बहीखाता - 34 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

बहीखाता - 34

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

34

एंजाइना

निरंजन सिंह नूर साहब की मौत मुझे झिंझोड़कर रख गई। इंग्लैंड में एक प्रकार से वह मेरी ताकत थे। भाई की मृत्यु के बाद बड़ा भाई बनकर उन्होंने मेरा साथ दिया था और मेरे भाई के अधूरे रह गए सपनों को पूरा करने में मेरी मदद का वायदा भी किया था। उनके कारण ही मैं इस मुल्क में थी। यदि वह मुझे वुल्वरहैंप्टन न लाते तो मैं कब की वापस लौट गई होती या फिर कही मर-खप गई होती। उनकी मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा भावुक अभाव दे दिया था। उनके हज़ारों प्रशंसक थे। सभी अफ़सोस में डूब गए।

उनकी मृत्यु के बाद शीघ्र ही चंदन साहब वुल्वरहैंप्टन आ गए। वह भी नूर साहब की कमी को महसूस कर रहे थे। यह भी कहते थे कि यदि नूर साहब जीवित होते तो वुल्वरहैंप्टन दूसरी ही तरह का होता। हम सितंबर 1999 में नये घर में मूव कर गए। अक्तूबर के अंत में अलका का जन्मदिन था। उसका जन्मदिन हमने यहीं मनाया। इन्होंने उसको बीस हज़ार पौंड का चैक उपहार में दिया। मैंने बहुत कहा कि दस हज़ार इसे दे दो और दस हज़ार अमनदीप को, पर ये नहीं माने। इनका कहना था कि अलका के घर की मोर्टगेज बहुत है, इस बीस हज़ार से वह कुछ मोर्टगेज कम कर लेगी और उसकी कुछ परेशानी कम हो जाएगी। पर अलका ऐसी नहीं थी। उसने बीस हज़ार अपनी मर्ज़ी से खर्च किए। चंदन साहब को इसका बहुत दुख हुआ, पर अलका ने आकर अपनी मीठी बातों से इनकों फुसला लिया। लंदन वाला घर बेचकर और इस नये घर को लेकर, इन्हें सभी अन्य खर्चे निकालकर लगभग अस्सी हज़ार पौंड बच गए थे। बीस हज़ार अलका को दे दिया, कुछ इन्होंने घर को संवारने पर भी खर्च किया, बाकी के इन्होंने कहाँ रखे, कहाँ गए, इसकी मुझे भनक तक न पड़ने दी। इस घर में आकर इन्होंने मेरा फ्लैट भी बिकवा दिया था। मैं उसको बेचना नहीं चाहती थी, पर शायद यह सोचते थे कि मेरा फ्लैट मेरे रहने का दूसरा आसरा बना रहेगा। फ्लैट बेचकर जो पैसे मिले थे, वे सब इन्होंने रसोई की फिटिंग और घर की डेकोरेशन पर खर्च कर दिए। मैं खाली की खाली रह गई। फिर भी खुश थी, नौकरी थी और अब घर भी था और साथ भी।

इन्होंने सबसे पहला जो अपना रंग दिखाया, वह यह था कि मेरी माँ को इंडिया भेज दिया। एक दिन कहने लगे कि माता आप अब चलो। मैंने माँ को इधर स्थायी करवाने के लिए आवेदन कर रखा था। वह स्थायी हो भी जाती और मेरे पास ही रहती, परंतु चंदन साहब ने उसका पासपोर्ट होम-आॅफिस से वापस ले लिया और उसको इंडिया के लिए हवाई जहाज में बिठा दिया। मैं इसका कोई विरोध नहीं कर सकी क्योंकि मेरी माँ ही जाने के लिए उतावली पड़ने लग पड़ी थी।

एक दिन अलका का फोन आया। पता नहीं उसने क्या कहा, यह बोले -

“डोंट वरी अलका डार्लिंग, तेरी जगह तो कोई दूसरा ले ही नहीं सकता। तू तू है, तू सबसे पहले है।”

मैं सोच में पड़ गई। यह तो फिर वही बातें प्रारंभ हो गईं। मुझे लगा कि मैं एकबार फिर बहुत बड़ी गलती कर बैठी हूँ। मैं फिर धोखा खा गई हूँ। फिर मृगतृष्णा की शिकार हो गई हूँ। मैं यह बात अपने मित्रों, सहेलियों के संग साझी करती तो वे कहते - अब हौसला करके बैठी रह। अलका कभी-कभी आया करती थी। वे दोनों स्टडी रूम में जा घुसते जो घर के बराबर ही बना हुआ था। दरवाज़ा बंद कर लेते और कितने कितने घंटे अंदर ही बंद रहते। मुझे वहाँ जाने की इजाज़त न होती। मुझे जाना भी होता तो कमरा धुएँ से इतना भरा होता कि उसमें बैठा व्यक्ति भी दिखाई न देता। धुएँ से मेरा दम घुटने को होता था। अलका जब भी आती तो यह एकदम बदल जाते। उस वक्त हमारे मध्य पार्टनरों वाला रिश्ता मानो खत्म ही हो जाता। अलका अब अक्सर ही आने-जाने लग पड़ी थी।

इन्हीं दिनों चंदन साहब की एक अन्य परेशानी बढ़ गई थी। वह यह कि इन्हें प्रगतिशील लेखक सभा का सदस्य बना लिया गया था, परंतु इनकी इच्छानुसार इन्हें कोई बड़ा पद नहीं दिया गया था। लेखक के तौर पर इनका कद सभा के सभी सदस्यों से बड़ा था, पर इन्हें एक वर्ष प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया। सिर पर सभा द्वारा करवाई जाने वाली कान्फ्रेंस आई खड़ी थी। कान्फ्रंेस में भी इन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके यह हकदार थे या यह चाहते थे। कान्फ्रेंस में इंडिया से कई आलोचक आए हुए थे। कान्फ्रेंस बहुत अच्छे ढंग से संपन्न हुई। कान्फ्रेंस के बाद भी सभा ने इनकी ओर ध्यान नहीं दिया। इन्होंने सभा छोड़ दी। मुझे भी इनके साथ छोड़नी ही थी। इस सभा ने मुझे इंग्लैंड में पहचान दिलवाई थी इसलिए सभा छोड़ने का मुझे दुख था। चंदन साहब ने पंजाबी अकादमी बनाने का फैसला कर लिया। हम बैठकर अकादमी की रूपरेखा बनाने लगे। अकादमी का जो नक्शा हमारे सामने आया, उससे मैं बहुत खुश थी। इन्होंने अगले वर्ष ही अकादमी की ओर से कान्फ्रेंस करवाने की घोषणा कर दी और साथ ही, इस कान्फ्रेंस को करवाने के लिए काउंसिल को ग्रांट के लिए भी आवेदन कर दिया। अब मुझे सभा छोड़ने का अधिक दुख नहीं था। हाँ, पुराने मित्र कम मिलते थे, इसका मलाल अवश्य रहता था।

एक दिन हम शॉपिंग करने गए। मैंने देखा कि चलते हुए इनका सांस उखड़ रहा था। यह बार बार अपना हाथ दिल पर रख रहे थे। मुझे लगा कि यह खतरे की घंटी है। मैं ज़ोर डालकर इन्हें अस्पताल ले गई। डाॅक्टरों ने इनका चैकअप किया तो देखा कि इनके दिल की तीनों नसें ब्लाॅक थीं। इनके दिल को तो बाईपास की आवश्यकता थी। इन्हें उसी समय अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। यूँ अचानक भर्ती कर लिए जाने के कारण इन्हें आपरेशन के लिए कुछ दिन प्रतीक्षा करनी थी। कई दिन तक अस्पताल में रहना था।

सभी लेखकों को पता चल गया कि यह अस्पताल में हैं, पर हरजीत अटवाल और उनके पिता को छोड़कर कोई भी लेखक इनकी ख़बर लेने नहीं आया। हाँ, बेटा अमनदीप और उसकी पत्नी सिम्मी भी मिलने आए थे। कान्फ्रेंस के बाद अधिकांश लोगों से बिगड़ भी चुकी थी। अपने अड़ियल स्वभाव के कारण ये किसी को भी जल्द ही नाराज कर लेते थे। हरजीत अटवाल के साथ इनका अजीब-सा रिश्ता था। उसके उस समय तक दो उपन्यास छप चुके थे जिसके कारण इन्हें उससे ईष्र्या भी थी और साथ ही साथ एक मोह-सा भी था। यह उसको शायद उपन्यास के क्षेत्र में अपने लिए खतरा समझ रहे थे। जब भी हरजीत की नई किताब छपती, मैं पढ़ने के लिए मांगती। मुझे यह कहकर टाल देते कि तेरा काम कविता पढ़ना है। उस समय वह यह भूल जाते कि मैं साहित्य की विद्यार्थी थी, सिर्फ़ कविता की नहीं। मैं फिर भी ज़िद करके किताब ले लेती। जब पढ़ने बैठती, यह पहले ही अपनी नाकारात्मक राय मुझ पर थोपने की कोशिश करते। ऊपर ऊपर से मैं इनकी हाँ में हाँ मिला भी देती, पर अंदरखाते मुझे पता था कि हरजीत अटवाल की लेखनी में असर था और इस पर हरजीत की यथार्थपरक शैली की मोहर थी। मैं हरजीत की गद्य शैली से तब से ही प्रभावित थी जब मैंने ’ब्रितानवी पंजाबी साहित्य के मसले’ नामक पुस्तक लिखी थी और हरजीत अटवाल की कहानियों का विश्लेषण भी किया था। चंदन साहब का समकालीन दर्शन धीर था। धीर साहब से वह कभी कोई खतरा महसूस न करते। हाँ, इस बात का मलाल अवश्य था कि उन्होंने अपनी सभा में इन्हें कोई पद नहीं दिया था। धीर साहब जब इनकी ख़बर लेने आए तो ये बहुत खुश हुए थे। अस्पताल में इन्हें आपरेशन के लिए वेटिंग लिस्ट में रखा गया था। कई दिन लग रहे थे। इनकी शराब भी बंद थी और सिगरेट भी। यह इनके बग़ैर नहीं रह सकते थे।

एक दिन मैं घर में ही थी। इनसे मिलने अस्पताल जाने की तैयारी कर रही थी कि घर की डोर बैल बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो चंदन साहब बाहर खड़े थे। वह अस्पताल से भाग आए थे।

(जारी…)