? इतनी-सी बात पर!
मुझे इस जमीन की यही बात शायद सबसे अच्छी लगती है- जीवन के प्रति उद्दाम आशा, जिजीविषा... ये कहते भी हैं- ‘सानुक’ यानी जीवन मौज है! बेमतलब, टूटे-बिखरे चीजों को सहेज कर उन्हें नए सिरे से सिरजना, जीने योग्य बनाना! एक बहुत व्यावहारिक जीवन पद्धति के समानान्तर चलता आस्था और संस्कार का प्राचीन, पारंपरिक जीवन! एक तरफ बाजार का मायावी संसार है, उसकी गलाकाट प्रतिस्पर्धा, कदम-कदम पर तीतरफांद, दूसरी तरफ मंदिरों, बौद्ध भिक्षुओं की दुनिया, हर गली-चौराहे में आत्माओं और पूर्वजों के नन्हें-सुंदर लकड़ी के बने खिलौना घर-से पूजा स्थल, उनमें जलती सुगंधित अगरबत्तियाँ, धार्मिक जुलूस, मनोरम भंगिमाओं में नृत्यरत पारंपरिक बेशभूषा ‘चुट थाई’ में सुंदर स्त्रियाँ...
नदी की तरफ से आती उल्टी-पलटी हवा में बिखर गए बालों को सहेजती हुई माया मुस्कराती रही थी- तुम शायद नहीं समझो, हम जैसे आम लोगों के लिए जिंदगी की इन छोटी-छोटी बातों में कितनी बड़ी नेमत छुपी होती है... भीड़ भरी बस, रेस्तरां में एक विंडो सीट मिल जाना, किसी लंबी कतार में जल्दी अपनी बारी का आ जाना, रात की एक पूरी नींद, प्रार्थना के मौन, शांत क्षण...
मैंने माया से पूछ कर खाने का ऑर्डर दिया था, मेरे लिए एक कोल्ड कॉफी, बेज मोमो, माया के लिए ‘हॉर्स शू क्रैब एग सलाद’, चिकन सैंडविच! माया कौतुक से भर कर पूछी थी, शायद यह लेकर चौथी बार- तुम बेजेटरियन हो? क्यों? “क्यों! मेरे लिए यह सवाल ही बेमानी है...” मैंने बात को हल्के में टालने की कोशिश की थी- “इस दुनिया में भूख मिटाने के लिए बहुत कुछ उपलब्ध है, फिर क्यों नाहक किसी की जान ली जाय! बिल्कुल तो संभव नहीं मगर हाँ, कोशिश करता हूँ अपनी तरफ से कम से कम दुनिया को हानि पहुंचाऊं... जिस दिन अपने सरवायबल का सवाल होगा, जान पर बन आएगी, सोचेंगे!
माया के पल्ले शायद मेरी कोई बात नहीं पड़ी थी। चुपचाप मेरी तरफ देखती रही थी। मेरा मन किया था, उससे पूछूं, जिस बौद्ध धर्म में अहिंसा ही मूल मंत्र है, उसके अनुयायी जीवों के प्रति हिंसा का विरोध क्यों नहीं करते। मगर मैंने नहीं पूछा था, बात बदल कर दूसरे प्रसंग पर आ गया था- “तुम लोगों के लिए शायद हर सैलानी अमीर होता है मगर मैं कोई अमेरिकन या अरब नहीं, एक भारतीय हूँ- तुम्हारी तरह आम आदमी...” मेरी बात पर माया ने जाने किस नजर से मुझे देखा था- फिर तुम किसी थाई लड़की से शादी कर यहाँ किसी ‘फारंग’ की हैसियत से बस नहीं पाओगे... किसी भी पर्यटक स्थल पर मेहमानों की हैसियत उनके पैसों से तय होती है, खास कर यहाँ- थायलैंड में! माया ने यह बात बहुत सहज ढंग से कही थी मगर मुझे कुछ चुभा था, बहुत गहरे कहीं। वतन से लाख दूर हो कर भी अपनी भारतीय भावुकता से मुक्त नहीं हो पाता... आहत हो उठता हूँ उन बातों से भी जिनसे माया के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं पड़ती। कई बार माया का बहुत व्यवहारिक होना मुझे खलता है जब अपने देश की रूमान भरी किस्से-कहानियों से निकल कर वह किसी वनिये की तरह बोलती है।
दो दिन से माया लगभग सारा-सारा दिन मेरे साथ है। एक लंबे, यंत्रणादायक इंतज़ार के बाद।
पहली बार वह मुझे अपने गाँव फुयांग में लगभग तीन महीने पहले मिली थी। कोहरे के खेत के पास। शाम की उतरती धूप में नारंगी कोहरों की ढेर के बीच बैठी। हाथ-पैर में मिट्टी, बालों में धूल। लंबी स्कर्ट और कुर्ते में। जंगली बत्तखों के झुंड पर फिरते हुये मेरे कैमरे का लेंस उसके चेहरे पर जा टिका था और देर तक वही ठहरा रह गया था- दो छोटी मगर गहरी आँखें, घनी बरौनियों से ढँकी हुईं! गिरती शाम की म्लान धूप में दीये-सी झिलमिलाती हुईं...
एक समय बाद उसकी नजर मुझ पर पड़ी थी और वह चौंक कर उठ खड़ी हुई थी। मेरे पास जा कर माफी मांगने पर थाई रिवाज के मुताबिक थोड़ा सर झुका कर विनम्रता के साथ हाथ जोड़ कर ‘वाई’- नमस्ते कहते हुये चल पड़ी थी- “माई पेन राई- कोई बात नहीं...” नए बने कनाल के बगल की कच्ची सड़क पर चलते हुये इसके बाद उसने मेरे किसी और बात का जवाब नहीं दिया था। एक थाई लड़की का इतना संकोची होना जहां मुझे आश्चर्यजनक लगा था वही कहीं से अच्छा भी लगा था। वर्ना यहाँ के देह बाज़ारों से गुजरते हुये कभी-कभी वितृष्णा–सी होती थी। लगता था, सारा देश बाजार में तब्दील हो गया है!
उस रात मेरी नींद अजीब सरगोशियों से भरी हुई थी। जाने कौन गुनगुनाते हुये निरंतर बोल रहा था मेरे अंदर, किसी पहाड़ी नदी की कल-कल-सी आवाज, हल्की पदचाप... मैं चल रहा था, ना मालूम किस तरफ! दूर धूप में चमकते कुछ नारंगी धब्बे और दो दीये-सी आँखें... सुबह मेरी मकान मालकिन ने मुझे चेताया था, गिरती शाम यूं अंजान जगहों में ना फिरा करूँ, बुरी हवायें छू लेती हैं!
उस दिन के बाद मैं लगातार कई दिनों तक उसके गाँव के आसपास मँडराता रहा था। कभी उसे खेत से ताजी सब्जियाँ तोड़ कर ले जाते हुये देखता, कभी गाँव के बाहर पेड़ों के नीचे बने पूर्वजों और अशरीरी आत्माओं के मंदिर में अगरबत्ती जलाते या प्रसाद चढ़ाते। बहुत कोशिशों के बाद वह मुझसे कुछ सामान्य हुई थी, थोड़ा बहुत खुली थी।
धीरे-धीरे जाना था, हर थाई की तरह वह भी बहुत संस्कारी और अपनी परंपराओं में यकीन रखने वाली स्त्री थी। अपने इस ‘मुबान’ यानी गाँव ‘फुयांग’ में अधिकतर थाई परिवार की तरह उनका भी बहुत बड़ा कुनबा था। अनगिनत बच्चों और बूढ़े-बूढ़ियों से भरा हुआ। बड़े-से घर के आँगन में मुर्गी, सूअर, बकरियों के साथ ढेर से नंग-धड़ंग बच्चे दिन भर शोर मचाते रहते। लकड़ी के बेंचों पर बैठ कर प्राचीन शक्ल वाले बूढ़े ताश खेलते या सिगरेट पीते। इन सब के बीच बेहद खूबसूरत और आधुनिक दिखने वाली माया बहुत सहज और कम्फर्टेबल दिखती थी। अपने किसी रीति-रिवाज या पारिवारिक परिस्थिति को ले कर उसमें किसी तरह का संकोच या हीन ग्रंथि नहीं थी। उसकी यह बात मुझे अच्छी लगती थी।
मंदिरों में बेहद सम्मान के साथ पैर मोड कर स्पर्श से बचते हुये बौद्ध भिक्षुओं के चरणों में चढ़ावा या दक्षिणा रखते हुये या आशीर्वाद के रूप में उनसे मोमबत्ती के दूसरे सिरे से माथे पर टीका लगवाते हुए वह जितनी सुशील, अनुशासित प्रतीत होती थी, अपनी बूढ़ी नानी को नहलाते-धुलाते और खाना खिलाते हुये उतनी ही सहृदय और जिम्मेदार! अपनी नब्बे साल की बूढ़ी नानी के साथ उसका व्यवहार किसी हम उम्र सहेलियों जैसा आंतरिक और सहज था। मुझे उसके हर रूप से प्यार हो गया था। संशय के किसी क्षण में सोचता था, मन उलझा भी तो किन धागों में... मोह की ये मसृण डोरियाँ अब कैसे टूट पाएंगी! कभी टूट पाएंगी भी!
थायलैंड के सांस्कृतिक जीवन पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाने के सिलसिले में मैं यहाँ तीन महीने पहले आया था। फिल्म पूरी होने के बाद फिल्म के दूसरे टीम मेम्बर लौट गए थे मगर मैं चाह कर भी लौट नहीं पाया था। बक़ौल मेरे असिस्टंट डाइरेक्टर नवीन के, थायलैंड की हजारों प्राचीन आत्माओं ने मुझे दबोच लिया है। अब मैं उनसे कभी मुक्त नहीं हो पाऊँगा। समय के बीतने के साथ-साथ मुझे भी लगने लगा था, मैं इस जमीन के दुर्वार आकर्षण से कभी मुक्त नहीं हो पाऊँगा, ना होना चाहूँगा...
कितने सारे देशों की संस्कृतियों के समन्वय से रची-बनी है यहाँ की संस्कृति- इंडिया, चीन, कंबोडिया, दक्षिण-पूर्व एशिया... ठीक हमारे देश की तरह- उतनी ही वैविध्यपूर्ण और प्राचीन। धर्म भी कई- हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम... वर्तमान में यहाँ बौद्ध धर्म ही प्रधान धर्म है। पढ़ते, सुनते, देखते मैं अपने ही अंजाने इस तिलस्मी संसार में आकंठ डूबता चला गया था। तय कर लिया था, इस देश पर एक उपन्यास लिखना है। इस उपक्रम में गत दो महीनों से ना जाने कहाँ-कहाँ भटका था।
थायलैंड मंदिरों और बौद्ध स्तूपों का देश है। केवल बैंकॉक में ही लगभग चार सौ वाट्स यानी मंदिर हैं। इनमें से तीन बहुत ही खास- वाट प्रा केव, वाट अरुन, वाट फो। एक मंदिर वह भी जिसमें मनुष्यों की बलि दी जाती थी। वहाँ के ऊंचे कंगूरों और मंडपों में जैसे आज भी मृत आत्माओं के करुण क्रंदन और विलाप भरे हुये हैं... दोपहर की उदास हवा दीर्घ उच्छवास-सी प्रतीत होती है! अकेले वहाँ देर तक ठहरा नहीं जाता। दूसरा विशाल और प्राचीन पेड़ की घनी जटाओं से घिरे कुख्यात डेविड बेकखम मंदिर! उसी उजाड़ मंदिर के प्रांगण में मैं ‘फुयांग’ गाँव से निकलने के बाद पहली बार उस युवा बौद्ध भिक्षु नकुल बोधिसत्व से मिला था।
एक महीने के आत्मीय संबंध के बाद माया के अचानक से खुद को पूरी तरह समेट कर अजनबी बन जाने से जो भावनात्मक आघात मुझे पहुंचा था, उसी से उबरने की कोशिश में था मैं उन दिनों। विरक्त मन अक्सर अध्यात्म की ओर ही मुड़ता है।
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