बहीखाता - 35 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 35

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

35

बाईपास

इन्हें सामने देखकर मैं अवाक् रह गई। अंदर प्रवेश करते हुए उनकी तेज़ रुलाई फूट पड़ी। बोले -

“साली यह भी कोई ज़िन्दगी है कि सिगरेट भी न पी सको।”

रोते हुए बताने लगे कि कैसे उन्हें सिगरेट की तलब हुई, कैसे वह अपने वार्ड से बाहर आए और सड़क पर पड़े सिगरेट के टुकड़ों को उठाकर किसी से लाइटर मांगकर उन्हें पीने लगे। फिर अपने आप को लाहनतें दीं और अपनी ज़िद पर अस्पताल से सैल्फ डिस्चार्ज़ होकर आ गए।

बंदिशों में बंधकर रहना इनकी फितरत में नहीं था। घर आकर पहले तो कई सिगरेटें पीं, फिर बोतल खोल ली। फिर से, वही काम शुरू। मुझे इनकी सेहत की चिंता हो रही थी। इनकी गंभीर स्थिति को देखते हुए ही तो डॉक्टरों ने इन्हें अस्पताल में रखा होगा। करीब दो दिन बाद इन्हें भी अपनी चिंता सताने लगी। एक अन्य बात भी थी कि अगली गर्मियों में कान्फ्रेंस रखी हुई थी। उसकी तैयारियाँ भी करनी थीं। उससे पहले आपरेशन करवाकर सेहतमंद भी होना ज़रूरी था। वह प्रायवेट आपरेशन करवाने के लिए कोई सर्जन तलाशने लगे, पर तब तक उन्हें किसी अन्य अस्पताल में आपरेशन के लिए तारीख़ मिल गई। उनका बाईपास आपरेशन हो गया। शीघ्र ही सेहतयाब भी हो गए। आपरेशन से सप्ताहभर बाद ही कार चलाने लग पड़े। अब वे कान्फ्रेंस की तैयारी में व्यस्त हो गए।

यह बड़ा काम था इसलिए तैयारी भी उसी प्रकार होनी थी। कई शहरों में कान्फ्रेंस करवानी थी। बहुत वर्षों से इस स्तर पर कान्फ्रेंस इंग्लैंड में नहीं हुई थी। भारत से हरभजन भाटिया, रजनीश बहादुर, मनजीत सिंह, मोहनजीत, बलजीत रैना आदि आ रहे थे। मनजीत सिंह तो मेरा सहपाठी रहा था। मोहनजीत भी हमारा ख़ास दोस्त था। शेष अन्य भी हमारे मित्र ही थे। बलजीत रैना को पता नहीं चंदन साहब ने क्यों बुला लिया था, वह तो कुछ हिला हुआ-सा लगता था। खै़र, उनके आने से अच्छी ख़ासी रौनक हो गई। जितने दिन वे रहे, घर जगमग करता रहा। सारी सारी रात बहसें होंती। किसी को ऊपर चढ़ाया जा रहा होता और किसी को नीचे गिराया जा रहा होता। इस कान्फ्रेंस में इंग्लैंड भर के लेखक सम्मिलित हुए। हर सत्र में भरपूर उपस्थिति रही। इस कान्फ्रेंस में कुछ लेखकों के बीच मन-मुटाव भी हुए। ऐसे अवसरों पर यह साधारण बात होती है।

चंदन साहब बहुत प्रसन्न रहने लगे। इतने प्रसन्न कि अपने आप को पूरे तौर पर पंजाबी साहित्य को समर्पित हुआ पाने लगे। जब हम दोनों एकसाथ बैठे होते, कहने लगते, “राणो, मैं वुल्वरहैंप्टन आकर बहुत खुश हूँ। यह जो हमारा घर है, इसको इस तरह बना दिया जाए कि पंजाबी साहित्य के विद्यार्थियों और विद्यार्थी सैलानियों के लिए यह मक्का बन जाए। हम न भी रहें तो भी लोग यहाँ आकर ब्रितानवी साहित्य के बारे में रिसर्च कर सकें।” मैं ऊपरी मन से तो उनकी हाँ में हाँ मिला रही थी, पर अंदरखाते मुझे अहसास था कि यह चंदन साहब का ऐसा उठा हुआ भावुक विचार है जिसका आने वाले समय में कोई वजूद नज़र नहीं आएगा। इस समय चंदन साहब ने रजनीश बहादुर के साथ मिलकर ‘प्रवचन’ नाम की पत्रिका निकालने की योजना भी बना डाली। इन्हें पत्रिका की ख़ब्त बहुत पुरानी थी। कभी भारत जाकर भी ‘साहित्यिक सूरज’ निकाला था, पर करीब दसेक अंक निकालकर बंद कर दिया था। जैसे कि इनका स्वभाव था कि किसी भी बात से यह जल्द ही ऊब जाते थे। मुझे डर था कि यह पत्रिका भी शीघ्र ही बंद न हो जाए। भारत से आए सभी मित्र महीनाभर रहकर वापस लौट गए, पर हमारा घर सूना कर गए। कई दिन तक हमारा दिल न लगा।

कान्फ्रेंस के बाद हमने भी भारत जाने का प्रोग्राम बना लिया। एक तो प्लाट बेचना था और दूसरा पंजाबी अकादमी वाले इन पर एक कार्यक्रम करवा रहे थे। वह हर बार शख़्सियत सेमिनार करवाया करते थे। इस बार इन पर करवाया जा रहा था। इससे पहले प्लाट बेचना ज़रूरी था। प्लाट मेरे नाम पर होने के कारण इन्हें अजीब-सा भय खाये जा रहा था। प्लाट बेच दिया। वकील के यहाँ जाकर मेरे से यह भी लिखवा लिया कि मेरा इन पैसों पर कोई हक़ नहीं। क्योंकि चैक मेरे नाम पर था इसलिए बैंक में जाकर एक साझा खाता खुलवाया। हरजिंदर मेरी ख़ास सहेली थी। बैंक में चैक रखने तक यह यही सोचे जा रहे थे कि कहीं मैं यह चैक लेकर ही न भाग जाऊँ। मेरी सहेली की मार्फ़त ही एक अपना अकेले का अकाउंट भी खुलवाया। फिर जल्दी ही सारे पैसे अपने नाम पर ट्रांसफर करवा लिए। जब तक पैसे इनके खाते में नहीं गए, यह मछली की तरह तड़फते रहे। इनकी हालत देखकर मुझे दया भी आ रही थी और हँसी भी। पता नहीं यह मेरे बारे में क्या क्या सोचे बैठे थे। मुझे लगता, एक अजीब-सी असुरक्षा की भावना इनके ज़हन में तारी रहती है जो इन्हें कभी भी चैन न लेने देती। लेकिन मेरे ऊपर इन बातों का असर होना बंद हो गया था।

पंजाबी अकादमी, दिल्ली द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिल्ली के सभी मित्र आए। पुराने रूठे हुए मित्र भी मान गए थे। डॉ. सतिंदर सिंह नूर आए भी और स्टेज से बोले भी। बहुत सुंदर कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम के बाद हमारे फ्लैट में पार्टी रखी गई। पार्टी में भी दिल्ली के सभी लेखक थे। नूर साहब, नछत्तर, रवेल सिंह, मनजीत सिंह, मोहनजीत, जगबीर सिंह, लगभग हर कोई। पंजाब से भी आए हुए थे जैसे हरभजन भाटिया और रजनीश बहादुर आदि। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब उस कार्यक्रम में तेजबीर को उपस्थित देखा। ये सभी कार्यक्रम के पश्चात सीधे ही घर आ गए थे। घर आकर भी खूब रौनकें लगीं। चंदन साहब कुछ अधिक ही पी गए थे। पहले इनकी किसी बात पर मेरी सहेली हरजिंदर से भी बोलचाल बंद हो गई थी। जो प्लाट इन्होंने बेचा था और जिसकी सारी रकम इन्होंने अपने खाते में डालनी थी, वह उससे संबंधित कोई चैक लेकर आई हुई थी। अभी अपने ऊपर करवाये गए सेमिनार से वह घर पहुँचे ही थे, अभी हरजिंदर को चैक देने का अवसर मिला ही नहीं था कि पता नहीं इनके मन में क्या आया, यह गुस्से में आगबबूला हो गए और हरजिंदर से बोले कि उसने उनके पैसे रख लिए हैं। उन्हें तब तक सब्र नहीं हुआ जब तक हरजिंदर ने चैक उनके हाथ में नहीं थमा दिया। कई बार पहले भी ऐसा हो जाता था कि इन्हें स्वयं भी पता न चलता कि यह किस बात पर नाराज़ हैं, बस कपड़ों से बाहर हो जाते। चीजे़ं उठा उठाकर मारने लगते। उस दिन भी उनका व्यवहार कुछ ऐसा ही बनता जा रहा था। लोग एक एक कर खिसकने लगे थे। उस दिन जसविंदर भी हमारे पास ही ठहरी हुई थी, घर के कामकाज में हमारी मदद के लिए। इनका शोर-शराबा सुनकर मित्र जाने लग पड़े थे। भाटिया और रजनीश ने हमारे पास ही ठहरना था। पता नहीं चंदन साहब के मन में क्या आया कि उन्होंने मेज़ तोड़ दिया। हम सब रोकते रहे। जसविंदर ने पूछा कि क्या कारण है तो बोले कि देविंदर और मेरा कोई रिश्ता नहीं। फिर घर की दूसरी सेल्फें भी तोड़ दीं। पागलों की भाँति इधर-उधर दौड़े फिरते थे। भाटिया और रजनीश हैरान-से होकर इनकी ओर देखते जा रहे थे। भाटिया तो चुपचाप खिसक गया। शायद उससे यह सब देखा नहीं जा रहा था। जसविंदर ने इन्हें ‘वीर जी, वीर जी’ कहकर ठंडा करने की बहुत कोशिश की, पर यह कहाँ मानने वाले थे। इन्होंने पूरा फ्लैट ही नहीं, बल्कि सारी इमारत ही सिर पर उठा रखी थी। मैं छिपती घूम रही थी। मुझे अपना डर था कि कुछ उठाकर न मार दें। काफ़ी सारे हंगामे के बाद यह थक गए और सो गए। रजनीश हमारे पास ही सोया था। मेरी भाभी ने वापस घर लौट जाना था, पर वह मेरे कारण वहीं रुक गई। सवेरे उठे तो ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। सुबह-सुबह फिर शराब पीनी शुरू कर दी और रात के अपने व्यवहार के बारे में माफ़ी पर माफ़ी मांगने लग पड़े। साथ ही साथ, मेरी तारीफें भी किए जा रहे थे। मैं मन ही मन सोचे जा रही थी कि वाह चंदन साहब, तुम नहीं सुधरे! अपनी इसी फेरी के दौरान मैंने एक दिन अमृता प्रीतम के यहाँ जाने का प्रोग्राम बना लिया। उस दिन पहले अपने कालेज की सहेलियों से मिलने गई, फिर शाम को कालेज से सीधी अमृता प्रीतम जी के घर चली गई। वहाँ बहुत से लोग आए हुए थे। शायद अमृता जी की नई किताब आई थी। रमेश शर्मा सभी को किताब दिखा रहा था और मोहनजीत, नछत्तर, अमिया कुंवर और अन्य कई लोग किताब देख रहे थे। मुझे देखते ही अमृता जी बोलीं, “देविंदर, यह मैं क्या सुन रही हूँ ? इतना कुछ सहने के बाद तू फिर चली गई ?” मैंने कहा, “बस, हालात ही ऐसे हो गए थे। बहुत मिन्नतें याचनाएँ कीं।” इस पर अमृता जी बोली, “अगर उसने याचनाएँ भी की थीं, तो भी तू उसको कहती - जा तेरी चूड़ी तोड़ी।” अमृता जी की बात सच थी, इसकी मिसाल तो मैं कल रात के सारे सीन से ही समझ चुकी थी, पर होनी को कौन टाल सकता था।

(जारी…)