बहीखाता - 31 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 31

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

31

मकसद

भाई की मौत के दुख में से मैं धीरे-धीरे उबरने लगी। मित्रों ने इसमें मेरी बहुत मदद की। मेरा ही विद्यार्थी बिपन गिल अफसोस प्रकट करने आया तो एक लिफाफा दे गया। खोलकर देखा, उसमें दो सौ पौंड थे। अब तक मैंने कुछ पैसे इकट्ठे कर लिए थे ताकि इंडिया जा सकूँ। कालेज से छुट्टी ली और शीघ्र ही दिल्ली एअरपोर्ट पर जा उतरी।

एयरपोर्ट पर जसविंदर मुझे लेने आई हुई थी। जसविंदर के साथ सोढ़ी भी था। सोढ़ी मेरा भतीजा जो उस समय सिर्फ़ सात वर्ष का था। उनकी ओर देखकर मेरी रूलाई फूट पड़ी। जसविंदर भी रोने लगी। सोढ़ी मेरी ओर देखता जा रहा था। उसके आँसू आँखों में आए, पर वहीं अटके रहे। मैं समझ गई कि अब यह बच्चा नहीं रहा। अब यह पूरा मर्द बन गया है। शायद उसको पिता के चले जाने के बाद वाली जिम्मेदारी की समझ आ गई थी। मैंने उसको भी बांहों में भर लिया और खूब दिल हल्का किया, पर वह न रोया। उसकी आँखों में ठहरे हुए आँसू मुझे बहुत तंग कर रहे थे। अभी भी कई बार वही दो आँखें और आँखों में ठहरे वही आँसू मेरी आँखों के आगे आ खड़े होते हैं और मेरी आँखों को नम कर जाते हैं। पर इस घटना ने मुझे ज़िन्दगी जीने के लिए एक मकसद, एक उद्देश दे दिया। मैंने अपने आप से यह प्रण कर लिया कि आज से मेरी ज़िन्दगी इस बच्चे के लिए होगी। मैं इसके बाप की जगह खड़ी होऊँगी और इसके बचपन को इतनी जल्दी व्यर्थ नहीं जाने दूँगी। इस पल के बारे में मैंने एक गीत की अंतिम सतरों में इस प्रकार लिखा था -

बस मासूम दीआं दो अक्खियाँ, साडा रस्ता रोक रहियाँ

उंझ तां सारे रस्ते लंघ के आए विच बाज़ार असी।

(बस, मासूम की दो अक्खियाँ, हमारा रस्ता रोक रहीं /

यूँ तो सारे रस्ते गुज़रकर आए बीच बाज़ार में हम।)

घर में बहुत ही उदासी वाला वातावरण था। मेरी दोनों भतीजियाँ भी गुमसुम सी इधर उधर चल-फिर रही थीं। माँ भी एकदम और अधिक बूढ़ी हो गई थी। उसने तो मौतें ही बहुत देखी थीं, पर इस प्रकार जवान पुत्र की मौत उसके लिए असहय थी। छोटे छोटे पोते-पोतियों का दुख भी नहीं झेला जाता था। माँ, जसविंदर और मैं तीनों एक दूसरे को सहारा दे रही थीं और खुद अंदर से टूटी पड़ी थीं। जसविंदर ने सोढ़ी को मेरी झोली में डाल दिया और मैंने उसको बांहों में कस लिया। सोढ़ी अब मेरे साथ बहुत जुड़ने लग पड़ा था। मुझे भी उसमें से अपना भाई दिखने लग पड़ा था। वह अधिक समय मेरे साथ ही व्यतीत करता। एक दिन मेरी टांग पर काला दाग देखकर बोला -

“देखो अम्मी, बिल्कुल ऐसा ही बर्थ मार्क मेरे भी है।”

कहता हुआ वह अपनी कमीज़ ऊपर उठाकर दिखाने लगा। खून की सांझ के साथ-साथ यह एक ओर सांझ थी। सभी बच्चे मुझे पहले से ही अम्मी कहा करते थे। मुझे भी सदैव वे तीनों अपने ही बच्चे लगते रहे हैं। हम विचार-विमर्श करने लगे कि माँ को इंग्लैंड ले जाऊँ क्योंकि जसविंदर को तो अब बच्चे संभालने मुश्किल हो रहे थे, माँ की देखरेख कैसे करेगी। हालाँकि वह बड़े धैर्य और हिम्मतवाली बहादुर औरत साहिब हुई जब उसने मेरे भाई के भोग पर गुरद्वारे में अंतिम अरदास स्वयं की। सभी उसके इस सब्र पर हैरान रह गए। इसीलिए मुझे उसमें माँ दिखने लगी क्योंकि मेरी माँ ने भी मेरे पिता के देहांत पर मुझे और मेरे भाई को सामने बिठाकर यह कहा था -

“जब तक मैं जीवित हूँ बच्चो, तुम्हारी तरफ कोई टेढ़ी आँख से भी नहीं देख सकता।”

मैंने माँ के सैर के वीज़े के लिए आवेदन कर दिया, पर वीज़ा आने में वक्त लगना था, इसलिए मैं वापस आ गई।

मेरी नौकरी थी तो स्थायी, पर पार्ट टाइम ही थी। मैं वीक में साढ़े सत्रह घंटे काम करती थी। फ्लैट अपना ले लेने के कारण मैं पैसों की ओर से तंग हो गई थी। मोर्टगेज बहुत थी और ऊपर से दूसरे खर्चे। मैं साथ ही किसी अन्य पार्ट-टाइम काम की तलाश करने लगी। कुछ समय बाद मुझे केयरर की जॉब मिल गई। इसमें क्या होता था कि मुझे बुजु़र्ग लोगों के घरों में जाकर उनकी मदद करनी होती थी। उनके बर्तन धोने, हूवर करना, और अन्य सफाई का काम भी कर देना। एक घर में एक घंटा काम करना होता था। सप्ताह में दस घंटे का काम मिल गया। एक दिन निरंजन सिंह नूर मिले तो बोले -

“देविंदर, आय एम रीयली प्राउड ऑफ यू ! इतनी बड़ी डिगरी लेकर, एक कालेज की अध्यापिका होकर भी तू घरों में सफाई का काम भी करती है।” उनके इन शब्दों ने मेरा हौसला दुगना कर दिया। पर पंजाबी की कहानीकार वीना वर्मा को जब पता चला, उसका लेखक हृदय तिलमिला उठा। वह आँखों में आँसू भरते बोली थी कि शायद मैं कभी इस पर कहानी लिखूँ। शायद वह अभी भी दिल्ली वाली देविंदर, कालेज, यूनिवर्सिटी वाली देविंदर को ढूँढ़ रही थी और एक लेक्चरर के हाथों में हूवर उसकी संवेदना को झिंझोड़ रहा था।

शीघ्र ही मेरी माँ मेरे पास पहुँच गई। चंदन साहब को पता चला तो एक दिन उनका फोन आ गया। बोले -

“तेरी माँ आ गई है और मैं अब जा रहा हूँ।”

मैं डर गई। वह कई बार ऐसी खुदकुशी की बातें करने लगते थे। मुझे पता चला था कि वह दो-एकबार खुदकुशी करने की कोशिश कर भी चुके थे। अधिक गोलियाँ खाकर अस्पताल पहुँच चुके थे। असल में, पिछले दिनों ही शराब पीकर गाड़ी चलाते हुए पकड़े गए थे और अब उनका लाइसेंस जब्त हो जाना था। लाइसेंस के बग़ैर तो वह किसी काम के नहीं रहते। बढ़िया कार रखने का और कार भगाने का उनका शुरू से ही जबरर्दस्त शौक रहा था। कार न चला सके तो बाहर निकलना भी बंद हो जाएगा। घर में रहने का अर्थ था कि शराब ज्यादा पीना और उल्टा-सीधा सोचना। मुझे उनकी चिंता होने लगी। यही बात थी कि जो मुझे उनसे एकदम टूटने नहीं दे रही थी। मुझे उनकी फिक्र-सी भी रहती थी। जहाँ वह मुझे तंग करते थे, वहीं खुद भी तो सुखी नहीं होते थे। उनके स्वभाव के कारण सभी दोस्त उनसे टूटते जा रहे थे। दिल्ली के दोस्तों ने उनको सारी सुविधाओं से वंचित कर रखा था जिनके वह हकदार थे। फिर इसमें उन दोस्तों का अधिक दोष नहीं था, इन्होंने स्वयं ही सबके साथ दुश्मनी डाल ली थी। यह सारी स्थिति मेरे मन में दया का भाव भी पैदा करती थी। एक अन्य बात मेरे अंदर चुभती रहती कि वह अपने बचपन को याद करते हुए प्रायः रोने लगते थे। जब शराबी होकर वह फूट फूटकर रोते, तो मेरे से झेले न जाते। यही कारण था कि उनकी कुछ ज्यादतियाँ भी सह जाती थी। कई बार सोचती, लेखक के साथ विवाह करवाया है, इतना तो झेलना ही पड़ेगा। लेखक कोई आम व्यक्ति नहीं हुआ करता।

इन्हीं दिनों, नूर साहब के माध्यम से हमारे बीच एक समझौता हो गया कि दिल्ली वाला फ्लैट मेरा है और लंदन वाला इनका। उस फ्लैट पर यह हक नहीं जताएँगे और यहाँ वाले घर में से मैं कुछ क्लेम नहीं करूँगी। मुझे यह मंजूर था। अब यहाँ मेरे पास फ्लैट था ही, इनके घर से मुझे क्या लेना था। मैं मुफ्त में मिले घर में रहना भी नहीं चाहती थी। पर एक बात का डर था कि पहले की तरह यह जाकर दिल्ली वाले फ्लैट पर कब्ज़ा न कर लें। एक डर वह भी दिल में पाले बैठे थे। वह यह कि दिल्ली में जो प्लाट उन्होंने खरीदा था, वह मेरे नाम था। प्लाट का मुख्तयारनामा बेशक इनके नाम कर रखा था, पर यह बात करते करते उसका जिक्र करने लगते थे। मुझे फोन करके कहते -

“रानी, प्लीज आ जा। तेरे बग़ैर इस दुनिया में मेरा कोई नहीं। जैसा तू कहेगी, मैं करूँगा, प्लीज़ !”

“चंदन जी, यह संभव नहीं अब।”

कहकर मैं फोन रख देती। यह नशे में होते तो बार बार फोन मिलाने लगते। मैं फोन का हुक उठाकर रख देती। इनकी हालत बिगड़ने लगी। लाइसेंस इनका छिन गया था। घर में बैठे बैठे शराब पीते रहते। दोस्तों ने तो इन्हें पहले ही बुलाना छोड़ रखा था। ले देकर मुश्ताक ही इनका दोस्त था। उसका घर इनके घर के करीब ही था, पर मुश्ताक का भी अपना स्वभाव था। हरजीत अटवाल भी इनके बहुत नज़दीक था, पर उसके बच्चे अभी छोटे थे। उसके पास इनके लिए वक्त कहाँ होगा। अमनदीप का विवाह हो गया था। मुझे पता चला कि शराब पीकर उसको भी घर से निकाल दिया गया था और वह अपने फ्लैट में जा चुका था। सो, अब चंदन साहब थे, या फिर चार दीवारें। मुझे भी ऐसा लगने लगा कि हमारा विवाह भी एक ऐसा रिश्ता बनता जा रहा था जिसमें प्रेम, विश्वास और भरोसे के बीच जायदादों का मलबा आ खड़ा हुआ था। मैंने उन दिनों एक कविता भी लिखी थी जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं -

हमने रिश्तों के मध्य

मकानों की दीवारें चिन ली हैं

दीवारें

जिनके आर-पार

पंछियों की फड़फड़ाहट है

फासलों की रात है

गीतों की मौत है

सुरो का क़त्ल है

जायदादों का मलबा है

मुहब्बतों की अर्थी है

शब्दांे की मक्कारी है

और अपने अपने हक़ में

घड़ी हुई दलीलें हैं...।

इन पंक्तियों के बारे में सोचकर मुझे सहानुभूति भी होती और मलाल भी, कभी दिल करता, चार दिन की ज़िन्दगी है, रूठकर क्या लेना, पर मेरे अपने अनुभव इतने क्रूर थे कि मैं पीछे मुड़कर नहीं देख सकती थी। यद्यपि अमनदीप, सिम्मी और खास तौर पर अनीश के बारे में सोचती कि उनका कोई कसूर नहीं, फिर भी वे एक व्यक्ति के कारण मेरे से दूर हो रहे हैं। मुझे मन ही मन पता था कि चंदन साहब ने ही उन्हें मुझसे मिलने के लिए मना किया होगा। खै़र, एक दिन नूर साहब को इनका फोन आया। इन्होंने वही बात उन्हें कहीं जो शराब पीकर मुझे कहा करते थे। मेरे वापस लौट आने के बारे में। मैंने नूर साहब को स्पष्ट कह दिया कि यह व्यक्ति यकीन के काबिल नहीं। बार बार चंदन साहब का फोन आता और बार बार मैं वापस जाने के लिए इन्कार कर देती। एक दिन संतोख सिंह संतोख का फोन आया। वह कहने लगा -

“देविंदर, कल चंदन मेरे पास आया था। उसकी बहुत बुरी हालत है। वह अपने आप को तबाह कर रहा है। यदि तुम्हारे बीच ज्यादा बड़ी बात नहीं तो क्यों नहीं दुबारा इकट्ठे हो जाते। अब उम्र भी तो हो गई हैं।”

मुझे संतोख सिंह संतोख के शब्द हिला गए। उनके प्रति मेरा रवैया कुछ कुछ बदलने लगा। हालाँकि मेरे अंदर का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ रहने के खिलाफ़ था। एक दिन शराब पीकर फोन करने लगे। वापस आने पर जोर डालते, पर बातों में अंट-शंट भी बोलने लगते।

एक दिन मुझे नूर साहब ने कहा -

“देविंदर, बुरी ख़बर है कि चंदन साहब चलती गाड़ी में से गिर पड़े और उनकी टांगों पर चोटें आई हैं। अस्पताल में हैं।”

(जारी…)