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बग़ावती कोरस - संपादक सुघांशु गुप्त


आमतौर पर चली आ रही व्यवस्था के खिलाफ जाना, विद्रोह करना बगावत कहलाता है। बगावत पुरानी हो, जंग खा चुकी बेड़ियों को नकारने का आह्ववान है, दकियानूसी विचारधाराओं को तिलांजलि देने का माध्यम है। साथ-साथ बगावत सैंकड़ों बरसों से चली आ रही ग़लत मान्यताओं से छुटकारा पा लेने का भी साधन है।

पुराने इतिहास को अगर खंगाल कर देखें तो हम पाते है कि समाज में जब भी किसी बगावत को अंजाम दिया गया तो पुरुषों द्वारा ही उसे, उसकी परिणति तक पहुँचाया गया। चाहे वो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय फौज द्वारा 1857 में किया गया विद्रोह हो या फिर रूस में ज़ार के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलंद करने वाले कम्युनिस्ट हों। मगर ज्यों ज्यों शिक्षा का प्रसार बढ़ता गया, त्यों त्यों स्त्रियों में जागरूकता आती गयी और वे अपने हक़ एवं अपने अधिकारों के बारे में जानने,समझने एवं उनको प्राप्त करने के लिए अपनी आवाज़ उठाते हुए लड़ने लगीं।

इसी तरह के बगावती तेवरों को लेकर आयी किताब "बगावती कोरस" में सशक्त लेखिकाओं की कहानियों को वरिष्ठ साहित्यकार सुघांशु गुप्त जी के संपादन में संकलित किया गया है। इस संकलन की खास बात ये है कि इसकी सभी कहानियां किसी ना किसी माध्यम से हमें (पुरुषों) हमारी ग़लतियाँ दिखाती हैं तथा स्त्रियों को उनकी जायज़ बात कहना तथा मनवाना सिखाती हैं।

इस संकलन की किसी कहानी में पति द्वारा दूसरी पत्नी बन कर आयी नायिका जब पहली पत्नी के मुकाबले अपने पति की उपेक्षा सहती है तो विरोध स्वरूप वह भी बिना किसी अपराध भाव से ग्रस्त हुए, किसी अन्य के साथ प्रगाड़ रिश्ते की डोर में बंध जाती है। तो किसी कहानी में पति के घर छोड़ कर चले जाने पर उसके बच्चों एवं सास के साथ जैसे तैसे दिन गुज़ार रही नायिका भी विरोधस्वरूप किसी और के लिए घर छोड़ कर चली जाती है।

इसी संकलन की एक कहानी में एक बच्चे तथा उसकी ट्यूटर के ले कर पूरी कहानी का ताना बाना बुना गया है कि किस तरह वो ट्यूटर उस बच्चे से अपनी बात खुल कर कहना सीखती है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अपने जन्म के समय प्यूपा से संघर्ष कर बाहर आयी तितली के माध्यम से एक दादी अपना कठोर रवैया छोड़, बहु के बगावती तेवरों को भी दिल से अपना समर्थन दे देती है। किसी कहानी में तलाक का दंश झेल रही नायिका कुछ ऐसा करती है कि उसके घंमण्डी पति के सब दाव उल्टे उसी के ख़िलाफ़ पड़ जाते हैं।

इसी संकलन की एक कहानी में बलात्कार की शिकार एक बच्ची अपनी तथा परिवार की इज़्ज़त की खातिर पहले संकोच, शर्म और डर की वजह से सर झुकाए रहने को मजबूर होती है मगर अंत में हिम्मत कर, सर उठा के जीने का फ़ैसला कर लेती है। किसी कहानी में नायिका अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने भाइयों एवं भाभियों के द्वारा तिरस्कृत होने पर उस ज़मीन पर अपना हक़ जता देती है जिसे उसके पिता ने उसे देने वायदा किया था। किसी कहानी में पति के बिज़ी शैड्यूल के चलते उपेक्षा झेल रही पत्नी बिना किसी अपराध भाव के अपने प्रेमी के साथ संबंध बना लेती है और अपने फैसले पर अडिग रहने का निर्णय लेती है।

वैसे तो इस संकलन की सभी कहानियां अपने आप में अलग एवं पाठकों के मन को छूने वाली हैं मगर एक आध कहानी मुझे कहानी कम और कविता जैसी ज़्यादा लगी। साथ ही इसी कहानी को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे वह मुझ जैसे आम पाठकों के लिए नहीं बल्कि सिर्फ बुद्धिजीवी वर्ग के लिए लिखी गयी है।

इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया। जिनके नाम इसप्रकार हैं:

*उदास अगहन- उपासना
*तो परियां कहाँ रहेंगी- आकांक्षा पारे
*ज़िंदगी का आलाप
*कॉपी पेस्ट- उमा
*महानिर्वाण- दिव्य विजय
*सुबह ऐसे आती है- अंजू शर्मा
*नैहर छूटल जाए- रश्मि शर्मा


अगर आप बगावती तेवरों से लैस कहानियों को पढ़ने,समझने एवं जानने के लिए उत्सुक हैं तो यह संकलन आपके मतलब का है। 152 पृष्ठीय इस 13 कहानियों के संकलन को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹195/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। सभी लेखिकाओं, संपादक एवं प्रकाशक को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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