बहीखाता - 30 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 30

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

30

हादसा

कभी कभी मैं सोचती कि मेरी शख्सियत में कौन सी ऐसी कमी है कि मैं चंदन साहब को अभी तक झेले जा रही हूँ। शायद मेरे नरम स्वभाव का वह लाभ उठाते जा रहे थे। इसी स्वभाव के कारण ही वह फ्लैट पर कब्ज़ा कर गए थे। अब कभी भी उसको बेच सकते थे। मैं फिर से डिप्रैशन में रहने लगी। मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। मैं महीने की दवा लेकर आई थी और मेरी दवा खत्म हो चुकी थी। सो, ब्लीडिंग फिर शुरू हो गई। इंडिया में यह दवाई मिल नहीं रही थी। मैंने निरंजन सिंह नूर को फोन किया तो उन्होंने किसी प्रकार दवा भेज दी और साथ ही मेरी एक महीने की छुट्टी भी बढ़ा दी। निरंजन सिंह नूर और निरंजन सिंह ढिल्लों मुझे फोन करते रहते थे। मेरी सेहत का हाल चाल पूछते रहते थे।

मैंने एक फैसला अपने आप से कर लिया कि अब चंदन साहब के साथ नहीं रहना। मैं वापस इंग्लैंड भी नहीं जाना चाहती थी। मेरी सेहत बिगड़ रही थी। बेचैनी बहुत होती थी। दवा भी असर न करती। मेरी हालत देखकर एक दिन जसविंदर ने निरंजन सिंह ढिल्लों को फोन किया -

“ढिल्लों साहब, दीदी की हालत बिल्कुल ठीक नहीं। यह शारीरिक तौर पर भी ठीक नहीं हैं और मानसिक तौर पर भी। और ऊपर से यह कह रहे हैं कि वापस इंग्लैंड नहीं जाना।”

चंदन साहब द्वारा दिल्ली में आकर जो कुछ मेरे संग किया गया था, उसका पता ढिल्लों और नूर साहब को था। पहले भी चंदन साहब के साथ रहते हुए मेरे साथ जो कुछ हुआ, वे सब जानते थे। नूर साहब ही तो चंदन साहब के साथ जाकर मुझे रंधावा के घर से लेकर आए थे। पूरे बीस दिन वहीं रही थी, चंदन साहब ने तो एक बार भी ख़बर नहीं ली थी। ढिल्लों साहब ने जसविंदर से कहा -

“आप एकबार किसी न किसी तरह इन्हें जहाज में बिठा दो, हम यहाँ खुद संभाल लेंगे।”

मेरा भाई और भाभी मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ गए। मैं फ्लाइट लेकर लंदन पहुँच गई। मैंने रंधावा को फोन कर रखा था। उसने मुझे हीथ्रो एयरपोर्ट से पिक करके वुल्वरहैंप्टन वाली कोच में बिठा दिया। रात के नौ बजे कोच वुल्वरहैंप्टन पहुँची। वहाँ ढिल्लों साहब मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। सफ़र ने मेरी हालत बहुत खराब कर दी थी। थोड़ा सा खाना खाकर मैंने दवा ली और सो गई। कुछ दिन मैं उनके घर में रही और फिर किराये पर कमरा तलाशने लगी। शीघ्र ही मुझे उसी रोड पर एक नौजवान युगल के घर में एक कमरा किराये पर मिल गया। घर का मालिक अमरीक सिंह शरीफ-सा लड़का था।

चंदन साहब के साथ मेरी कानूनी अलहदगी शुरू हो गई। अहलदगी तो शुरू हो गई, पर चंदन साहब मुझे मेरा सामान देने आए तो मेरे पास ही रह गए। रात में मेरे साथ ही सोये, मैं उन्हें रोक ही न सकी। वह दो दिन रह कर गए लेकिन एकबार भी मुझे अपने संग चलने के लिए नहीं कहा। मैं मूर्ख, दिल के किसी कोने से चाहती थी कि मैं उनके साथ चली जाऊँ। वापस हेज़ जाकर उन्होंने मुझे फोन भी न किया। किसी काम के लिए मैंने किया भी तो वह ठीक से न बोले। मुझे उनके इस स्वभाव के बारे में पता ही था।

एक दिन नूर साहब ने कहा -

“देविंदर, क्यों नही अपना फ्लैट खरीद लेती ?”

“मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं।”

“फ्लैट तो थोड़ा-सा डिपोजिट देकर आ जाएगा, बाकी की किस्तें हो जाएँगी।”

“नूर साहब, मुझे तो इसके बारे में कुछ जानकारी नहीं, आप ही ले दो।”

शीघ्र ही मैं फ्लैट की मालकिन बन गई। फ्लैट की खोज और मोर्टगेज आदि का प्रबंध ढिल्लों साहब ने ही किया। मैं तो जाकर बीच में बैठ गई थी। फ्लैट लेने के साथ इंग्लैंड में मेरे पैर लग गए। यद्यपि इसको घर नहीं कहा जा सकता था, पर मेरा ठिकाना बन गया था। ऐसा ठिकाना जहाँ मैं अपनी मनमर्जी कर सकती थी। अपनी मर्जी से मित्रों को बुला सकती थी। मुझे इंग्र्लैंड में रहने का आनन्द आने लगा। आठ साल हो चले थे मुझे इंग्लैंड में आए हुए को, मैं इतनी खुश पहली बार रहने लगी थी। मेरे नये नये मित्र बनने लगे। फ्लैट में साहित्यिक बैठकें होने लगीं। महिंदर कौर जैसी गहरी सहेलियाँ बन गईं। इन्हीं दिनों मुझे एक मनहूस ख़बर मिली। मेरे भाई की अचानक मृत्यु हो गई। सेहत तो उसकी काफ़ी समय से ठीक नहीं रहती थी। इस ख़बर ने मुझे उदास कर दिया। मेरी हालत इतनी खराब हो गई कि मुझे अस्पताल जाना पड़ा। मैं इंडिया जाना चाहती थी, परंतु नया नया फ्लैट लिया था, इसमें सामान भी खरीदकर डाला था, मेरे पास इंडिया जाने की गुंजाइश नहीं रही थी। किसी से उधार मैं लेना नहीं चाहती थी। जसविंदर मेरी भाभी थी, मेरे से उम्र में छोटी भी थी, पर वह सदैव मेरी माँ बनकर निभाती रही। अब उसके दुख में मैं विवश इतनी दूर बैठी थी। भाई की मौत का अफ़सोस प्रकट करने के लिए सभी दोस्त आए। कई दिन तक खाना मेरी सहेली महिंदर कौर के घर से आता रहा। वुल्वरहैंप्टन से तो सभी लेखक आए। मुश्ताक सिंह और संतोख सिंह संतोख आदि भी आए। मुश्ताक सिंह ने मुझे एक तरफ बुलाकर पूछा -

“देविंदर जी, किसी चीज़ की ज़रूरत है तो बताओ, पैसे की या किसी अन्य चीज़ की। बिल्कुल न घबराओ, निःसंकोच कहो।”

“नहीं, मुश्ताक जी, थैंक यू।”

मैंने कहा। मुश्ताक सिंह का इस प्रकार पूछना इतना दोस्ती भरा था कि मुझे अंदर तक भिगो गया। उसी दिन मुझे उसने कमर पर चुन्नी बांध लेने के लिए कहा। उसके कहने पर चुन्नी मेरी कमर में बंध गई थी। उस दिन के बाद से मुश्ताक सिंह के साथ फोन पर मेरी निरंतर बातचीत होने लगी। आज तक उसकी दोस्ती पर मुझे गर्व है। चंदन साहब से तो उस वक्त ऐसे दो शब्द भी सुनने को न मिले। वह अफसोस प्रकट करने आए थे, पर उन्हें वापस लौटने की जल्दी थी। इन दिनों में अलका कुछ बीमार थी और उनके पास ही आई हुई थी। वह अफसोस प्रकट करने के बाद उठते हुए रूखे-से स्वर में बोले -

“हम चलते हैं, जो मर गए वो तो मर गए, जो अभी जीवित हैं, उन्हें तो संभालें।”

(जारी…)