Gouratlab kahaniya - subhash neerav books and stories free download online pdf in Hindi

ग़ौरतलब कहानियां - सुभाष नीरव

किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ते वक्त मेरा मकसद कभी भी महज़ टाइम पास वाला नहीं रहा। जब भी हम किसी का अच्छा, बुरा या फिर औसत लिखा हुआ पढ़ते है तो भी वह कहीं ना कहीं हमारे अंतर्मन के किसी ना किसी कोने में अपनी बैठ बना कर, दुबकते या फिर सुबकते हुए बैठ जाता है और जब कभी हम कुछ लिखने बैठते हैं, बेशक बरसों बाद ही सही, वही पुराना लिखा हुआ किसी ना किसी बहाने हमारे अवचेतन से, चाहे अनचाहे किसी ना किसी संदर्भ, दृश्य या शब्द के रूप में हमारे समक्ष आ अपनी हाज़िरी बजा जाता है। पढ़ने का और कोई फायदा हो ना हो लेकिन हमारा पढ़ना, बेशक बहाने से ही सही मगर, हमारा शब्दकोष तो समृद्ध करता ही है।

और फिर अगर आपको पढ़ने के लिए कुछ उम्दा, कुछ सार्थक मिल जाए तो फिर बात ही क्या। ऐसे ही बढ़िया अनुभव से मुझे गुज़रना पड़ा जब मैंने प्रसिद्ध कथाकार सुभाष नीरव जी की किताब "ग़ौरतलब कहानियाँ" पढ़ने के लिए उठाई। उनकी धाराप्रवाह लेखनशैली, ज़मीन से जुड़े हुए हमारे आसपास के ही किरदार एवं मुद्दे, सब कुछ सम्मोहित करता है। किस तरह, किस कहानी को...कैसा ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, यह उनकी कहानियों को पढ़ कर जाना जा सकता है।

इस किताब में उनकी चर्चित रह चुकी 17 कहानियों को संकलित किया गया है। इस पुस्तक की किसी कहानी में मतलबी लोगों की शातिराना फ़ितरत नज़र आती है तो किसी कहानी में शादीशुदा जवान बच्चों की अवहेलना के शिकार एक वृद्धा स्त्री एवं वृद्ध पुरुष की कहानी है जो अपने अपने परिवार में खुद की होती अवहेलना से परेशान हैं। एक जैसी मजबूरियों के चलते जब उनमें आपसी स्नेहवश थोड़ी नजदीकियां बढ़ने लगती हैं तो उन्हीं के परिवारों द्वारा हाय तौबा मचा दी जाती है।

उनकी एक कहानी में अपने बीमार पिता की देखरेख के लिए गांव आए एक युवक और उसके दो बड़े भाइयों के ले कर पूरे कथाक्रम को रचा गया है कि किस तरह दोनों बड़े भाई आने के बाद बहाने बना वापिस जल्दी खिसकने की जुगत भिड़ाते हैं जबकि अपनी बीमार पत्नी और बच्चे की होने वाली परीक्षा के चलते छोटे बेटे का भी अपने घर में रहना ज़रूरी है। उनकी एक कहानी अनअप्रूव्ड कॉलोनी के रहने वाले एक ऐसे व्यक्ति की राम कथा है जो हर वक्त अपने पड़ोसियों की हर तरीके से मदद के लिए सदा तत्पर खड़ा रहता है। इस चक्कर में कई बार उसे बहुतों की अवहेलना तथा विरोध झेलते हुए कई तरह के आरोपों को भी सहना पड़ता है। मगर जब उसे खुद मदद की ज़रूरत पड़ती है तब क्या कोई उसके पास आता है?

आमतौर पर क्या होता है कि जब आप ज़्यादा पढ़ते हैं तो पढ़ते वक्त आप मन ही मन कहानी के अंत का अंदाज़ा लगाना शुरू कर देते हैं तो ऐसे में इसे लेखक की सफलता ही कहेंगे कि सुभाष नीरव जी ने अपनी इस किताब में कई बार मुझे ग़लत साबित किया। कहने का तात्पर्य ये कि किताब की हर कहानी में कुछ ना कुछ ऐसा है जो आपको पढ़ने के बाद भी चैन नहीं लेने देता और आप हर समय उन्हीं के बारे में कुछ ना कुछ सोचते रहते हैं। पढ़ते वक्त इस संकलन की हर कहानी आपको ऐसे बाँधती है कि आप सब काम छोड़ बस पढ़ते चले जाएँ।

हालांकि यह किताब मुझे उपहार में मिली फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि उम्दा क्वालिटी के इस 176 पृष्ठीय संग्रणीय संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारत पुस्तक भंडार ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹395/- जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आम पाठकों तक इस बढ़िया किताब की पहुँच बनाने के लिए कम कीमत पर इसका पेपरबैक संस्करण आना ज़रूरी है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।

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