बहीखाता - 23 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 23

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

23

गर्भपात

सितंबर का महीना आने से पहले ही हम इंडिया जाने की तैयारियाँ करने लग पड़े। चंदन साहब ने अर्ली रिटायरमेंट के लिए आवेदन कर दिया। अब वह दिल्ली में स्थायी रूप से रहना चाहते थे। वह बार-बार कहने लगते कि वह दिल्ली जाएँगे और साहित्य जगत में छा जाएँगे। साहित्य जगत में तो वह अब भी छाये हुए थे, पर उन्हें तसल्ली नहीं थी। मैं इंग्लैंड में रहने आई थी और वह वापस दिल्ली जाना चाहते थे। जो उनका निर्णय था, उसके आगे सिर तो झुकाना ही था। उन्होंने अर्ली रिटायरमेंट के लिए आवेदन तो कर दिया, पर इसका मिलना इतना सरल नहीं था। एक तो उनकी उम्र अभी कम थी। इंग्लैंड में रिटायरमेंट की आयु 65 वर्ष होती है जबकि उनकी उम्र 47 वर्ष ही थी। दूसरा, उनकी सेहत भी अच्छी थी। वह दिन रात रिटायरमेंट लेने वाली योजनाएँ बनाते रहते। डॉक्टर वेद हमारी फैमिली डॉक्टर थी। वह और उसका पति अक्सर हमारे घर आया करते थे। हम भी उनकी तरफ चले जाते। यह दम्पति सुरजीत कौर के समय से ही इनका दोस्त था। डॉक्टर वेद के कोई बच्चा नहीं था इसलिए वह हर समय बच्चे के लिए तड़पती रहती थी। वह मेरे साथ बहुत प्यार करती थी। चंदन साहब ने डॉक्टर वेद से सम्पर्क किया कि वह रिटायरमेंट में उनकी मदद करे। उसके घुटनों की बीमारी बताकर कि वह अधिक देर खड़े नहीं हो सकते या कोई अन्य बहाना खोजें। डॉक्टर वेद ईमानदार औरत थी, उसने स्पष्ट जवाब दे दिया। कोई गलत रिपोर्ट देने से उसके लिए भी खतरा पैदा हो सकता था। डॉक्टर वेद को इसका सिला यह मिला कि हर रात शराब पीकर चंदन साहब उसको गालियाँ बकने बैठ जाते। यद्यपि ये गालियाँ उस तक नहीं पहुँचती थीं, पर मुझे ये अवश्य चुभती थीं।

समय से पूर्व रिटायरमेंट के लिए चंदन साहब हाथ-पैर मारते रहे, पर बात नहीं बन पा रही थी। उनके विभाग ने चंदन साहब को चैकअप करवाने के लिए अपने व्यवसायिक डॉक्टर के पास भेजा। चंदन साहब के दिमाग में एक तरकीब आई। उन्होंने न जाने कौन-सी दवाई खाई जिसके खाने के बाद वह डॉक्टर के पास पहुँचकर बेहोश हो गए। ऊपर से ऐसी एक्टिंग की कि डॉक्टर को अपने बीमार होने का यकीन दिलवा दिया। इस प्रकार उनकी अर्जी आगे चल पड़ी, पर मंजूर होने में अभी समय लगना था।

इन्हीं दिनों मेरा भाई सुरजीत सिंह एकबार फिर इंग्लैंड आ गया। उसने हमारे पास से होते हुए जर्मनी जाना था। इन्हीं दिनों डॉक्टर रवि चौधरी भी इंग्लैंड आया हुआ था। रवि चौधरी सी.बी.आई. में अफ़सर था और हमारा पारिवारिक दोस्त भी था। रवि चौधरी ने ही हमें दिल्ली में प्लाट लेकर दिया था। जो पैसे चंदन साहब चंडीगढ़ वाला प्लाट बेचकर मेरे पास छोड़ आए थे, उनमें कुछ और मिलाकर मैंने रवि चौधरी की मदद से प्लाट खरीद लिया था। रवि चौधरी को हमने अपने घर खाने पर बुलाया। उसने अजीब-सा इंकसाफ़ किया कि मेरी भाभी जसविंदर के बच्चा होने वाला था। हम सब हैरान रह गए। जसविंदर के साथ मेरी भी फोन पर बातचीत होती रहती थी और मेरी माँ की भी, फिर हमें क्यों नहीं पता लगा था। सुरजीत सिंह से पूछा तो उसने भी कोई तसल्लीबख़्श उत्तर न दिया। मेरी माँ परेशान होने लगी। उसके घर पोता होने वाला हो और वह यहाँ लंदन में बैठी हो। हमने उसका उसी समय वापसी का टिकट तैयार करवा दिया। उसके लिए अच्छी बात यह हुई कि वह पोते के जन्म से एक सप्ताह पहले ही पहुँच गई थी।

सुरजीत सिंह अभी लंदन में ही था। हमारे पास ही रह रहा था। उसको आगे जर्मनी जाना था। चंदन साहब उसको बात-बात पर टोकने लगते। उसके साथ अजीब-सा व्यवहार करते। सुरजीत सिंह को यह बात अच्छी न लगती। वह खीझा-सा रहता। एक दिन भोजन करते हुए ऐसी बातों पर बहस छिड़ गई। सुरजीत सिंह ने कहा -

“भाई साहब, मैं इतना गया गुज़रा नहीं जितना आप समझे बैठे हो।”

“अगर इतना गया गुज़रा नहीं तो अभी तक ज़िन्दगी में कुछ किया क्यों नहीं ?”

इसी बात से बहस आगे बढ़ गई। चंदन साहब उठे और उंगली खड़ी करके बाहर की ओर इशारा करते हुए बोले -

“निकल मेरे घर से !”

मैं अवाक-सी चंदन साहब की ओर देखने लगी। वह मेरे भाई को घर से जाने के लिए कह रहे थे। यदि यह घर मेरा भी था तो मेरा भाई क्यों जाए, पर मैं कुछ भी करने योग्य नहीं थी। अमनदीप भी संयोग से उस दिन घर पर ही था। वह मेरे भाई को अपने फ्लैट में ले गया। मैं अंदर ही अंदर अमनदीप का धन्यवाद कर रही थी। एक रात सुरजीत सिंह अमनदीप के पास रहा और अगले दिन जर्मनी चला गया।

मेरे लिए यह सब असहनीय था। चंदन साहब स्वयं तो जल्दी ही सब कुछ भूल जाते और पहले जैसे हो जाते थे, लेकिन मैं कई दिन तक उस घटना की गिरफ्त में रहती।

इन्हीं दिनों मेरा पासपोर्ट स्थायी रूप से यहाँ रहने की मोहर लगकर आ गया। चंदन साहब के लिए इंडिया जाने के वास्ते एक और बाधा दूर हो गई। अब वह अपने महकमे से अर्ली-रिटायरमेंट की चिट्ठी की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक दिन अचानक मुझे उल्टियाँ आने लग पड़ीं। मेरी अजीब-सी हालत हो गई। मुझे लगा कि शायद मैं गर्भवती हो गई होऊँ। मैं खुश होने लगी। माँ बनने वाली भावनायें मेरे अंदर प्रबल होने लगीं। मैंने चंदन साहब को बताया, उनके तो चेहरे का रंग ही उड़ गया। मैं तो सोच रही थी कि वह खुश होंगे, पर वह तो जैसे उदासी की खाई में जा गिरे हों। हमने लैब में जाकर टैस्ट करवाया तो पोजिटिव निकला। माँ बनने का सपना हर स्त्री का होता है। माँ बनना तो कुदरत का करिश्मा होता है, इससे बड़ा सुख औरत के लिए कोई दूसरा होता ही नहीं। चंदन साहब दुखी मुँह से बोले -

“इस मुल्क में बच्चे पैदा करने का कोई फायदा नहीं। वे तुम्हारे कभी होते ही नहीं। तुझे याद नहीं मेरी कविता की पंक्तियाँ कि ‘सोचिया सी बनणगे ये लख़्त साडे जिगर जान, किस तरह दी अउध(वक़्त) आई वध रहे ने फासले’ । यह अपने अनुभव में से ही निकली हुई हैं। ये देख ले मेरे दोनों बच्चे कैसा व्यवहार करते हैं मेरे साथ। सो, मेरा विचार है कि हमें बच्चा नहीं लेना चाहिए।”

“चंदन जी, यह क्या कह रहे हो। बड़ी मुश्किल से तो मैं माँ बनी हूँ।”

“वह तो ठीक है, पर तेरी सेहत बहुत अच्छी नहीं है। देख, ये अभी हाल ही में स्मिता पाटिल की मौत हुई है। बच्चे के जन्म के समय उसके खून ही इतना बह गया कि डॉक्टर भी कुछ न कर सके। यदि तुझे कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा। मैं कहाँ जाऊँगा। और फिर, मुझे बच्चों से ज्यादा तेरी ज़रूरत है। हमारे बच्चे हमारी किताबें हैं, यही हमारा नाम बनाएँगी।” वह मेरा हाथ पकड़कर कहने लगे।

मैं भावुक हो गई। मीठी-मीठी बातें करके उन्होंने मुझे गर्भपात करवाने के लिए मना लिया। मैं भी उनकी बात को सही मानती हुई अपने आप को दलीलें देने लगीं कि उधर तो हम इंडिया जाने का प्रोग्राम बनाए बैठे हैं और इधर बच्चे का चक्कर शुरू हो गया। मैं आठ सप्ताह की गर्भवती थी। चंदन साहब शीघ्र से शीघ्र इस मुसीबत से पीछा छुड़वाना चाहते थे। उन्होंने प्राइवेट क्लीनिक का प्रबंध किया। प्राइवेट क्लीनिक वालों को भी हमारे फैमिली डॉक्टर वेद से इस काम के लिए मंजूरी चाहिए थी। हम डॉक्टर वेद की क्लीनिक में गए तो वह स्वयं छुट्टियाँ बिताने कहीं गई हुई थी। उसकी जगह कोई अन्य डॉक्टर हमें मिला। उसने हमें प्राइवेट क्लीनिक के लिए चिट्ठी दे दी। मेरा गर्भपात करवा दिया गया। जब पता चला कि जुड़वा बच्चे थे तो मुझे और अधिक शर्मिन्दगी होने लगी। मैं एक जान की नहीं, दो जानों की कातिल थी। फिर सोचा, ज़िन्दगी के जिन पलों, क्षणों ने मुझे मेरे आप से जोड़ना था, कुदरत की कायनात के साथ बात करने का अवसर प्रदान करना था, वही पलछिन मुझसे छीन लिए गए। दो छोटे जीवों की हत्या करवा कर मैं खाली हाथ, खाली झोली उदास-निराश लौट आई थी। यह मुझे एक पहले से विवाहित और दो बच्चों के बाप के पिता के साथ विवाह करवाने का इनाम मिला था। आज भी कोई कपड़ा सिलते हुए जब बच्चों के बारे में सोचती हूँ तो सुई मेरी उंगली के पोर में चुभ जाती है और कविता बनने लगती है।

अगले दिन ही डॉक्टर वेद भी छुट्टियों पर से वापस लौटकर आ गई। उसको मेरे गर्भपात करवाने का पता चला तो तुरंत उसका फोन आ गया। वह बोली -

“देविंदर, इतनी पढ़ी-लिखी होकर तूने यह क्या गलती की ? क्यों करवाया यह सब ?”

मेरे पास उसकी किसी बात का जवाब नहीं था। मुझे पता था कि उसके बच्चा नहीं था। बल्कि वह तो बच्चे के लिए तड़प रही थी। सो, जिसको ईश्वर ने यह खुशी दी थी, वह इसे गवां बैठी थी। डॉक्टर वेद ने फिर कहा -

“दो दो बच्चे ईश्वर ने दिए थे। एक बच्चा तो तेरे से मैं ही ले लेती।”

परंतु अब तो गर्भपात हो चुका था। सोचा, काश उस दिन सर्जरी में डॉक्टर वेद मिल जाती !

(जारी…)