ईश्वर चुप है - 1 Neela Prasad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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ईश्वर चुप है - 1

ईश्वर चुप है

  • नीला प्रसाद
  • (1)
  • रंजना मंदिर की सीढ़ियां चढ़ती ठिठक रही है। ईश्वर से उसका रिश्ता बहुत पेचीदा होता जा रहा है। उसे इस रिश्ते को रेशे - रेशे कर समझने का मन होता है। हर बार यह ठानकर भी कि ईश्वर के दरबार में ये आखिरी हाजिरी है, वह अपने निश्चय पर अडिग नहीं रह पाती। अवशता की कोई लहर आती है और उसे ईश्वर के सामने ला पटकती है। तू है कि नहीं है? कहां है, कैसा है, खुश कैसे होता है और अच्छे काम करते रहने पर भी दुख - ही - दुख क्यों देता है?? उसका मन होता है कि वह ईश्वर से जोर -जोर से लड़े − एक मैं ही मिली थी तुझे, सब भुगताने को! उसने चारों ओर नजर डाली। सर पर आंचल रखे, खुशी या दुख में डूबी महिलाएं, ध्यान में डूबे लोग - ये सब हथेलियां फैलाए कुछ मांगने आए हैं। सब चाहते हैं शांति और सुख− चाहे वह ईश्वर की उपस्थिति महसूस सकने का सुख ही क्यों न हो! क्या उनके मन में भी रंजना की तरह सवाल उठते हैं? क्या उन्हें भी ईश्वर से शिकायत होती है? क्या वे भी उसकी उपस्थिति उसी तरह जांचते रहते हैं, जैसे वह? वे भी अपनी दुविधा में उसके बिना जीने का निश्चय करते, पर हार जाते रहे हैं? क्या उन्हें भी लगता है कि कोई तो शक्ति है जो खींचती है, हवा में उठाती, उड़ाती, फिर पटक देती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मन में उसकी सत्ता को लेकर उठे सवाल और दुविधा, ईश्वर को उसपर कृपालु होने से रोक देती है? वह चाहता है कि मेरे पास आओ तो आंख मूंदकर मेरी सत्ता को स्वीकार करके, बिना कोई सवाल किए.. नहीं तो... नहीं तो भुगतो। हो सकता है मैं तुम्हें श्राप ही दे दूं कि जीवन भर बेचैनी से जियो। सुख - चैन छीनकर मैं तुम्हें जीने दूं, न मरने.. छि: छि: भगवान! रंजना सोच रही है− बड़प्पन तो तुममें नाम को नहीं है। कितना घमंड है तुममें कि मुझे नहीं माना तो मुझसे दूर रहो, दुख पाओ या फिर मेरा श्राप झेलो। तुम ये क्यों नहीं करते कि जिसने तुम्हें नहीं माना या तुम्हारी सत्ता पर संदेह किया, शंका की और प्रमाण मांगा, उसे प्रमाण दे दो। अपने आशीर्वाद से उसे ऐसे नहला दो कि शक की कोई गुंजाइश रह ही न जाए। वह एक बार तुम्हारे दर आए और जीवन भर के लिए तुम्हारा हो जाए। मेरी तरह नहीं कि इतनी बार तुम्हारे दर आई पर कभी तुम्हारा आशीर्वाद न पा सकी। तुम्हें तो जैसे परीक्षा लेने का भूत सवार है.. जाने कितनी परीक्षाएं बाकी हैं, कितना भुगतना बाकी है, तुम्हारा आशीर्वाद पाकर शांति से जी सकने की राह अभी और कितनी दूर है!

    कभी तो रंजना को लगने लगता है कि ईश्वर है ही नहीं। होता तो उसका भी दिल होता, जो अपने दर आए लोगों के दुख - दर्द से पसीजता। निश्छल, पवित्र, साफ मन से जो भी उसके दर आता और बुरे कर्म नहीं कर रहा होता, उसे वह अपना लेता। रंजना को न सही, उसकी दोनों निश्छल दिल बेटियों को तो अपनाकर असीस ही देता! उनके मन को लील चुकी दुविधा तब दूर हो जाती। आन्या तो ईश्वर को इतना मानती है, रोज दादी के साथ पूजा पर बैठती है− कम से कम उसे तो ईश्वर खुशी दे दे, उसके मन की कर दे, उसके पापा की खबर पक्के तौर पर ला दे।

    ..और ये बनियों की तरह कुछ लेकर ही भक्तों को कुछ देने की उसकी आदत से रंजना पहले ही परेशान है। भक्त उपवास करें, फूल - पत्र , फल - दूध चढ़ाएं, ईश्वर के लिए खर्च करें, कष्ट उठाएं, तो बदले में कुछ पाने की आशा लगाएं और वह भी उसकी मर्जी है कि पूरी करे, न करे! सिर्फ अच्छे कर्म करते रहने, सबों का भला मनाते रहने से भी कोई गारंटी नहीं होती कि वह असीसेगा ही। कभी भी किसी भारी विपत्ति का पहाड़ वह किसी के सर पर डाल सकता है और चोट खाए लहूलुहान लोग, ज़िंदगी बचाने की कवायद में लगे, उसकी गुहार लगाने को मजबूर हो जा सकते हैं। पर आज रंजना अपने लिए नहीं, अपनी बड़ी बेटी मान्या के लिए यहां आई है। वह चाहती है कि ईश्वर उसके मन में उठती शंकाएं मार दे। उसे तर्क के रास्ते इतना आगे न ढकेल दे कि फिर वह भक्ति मार्ग पर कभी आ ही न पाए। वह आन्या के सपने नहीं तोड़े। आन्या वैसे ही जीती रहे, जैसे वह जीती आई है− किसी भोली उम्मीद की किरण के सहारे, किसी सपने में डूबी, जो सच में बदले चाहे न बदले, उम्मीद बनी रहे, आस न टूटे, सपना न मरे!

    रंजना छोटी थी तो अपनी मां के साथ मंदिर आती थी। मां रोती रहती थीं, भगवान मूर्ति बने हंसते रहते थे। मां तब भी कहती थीं कि अपनाओ या दुत्कारो - आसरा तो भगवन तुम्हारा ही है। यही हाल उनका पति यानी रंजना के पिता के साथ रिश्ते का था। वहां भी कहती थीं कि अपनाए या दुत्कारे - आसरा तो पति का ही है। पति को भी शायद वे भगवान का रूप ही मानती थीं और भगवान की तरह उसे प्रसन्न रखने, उससे आशीर्वाद पाते रहने को मकसद मान, किसी भी व्रत - त्योहार, उपवास, फल - फूल की तरह देह और श्रम अर्पित कर, गृहस्थी और जीवन में सब कुछ पति की मर्जी से करके, त्याग -तपस्या - समर्पण के चढ़ावे से उसे प्रसन्न करते रहने की कवायद को तैयार थीं। भगवान हो या पति, उसके सामने निरंतर परीक्षा देते रहने, कष्ट उठाकर, तरह - तरह के उपाय करके, दुख पाने और चढ़ावे - चढ़ाने के बदले ही आशीष की कामना को उन्होंने नियति मान लिया था। शायद उन्हें यह भी पता नहीं था कि इस कामना या लालच को वे खुद से भी दबा - छुपा कर रखती थीं, ताकि अपनी नजरों में न गिरें कि किसी कामना से भगवान और पति को पूजती हैं। आखिर भगवान की मर्जी है कि वह आशीष दे - न दे, भक्त को आशीष पाने को ललचाए - टरकाए रखे कि कहीं चला न जाए.. या इतना न दे दे कि भक्त और मांगना बंद ही कर दे। कुछ दे भी, तो और पाने की भूख बनाए रखकर। भगवान की यह प्रवृत्ति रंजना को बहुत कष्ट देती रही है और वह अकसर खुद से कुढ़ने लगती है कि कोई आत्मसम्मान नहीं है क्या कि जो मांगने पर भी न देता हो, उससे मांगते ही चले जाएं? ये नहीं तो वह ही दे दे भगवन...और कुछ नहीं तो अपनी सत्ता का अहसास ही करा दे! रंजना की कामना है कि ईश्वर के दर जाए तो एक शांति से भरकर वापस आए, किसी बेचैनी से लबालब होकर नहीं। फिर अपने अंदर उस शांति भरे शून्य में डूबी अपने सारे दुख भुला बैठे.. इस संसार में आहों, कराहों की निरंतर उठती लहरों में डूबे लोगों के दिल से उठते हाहाकार का समुद्र भी खत्म हो जाए, तो रंजना के अंदर का हाहाकार भी। पर नहीं, ईश्वर शायद यह चाहता है कि वह नियति को माने और ईश्वर को धन्यवाद दे कि उसने उसे तपाने को इतने -इतने कष्ट दिए, सुख दिया तो दुख भी दिए ताकि वह दोनों का स्वाद जान पाए, इतनी मजबूत बने कि किसी दुर्भाग्य, किसी प्रताड़ना से न घबराए.. खीझ होती है उसे खुद पर और ईश्वर पर!!

    पर सच ये है कि ईश्वर पहाड़ के ऊपर बने मंदिर में हो कि नहीं हो, रंजना सीढ़ियां चढ़े जा रही है, तो चढ़े जा रही है - हांफती, गिरती -पड़ती, पांव दुखाती, उसकी सत्ता के बारे में सोचती, सवाल करती और कोई जवाब न पाती!! आज जैसे मंदिर में जाकर प्रार्थना करने से कोई चमत्कार हो जाएगा। जैसी कभी न मिल सकी, वैसी शांति आज मिल कर रहेगी। फिर वह घर लौटेगी तो मान्या, आन्या से निश्चित तौर पर कह सकेगी कि भगवान ने यह कहा है कि...

    उसकी छोटी बेटी आन्या बार - बार कहती है कि वह भगवान से मिलेगी तो बता देगी कि उसकी मम्मा यानी रंजना ने, उसे भला - बुरा कहा है कि जाने कैसा पत्थर दिल है कि छोटी - छोटी बच्चियों की पुकार तक का जवाब नहीं देता, उन्हें आशीर्वाद नहीं देता। एक अनिश्चय उनकी ज़िंदगी में डाल, उन्हें उस अनिश्चय से बाहर ही नहीं निकालता।

    रंजना को लगता है कि उससे तो अच्छे बच्चियों के दादाजी हैं, जो साफ - साफ बता देते हैं कि कौन सी चीज देंगे, कौन -सी नहीं। अनिश्चय में लटकाए नहीं रखते। उससे तो अच्छा उसका पति था - था कि है? हां, भगवान, आज इतना ही बता दे - पक्के तौर पर। उसे समझ में नहीं आता कि भगवान से इतना - सा पूछने को वह कौन सा तरीका अपनाए? कह दे कि बता दो तो मैं आजीवन, हर मंगल - शनि, तुम्हारे दरबार आऊंगी, सारे व्रत - उपवास करूंगी, यह चढ़ाऊंगी, वह चढ़ाऊंगी, दान में यह दूंगी, वह दूंगी - क्या कहे आखिर? उसकी तो न मंदिर बनवा देने की औकात है, न ही यह कि इस भागमभाग भरी ज़िंदगी में भगवान को हर पल याद रखे। अफसोस कि भूल जाने की औकात भी नहीं है! तभी तो एक छोटी - सी आशा लिए, छोटी - छोटी खुशियों, थोड़ी -सी शांति की चाह में बार - बार उसके दर आती और निराश वापस जाती रही है।

    उस दिन घर में खीर बनी थी। मान्या ने आन्या को याद दिलाया कि पापा को खीर बहुत पसंद है तो आन्या बोली कि क्यों न उनके लिए थोड़ी - सी रख दें? क्या पता खीर खाने के बहाने ही पापा इधर आ जाएं? कल ही दादी कह रही थीं कि समझ ले बस आने ही वाले हैं क्योंकि उन्हें भोर के सपने में पापा दिखे हैं। पोती के मुंह से खीर वाली बात सुनकर दादी कमरे में जाकर रोने लगीं। दादाजी, जो खाना खा चुके थे, उठकर घर से निकल गए। मान्या बोली−

    ‘मम्मा से पूछ लो कि क्या हम पापा के लिए थोड़ी - सी खीर रख छोड़ें?’

    आन्या रंजना से पूछने आई। वह ठक खड़ी रह गई। क्या कहे, क्या न कहे! फिर बोली−

    ‘पापा को बदमाश ले गए हैं। वे छोड़ेंगे, तभी न पापा आ पाएंगे? और फिर पापा को क्या पता कि हमने खीर बनाई, उनके हिस्से की रख छोड़ी?’

    ‘भगवान के कहने पर तो बदमाशों को पापा को छोड़ना ही होगा न? भगवान चाहेंगे तब तो पापा को पता चल ही जाएगा न कि हमने उनके लिए खीर रख छोड़ी और इंतजार कर रहे हैं?’, भोली आन्या बोली।

    ‘भगवान तो शायद उन बदमाशों के साथ हैं, तभी हमारी नहीं सुनते’− रंजना के मुंह से निकल गया। आन्या रोने लगी।

    ‘आप भगवान को गलत बात कह रहे हो। मैं भगवान से मिलूंगी तो बता दूंगी..’

    उसका दिल दहल गया। भगवान से कैसे मिलेगी यह! क्या वह इसे बुला रहे हैं?

    पापाजी रात देर तक बाहर टहलते रहे। मम्मीजी रोना बंद हो जाने के बाद भी बहुत देर तक पूजा घर में बैठी रहीं। वह रात को देर तक बिस्तर पर करवटें बदलती परेशान रही। खुद को मजबूत करने की चाहना में, और कमजोर होती रही।

    अतीत वह पूंजी है जो कभी तो धनवान महसूस करवाती, कभी बोझ बन जाती है। वर्तमान जैसे अनिश्चय का दूसरा नाम और भविष्य अनजाना.. मेरा अतीत वह उड़ चुकी चिड़िया है, जो कभी - कभी मेरे पास आ, अपने नरम पंखों से मुझे सहला जाती है। वह चाहती है कि चिड़िया रोज आए, रोज सहलाए। वह भविष्य के बारे में सोचना नहीं चाहती।

    कल ही तो वह रात भर वह दिन याद करती रही, जिस दिन वह तीन महीने की आन्या को लेकर लेटी, उसकी मुस्कराहटों पर निसार होती खुश हो रही थी। उसका सुखी परिवार था। कुछ हफ्ते पहले ही मायके से छोटी आन्या के जन्म के छह हफ्तों बाद, उसे लेकर लौटी थी। पति के ऑफिस चले जाने के बाद बिस्तर पर लेटी अलसा रही थी। फिर आन्या को नहलाया, खुद नहाई, खाना खाया। घड़ी देखती रही कि पापाजी की ट्रेन के दिल्ली पहुंचने का समय हो जाए तो उन्हें फोन करके पता लगाए कि वे मम्मी और मान्या के साथ ठीक से पहुंच गए न! तीन साल की मान्या पहली बार उससे अलग हुई थी। दादी - दादा के साथ दिल्ली जा रही थी ताकि उसका एडमिशन करा दिया जाए और वह वहीं पढ़ाई शुरू कर सके। कोलियरी के सेंट्रल स्कूल के मुकाबले उसे दिल्ली में अच्छी शिक्षा मिलेगी - ऐसा उन सबों का मानना था। वैसे भी मेडिकल ग्राउंड पर वी.आर.एस ले चुके पापाजी को लगता था कि अब क्यों न वे दिल्ली वाले मकान में रहें और बड़ी पोती को साथ ही रखें! रंजना छोटी आन्या के साथ कोलियरी में पति के साथ रहती रहे। सबों को बहुत प्यार करने वाले पापाजी जो कहेंगे, ठीक ही कहेंगे, वे जो भी करेंगे, ठीक ही करेंगे - वाले भाव से रंजना मान गई थी। शायद ट्रेन बहुत लेट थी, तभी शाम होने को आई, फिर भी वे लोग दिल्ली नहीं पहुंचे थे। वह किराएदार से बार - बार पूछती रही, बार - बार वही जवाब मिलता - ‘अभी नहीं पहुंचे’। तब तक मोहन के ऑफिस से लौटने का वक्त हो गया। वह इंतजार में जाकर दरवाजे पर खड़ी हो गई। छोटी -सी कॉलोनी थी। सब एक दूसरे को जानते थे, हर तरह की मदद के लिए तैयार खड़े मिलते थे। वह सड़क ताकती रही, मोहन रोज के समय पर नहीं आए। फिर जब दरवाजे पर खड़े - खड़े बहुत रात हो गई, उसने पड़ोसियों को बताया।

    ‘जी, ये तो ऑफिस से लौटे ही नहीं अब तक’

    सब चौंके। पति ऑफिस में काम करते थे। साथ ही कोयला खानों में उनके ट्रक चलते थे, जो साइट से कोयला लादकर ले जाते थे - कोल ट्रांसपोर्ट का काम। पड़ोसियों ने फोन मिलाना शुरू किया।

    ‘पर मनमोहन तो आज ऑफिस आया ही नहीं। मैंने सोचा शायद छुट्टी पर होगा’, उनके अफसर ने बताया। ऑफिस में उनकी बगल में बैठने वाले वर्मा जी ने पक्के तौर पर कहा−

    ‘हां, मनमोहन आज ऑफिस नहीं आया था।’

    तो अब? अगल -बगल के सारे पड़ोसी जमा हो गए। महिलाएं रंजना के साथ बैठ गईं और पुरुष मोहन को ढूंढने निकल गए। आधे घंटे के अंदर शर्मा जी आकर बता गए−

    ‘हां, स्कूटर तो खड़ा है माइन से कुछ पहले नदी किनारे। यह बैग पहचानो तो - उसी का लगता है।’

    ‘हां, उन्हीं का है’ उसने पहचाना।

    टिफिन अनखाया पड़ा था। मान्या - आन्या -रंजना की तस्वीर थी, मनी बैग भी था।

    ‘हां, उनका ही है।’ उसने पक्के तौर पर बता दिया। तो मनमोहन कहां है आखिर और यह बैग नदी किनारे क्यों पड़ा मिला? वह घबराने लगी। तीन लोग, जो पक्के तैराक माने जाते थे, एक बार नदी में उतर गए। कुछ पता नहीं चला। पुलिस को खबर दी गई। उस छोटी सी कोलियरी में पुलिस ने छान मारा। लोगों के बयान लिए।

    ‘झगड़ा करके तो नहीं निकला था घर से?’ न जाने किसने पूछा तो वह घबरा गई।

    ‘ना जी, पिछले पांच सालों में हममें कभी झगड़ा हुआ ही नहीं। मैं तो कुल जमा दो साल उनके साथ रही। बाकी समय तो पढ़ाई पूरी करने को मायके में। फिर बेटियों की पैदाइश के दौरान फिर से मायके, तो झगड़ा कब होता? हमारी तो नई - नई शादी है।’ उसने पड़ोसिनों को फिर से याद दिलाया।

    क्रमश...