बहीखाता - 36 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 36

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

36

कैसे जाओगे ? और वोलकेनो…

पंजाब के दौरे पर थी। एक दिन मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला गई। कोई समारोह था। समारोह के बाद हम बहुत सारे लेखक मित्र जसविंदर सिंह के घर एकत्र हुए। वहीं मैंने अचानक गुरविंदर रंधावा को देखा। तेजबीर के दोस्त को। वह मुझे एक कोने में ले जाकर बताने लगा, “तुम्हें पता है कि तेजबीर की इस वक्त क्या हालत है ?” मुझे इस बारे में क्या पता हो सकता था। मैं उसके बारे में बहुत वर्षों से कुछ नहीं जानती थी। मैंने मालूम करने की कोशिश ही नहीं की थी, आवश्यकता ही नहीं समझी थी। उसने बताया कि उसकी हालत इस समय बहुत ही खराब थी। वह एक्यूट डिप्रैशन में था। उसने यह भी कहा कि यदि हो सके तो उसे अवश्य मिलने जाऊँ। मैं जैसे धर्म-संकट में फंस गई। फिर सोचा, जाना चाहिए, भले ही इन्सानियत के नाते ही सही। मेरे साथ मेरी भाभी जसविंदर का भाई काकू था। हम दोनों उनके घर पहुँचे। कसेल साहब भी घर पर ही थे। तेजबीर की बहन नवजोत भी। वह पंजाबी यूनिवर्सिटी में ही संगीत की अध्यापिका थी। उनका पूरा परिवार मुझे बहुत प्यार से मिला और वे मुझे तेजबीर के कमरे में ले गए। वहाँ तेजबीर की माता जी भी बैठे थे। काफ़ी परेशान लग रहे थे। उसकी हालत देखकर मैं हैरान रह गई। यदि वे मुझे न बताते कि यह तेजबीर है तो मैं कभी भी पहचान नहीं सकती थी। दाढ़ी खिचड़ी हुई पड़ी थी और बढ़ी हुई थी। मानो कोई बूढ़ा बाबा हो। वह चारपाई पर पड़ा दिखता नहीं था। उसकी आँखें छत पर टिकी हुई थीं। कभी-कभी ही वह आँखें झपकता। उसके चेहरे पर कोई भी हाव भाव नहीं थे मानो लकड़ी का हो। मैं कोई भी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ थी। कसेल साहब कहने लगे, “तेजबीर की समस्या यह है कि यह सही फैसला करने के योग्य नहीं है।” इस बात को मैं भी किसी हद तक जानती थी। उसकी माँ तेजबीर की इस हालत के लिए जिम्मेदार मनजीत इंदरा को ठहरा रही थी। उसकी बहन भी सारा ठीकरा मनजीत इंदरा पर फोड़ रही थी। परंतु कसेल साहब तेजबीर की कमज़ोरी को ही इसका कारण बता रहे थे। सभी उसके बारे में यूँ बातें कर रहे थे मानो वह वहाँ हाज़िर ही न हो। उसको देखकर मेरा मन भी बहुत खराब हो रहा था।

तेजबीर अभी तक छत की ओर ही देखे जा रहा था। उसे आवाज़ लगा लगाकर मेरे आने के बारे में बताया जा रहा था। मेरे नाम पर उसने एकबार मेरी तरफ देखा और पुनः उसकी नज़रें छत से जा चिपकीं। मैंने उसकी दवाइयों के बारे में जानने की कोशिश की। मैं सोच रही थी कि क्या उसका इलाज भी सही हो रहा था। मैं सोचती थी कि जसवंत सिंह नेकी या किसी अन्य स्पेशियलिस्ट के साथ उसके बारे में परामर्श ले सकती थी। हम एक घंटे से अधिक उसके पास बैठे रहे। वह लकड़ी के तने की तरह पड़ा रहा। हमारी किसी बात का जवाब देना तो बहुत दूर की बात थी। मैं उसकी माँ के साथ बातें करती रही। करीब घंटाभर बैठने के बाद मैं जाने के लिए उठने लगी क्योंकि हमने वहाँ से जलंधर जाना था और शाम भी काफ़ी हो चुकी थी। जब चलने लगी तो तेजबीर एकदम बोल उठा, “कैसे जाओगे ?”

मैं दिल्ली वापस लौट आई थी। बाद में भी तेजबीर की बहन नवजोत के साथ फोन पर बातचीत हो जाती थी। मुझे उसी से पता चलता रहा था कि वह पहले से ठीक हो रहा था। मैं कुछ दिन बाद इंग्लैंड आ गई। ये मेरे स्वर्ण चंदन के साथ विवाह होने के बाद के हादसे हैं। हालांकि तेजबीर के साथ मेरा कोई रिश्ता नहीं रह गया था लेकिन शायद एक इन्सानियत का रिश्ता भी था जिसने मुझे मेरे विवाह के बाद भी उसको देखने जाने पर विवश किया था।

शायद यह 2008 की बात थी। अमेरिका वाली जसवीर और मैं दोनों भारत गई हुई थीं। इमरोज़ के साथ मिलकर हम तीनों पंजाब के लेखकों को मिल रहे थे। पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में कान्फ्रेंस हो रही थी। हम तीनों वह कान्फ्रेंस में शामिल होने गए थे, जहाँ हमें फिर तेजबीर की बहन मिली। उसने बताया कि उसका भाई फिर बीमार था। उसका एक्सीडेंट हो गया था और बाद में उसको अधरंग हो गया। उस समय वह अरबन एस्टेट में अपने अलग घर में रह रहा था और उसकी देखभाल के लिए स्थायी तौर पर किसी लड़के को रखा हुआ था। हम तीनों नवजोत को संग लेकर उसे देखने चले गए। उसका अटैंडेंट उसको अपनी बांहों में उठाकर लाया था। गुच्छा-मुच्छा हुए तेजबीर को उसने कुर्सी पर बिठाया। जसवीर उसके साथ बातें करने लग पड़ी कि उसका इलाज कैसा हो रहा था। पता चला कि उसके कैथेडर लगा हुआ था। जसवीर को चिंता थी कि कहीं उसको इन्फैक्शन न हो जाए, इसलिए उसने उसके डॉक्टर से फोन पर बात करके सुनिश्चित किया कि उसका कैथेडर उतरना चाहिए। जसवीर यह काम करने के लिए तैयार थी क्योंकि वह अमेरिका में नर्स की नौकरी करती थी, लेकिन तेजबीर ने यह करवाने से इन्कार कर दिया। इस हालत में भी उसको मेरी सेहत की फिक्र थी और उसने मुझसे पूछा था कि मेरी ऑर्थराइटिस का अब क्या हाल था। हम कुछ देर रुककर वापस यूनिवर्सिटी आ गए।

कुछ साल बाद पता चला कि उसका देहांत हो गया था। आज भी मैं कई बार बैठी सोचती हूँ कि उसका मेरे साथ कोई रिश्ता न होने के बावजूद क्या रिश्ता था जो मुझे उसके बारे में सोचने को मजबूर करता था।

हमारे कालेज में कई किस्म के परिवर्तन हो रहे थे। अपनी नौकरी को बनाये रखने के लिए मुझे एक और कोर्स करने की ज़रूरत थी। जब मैंने इनको बताया तो इन्हें अच्छा नहीं लगा। मैं जब भी कुछ नया करने का प्रयत्न करती थी तो इन्हें जैसे सांप सूंघ जाता था। इनका रवैया कुछ और ही हो जाता था। अमनदीप का भी यही अनुभव था इनको लेकर। यह मुझे कोर्स करने से रोकने के लिए कई प्रकार के पंगे लेने लगे थे। कभी लेट करवाने की कोशिश करते और कभी जाने से पहले मेरा मूड खराब कर देते, कभी कुछ और।

मेरे पास यह किसी भी प्रकार की शक्ति नहीं देख सकते थे। जो कोई भी मेरा पक्ष लेता, यह उसके साथ ही लड़ पड़ते। निरंजन सिंह ढिल्लों मेरी मदद किया करते थे, इन्होंने कोई बहाना ढूँढ़कर उनसे झगड़ा कर लिया। छिंदा मेरा भाई बना हुआ था, मैं उसे राखी बांधा करती थी। उसकी पत्नी दलजीत कौर हर मुसीबत में मेरे साथ खड़ी होती थी। उनके साथ भी यह झगड़ा कर बैठे। दरअसल, छिंदे के साथ मिलकर यह कोई बिजनेस करना चाहते थे। दोनों दल तैयार भी हो गए। यह एक दिन छिंदे से कहने लगे, “देख छिंदे, हमारे बिजनेस का भेद हमारी बीवियों को पता नहीं चलना चाहिए।” छिंदा एकदम बोला, “भाजी, यह मुमकिन नहीं। मैं तो कोई भी बात दलजीत से साझी किए बग़ैर कर ही नहीं सकता। इस हालत में हम बिजनेस न ही करें तो अच्छा है।” और छिंदे ने बिजनेस न करने का फैसला कर लिया। मैंने मन में शुक्र मनाया क्योंकि ऐसा होने से मैं भविष्य में होने वाली बदनामी से बच गई थी। यह मेरी अन्य सहेलियों को भी गलत-सलत बोलने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। मेरी बहुत सारी सहेलियाँ और छात्रायें घर आ जाया करती थीं। मैं हर समय भयभीत सी रहती थी कि यह कुछ कह न दें। एकबार मेरी एक सहेली विभा हमारे घर में आई। 25 दिसंबर था और उस दिन हमारे विवाह की सालगिरह थी। विभा ने चंदन साहब को मुबारकबाद देते हुए हँसकर कहा, “चंदन साहब, देविंदर को क्या गिफ्ट दिया है आपने ?” सुनते ही एकदम से भड़क उठे, “इतना बड़ा इसे घर बनाकर दिया है, और इसको कौन-सा गिफ्ट चाहिए।” मैंने विभा को चुप रहने का संकेत किया, पर उस शाम सारा माहौल ही बदल गया। चंदन साहब अपने स्टडी रूम में चले गए। शराब और सिगरेटों का ही डिनर करके सोने के लिए चले गए। हम दोनों हैरान-परेशान। बड़ी कठिनाई से वह रात कटी और सवेरे सवेरे ही विभा चाय पीकर लौट गई। इसके स्थान पर यदि इनका कोई मेहमान आया होता तो ये उसकी खूब सेवा करते। अलका के साथ तो गोंद की तरह ही चिपट जाते मानो मैं घर में होऊँ ही नहीं। वह जब भी हमारे घर आती, झगड़ा करवाकर चली जाती। वह इन्हें अमनदीप के खिलाफ़ भी भड़काती थी।

इन्होंने ‘प्रवचन’ पत्रिका शुरू तो कर ली, पर शीघ्र ही ऊब गए। इनके मन में हमेशा ही रहता था कि इनके उपन्यासों को लेकर बात नहीं हो रही। इन्होंने ‘उजाड़ा संताली’ नाम से एक उपन्यास लिखा था जो तीन भागों में छपा, पर उस उपन्यास की बिल्कुल भी चर्चा नहीं हुई थी। यह अपने उस उपन्यास को बेमिसाल का उपन्यास कहे जा रहे थे, परंतु उसका कोई एक भी रिव्यू नहीं लगा था। किसी ने एक परचा अवश्य लिखा था, पर वह भी साई पर ही लिखा गया था। एक दिन इन्होंने ऐलान कर दिया कि अब यह कभी पंजाबी में नहीं लिखेंगे। अगर लिखेंगे तो सिर्फ़ अंग्रेजी में ही लिखेंगे। इन्होंने अपने कंप्यूटर में से पंजाबी में लिखा हुआ सब कुछ डिलीट कर दिया। कुछ भी डिलीट करने में यह ज़रा भी देर न लगाते। इनकी पतों वाली डायरी में कई नामों पर काटा फिरा होता। जिस किसी से लड़ते, तुरंत उसके नाम, टेलीफोन नंबर पर काटा फेर देते। यद्यपि यह पिछले कुछ समय से कुछ भी नहीं लिख सके थे, पर जो भी था, उसको डिलीट कर दिया या डस्टबिन में फेंक दिया। अंग्रेजी में एक उपन्यास लिखना प्रारंभ किया। नाम रखा - वोलकेनो। यह रोज़ लिखते और मुझे सुनाने बैठ जाते। यदि मैं ध्यान से न सुनती तो पंगा। और अगर ध्यान से सुनकर कोई सलाह दे बैठती तो मुसीबत। मैं अजीब-से संकट में फंस गई। इसके साथ साथ मैं यह भी सोच रही थी कि मेरा तो सब कुछ पंजाबी बोली में ही था, यदि यह अंग्रेजी की तरफ मुड़ गए, पंजाबी जगत से इन्होंने पूरी तरह नाता तोड़ लिया तो मेरा क्या होगा ? पंजाबी से टूटकर तो मैं मर ही जाऊँगी। दूसरी ओर मुझे यह भी पता था कि इनका कुछ करने का उबाल कुछ समय का ही हुआ करता है।

इन्होंने पंजाबी में लिखना ही बंद नहीं किया, बल्कि पंजाबी को सौ-सौ गालियाँ भी निकालते। पंजाबी के कार्यक्रमों में जाना भी बंद कर दिया। कोई समारोह होता तो कह देते कि तू चली जा। लेकिन मैं किसके साथ जाती। सारा शहर तो इनके साथ साथ मानो मेरा भी दुश्मन बना बैठा था। समारोहों के खत आते, फोन आते, पर मेरे लिए जाना कठिन हो जाता। मैं कई कार्यक्रम मिस कर गई। घर में इनके द्वारा अंग्रेजी में उपन्यास लिखे जाने ने एक अजीब सी गहमागहमी पैदा कर दी जो मुझे अच्छी भी लगती, यह सोच कर कि कम से कम यह किसी काम में व्यस्त तो हो गए हैं। दूसरी तरफ यह बुरी भी लगती कि इसका पंजाबी जगत से कोई लेना देना नहीं था। यह तूफान की तरह दौड़े घूमते। कंप्यूटर से भागकर रसोई में जाते, दौड़कर सीढ़ियाँ चढ़ते। अंग्रेजी में लेखन ने इनके अंदर अजीब उत्साह भर दिया था। इनके स्टडी रूम में जाने की मुझे मनाही थी। यह मनाही तो कमरे में सिगरेटों के धुएँ के कारण मैंने खुद ही लगा रखी थी। इनका कहना था कि वह तो सारी उम्र भूले ही रहे, उन्हें तो पंजाबी में लिखना ही नहीं चाहिए था। मित्र मिलने आते या फोन करते तो यह तरह तरह के बयान देने लगते। कुछ मित्र इन पर हँसते भी। उस साल का बुकर प्राइज़ ले लेने का दावा भी करते।

जब तक इन्होंने उपन्यास नहीं लिख लिया, घर में एक अजीब प्रकार की भागमभागी मची रही। उपन्यास लिखने के बाद यह भागमभागी और अधिक तेज़ हो गई। उपन्यास छपवाना था, पब्लिशर नहीं मिल रहा था। किसी तरह खुद ही उपन्यास छापा। अब उसको बेचना था ताकि इस पर लगी लागत वापस मिल सके। इसके रिव्यू करवाने थे। यदि उस पर कोई प्रोग्राम भी हो सके तो करवाना था। दिनभर टेलीफोन बजता रहता या कार उठाकर किसी तरफ निकल जाते। अलका के साथ इस बारे में विचार-विमर्श होता और दूसरे कुछ दोस्तों के साथ भी। वुल्वरहैंप्टन के किसी मित्र को तो यह फोन करते ही नहीं थे, लंदन के मित्रों के साथ ही अधिकतर बातें किया करते।

मैं इनके संग उपन्यास बेचने जाती। हम गुरद्वारों के आगे खड़े होकर स्टाल लगा लेते। वहाँ एक बात और घटित होती, स्टाल पर इनके अंग्रेजी उपन्यास के साथ साथ हमारी पंजाबी की किताबें भी होतीं। लोग पंजाबी किताबें खरीद ले जाते लेकिन अंग्रेजी का उपन्यास किसी ने नहीं खरीदा। शायद चंदन साहब यह भूल जाते कि ये गुरद्वारे थे और यह ऐसा देश था जिसमें हमारे लोगों को पंजाबी की किताबों की तलाश अधिक रहती थी। बड़े बड़े दुकानदारों तक भी पहुँच कर रहे थे, पर असफलता ही हाथ लगती रही। इनके उपन्यास की दस प्रतियाँ मैंने अपनी कुछ कुलीग्ज़ और मित्रों को बेचीं। कुछ और भी बिकीं, परंतु इनकी उम्मीद के अनुसार तो कुछ भी नहीं हुआ। यह खीझकर बैठ गए। इनका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। कई दिन तक गुमसुम-से रहे। कुछ किताबें मंगवाई और अंदर घुसकर पढ़ने लगे। इन्होंने फिर से कंप्यूटर खोल लिया। कई दिन यह कुछ लिखते रहे। एक दिन ए-फोर साइज़ की एक फाइल मेरे सामने रखते हुए बोले -

“ये देख, मैंने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है। फिल्म का नाम होगा - बालोशेरा। आज के बाद मैं सिर्फ़ फिल्मों की स्क्रिप्ट ही लिखूँगा।”

(जारी…)