बहीखाता - 33 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 33

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

33

एक और हादसा

इन दिनों मैंने सख़्त काम भी किया, पर साथ ही ड्राइविंग टेस्ट भी पास कर लिया और अपनी कार भी खरीद ली। अब मुझे आसपास जाने के लिए बस पकड़ने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। कार चलाना मेरे लिए एक अच्छा अनुभव था।

और सब कुछ ठीक चल रहा था, पर चंदन साहब का दोबारा फोन न आया। यदि कभी आया भी तो उसमें फिर से इकट्ठे होने की बात नहीं हुई। इधर मेरी माँ मुझ पर ज़ोर डाल रही थी कि यदि चंदन ने फोन नहीं किया तो क्या हुआ, मुझे खुद कर लेना चाहिए। मैं सोच रही थी कि वे तो स्वयं फिर से एक साथ होने के लिए इतने उतावले थे, वह उतावलापन अब किधर गया। मैं उनके अस्थायी स्वभाव के बारे में भलीभाँति जानती थी। यदि मैंने कोई पहल की तो दोषी मुझे ही बनना था। मुझे तो उनकी कोई ज़रूरत भी नहीं थी, वही तो खुद याचनाएँ कर रहे थे। मैंने नूर साहब से सलाह की। वह मेरे सबसे बड़े सलाहकार थे। वह बोले कि सारी बात को यूँ ही छोड़ दिया जाए, स्टेटस-को की स्थिति में। सो, मैंने ऐसा ही किया।

सन् 1998 में नूर साहब रिटायर हो गए। उनके रिटायर होने के साथ ही शुरू की गई कक्षाएँ भी समाप्त हो गईं। इन दिनों विद्यार्थियों की कुछ कमी-सी भी हो गई थी। ये कक्षाएँ समाप्त हुईं तो मुझे ईसोल पढ़ाने पर लगा दिया गया। यह दूसरे देशों से आए लोगों को अंग्रेजी सिखाने का काम था। इसके साथ मुझे यह लाभ हुआ कि मेरी नौकरी बनी रही। ईसोल पढ़ाने के लिए साथ ही साथ टैसला नामक कोर्स भी करना पड़ता था। कालेज ने ही मुझे कोर्स भी करवा दिया। एक तरफ मैं कक्षाएँ पढ़ा रही थी और दूसरी तरफ कोर्स भी कर रही थी। नौकरी के साथ ही टीचिंग प्रैक्टिस भी होती रही। नूर साहब की कालेज में एक कुलीग मित्र लिज़ मिलमैन जो ईसोल विभाग की लाइन मैनेजर थी, ने इस काम में मेरी बहुत सहायता की।

चंदन साहब के साथ रहने के बारे में माँ एक तर्क यह भी देती कि मैं जो दो-दो नौकरियाँ करके परेशान होती हूँ, उससे तो चंदन के साथ रहना आसान रहेगा, पर शायद वह चंदन साहब के स्वभाव से पूरी तरह परिचित नहीं थी या फिर वह पुराने ज़माने के ढंग से ही सोचती थी कि पति जो करता है, जो कहता है, सब ठीक होता है।

दो-ढाई महीने बीत गए थे जब चंदन साहब का फोन आया। वह बहुत खुश थे। एक तो उनकी टांग बिल्कुल ठीक हो गई थी और दूसरा, उनका ड्राइविंग लाइसेंस वापस आ गया था। लाइसेंस वापस आने का भाव ताकत का वापस आना था। अब वह किसी व्यक्ति पर या ट्रांसपोर्ट पर निर्भर नहीं होंगे। उन्होंने कहा -

“रानी, आ जा यहाँ, फिर से एकसाथ रहें। अकेला तो दरख़्त भी नहीं रह सकता। फिर हम तो मैच्योर लोग हैं।”

“आपने तो चंदन साहब, दोबारा फोन ही नहीं किया, कोई बात ही आगे नहीं चलाई।”

“असल में मेरी बहुत सारी बातें सॉर्ट-आउट करने वाली थीं, बच्चों के साथ भी इस बारे में ज़रा खुलकर बात होनी थी। अब सब हो गईं। अब तू आ जा।”

“चंदन साहब, अब यहाँ मेरी जॉब है। मेरा सब कुछ है, मैं नहीं आ सकती। ऐसा करो कि आप ही यहाँ आ जाओ।”

“जॉब यहाँ भी मिल जाएगी, मैं पता करता हूँ।”

उन्होंने कहा। मैं सोचने लगी कि यदि लंदन में भी ऐसी स्थायी नौकरी मिल जाए तो वहीं चली जाऊँगी। क्योंकि साउथाल और शेष लंदन के बसते लेखक भी तो अब मित्र बन चुके थे। हर कार्यक्रम में मिलते थे। फोन पर भी सबसे बातें होती रहती थीं। चंदन साहब ने वहाँ नौकरी के बारे में मालूम किया। ईलिंग के टर्शरी कालेज में नौकरी तो मिल रही थी ऐसी ही, पर वह स्थायी नहीं थी। वह जॉब कुछ महीनों के लिए ही थी। इस कारण मैं हेज़ नहीं जा सकती थी। एक दिन चंदन साहब वुल्वरहैंप्टन ही आ गए। कुछ उखड़े हुए दिखते थी, पर शीघ्र ही ठीक हो गए। हम एकसाथ बैठकर विचार-विमर्श करने लगे कि क्या और कैसे करना है। पहले ही तय हो चुका था कि दिल्ली वाला फ्लैट मेरा होगा और यहाँ वाला सब कुछ चंदन का। यह चंदन के बाद चंदन के बच्चों को मिलेगा और दिल्ली वाला मेरे बाद मेरे भतीजे-भतीजियों को। वह अपना हेज़ वाला घर बेचकर यहाँ आ जाएँगे। मैंने उनसे कहा -

“यह सामने वाला फ्लैट बिकाऊ है, यही खरीद लो। तुम वहाँ रहते रहना और मैं यहाँ अपने फ्लैट में। इस तरह आसान भी रहेगा और तुम्हें हेज़ वाला घर बेचना भी नहीं पड़ेगा।”

“नहीं रानी, ऐसे नहीं। अब तो हम एक ही छत के नीचे रहेंगे।”

“फिर मेरा कमरा अलग होगा।”

“बिल्कुल। एक कमरे में रहने वाली तो अब अपनी हालत ही नहीं है।” कहते हुए वह हँसने लगे।

करीब दो दिन रहकर वह वापस लंदन चले गए। अब लगता था कि वह सचमुच ही गंभीरता से एकसाथ रहने के बारे में सोच रहे थे। मुझे अच्छा भी लगा। मैंने सारी बात नूर साहब को बताई। उन्हें तसल्ली थी कि अब हम अवश्य खुश रह सकेंगे। चंदन साहब यहीं घर देखने-तलाशने लग पड़े। संयोगवश निरंजन सिंह ढिल्लों अपना मकान बेच रहे थे। उन्होंने किसी अन्य इलाके में नया घर देख रखा था। चंदन साहब का उनके साथ ही पचास हज़ार में सौदा हो गया। हेज़ वाला इनका घर एक लाख चालीस हज़ार में बिक गया। घर खरीदने-बेचने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फोन पर हम दोनों आने वाले भविष्य को लेकर बातें करते रहते।

प्रगतिशील लेखक सभा में भी चंदन साहब के वुल्वरहैंप्टन आने की ख़बर पहुँच गई। सभी खुश थे कि चंदन के कद का लेखक उनकी सभा से जुड़ेगा तो सभा का भी कद बढ़ेगा। साउथाल के लेखक मिडलैंड के लेखकों को कमतर आंका करते थे, अब चंदन साहब के आ जाने से समूचे मिडलैंड का स्तर ऊँचा होगा। सभा में सबसे अधिक नूर साहब खुश थे। नूर साहब सभा के रूहे-रवां थे।

इन्हीं दिनों एक दिन सुबह मुझे फोन आया कि नूर साहब को दिल का दौरा पड़ा है और उनका देहांत हो गया है।

(जारी…)