बहीखाता - 22 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 22

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

22

साहित्य का अखाड़ा

जिस बात से मैं बहुत डरती थी, उससे बचाव हो गया। मुझे लगता था कि चंदन साहब सुरजीत सिंह के तीन हज़ार के उधार को लेकर शायद कोई विवाद खड़ा करें, पर उन्होंने नहीं किया। सुरजीत सिंह पैसे लेने के लिए अपने एक मित्र के पास जर्मनी चला गया। सुरजीत ने अपने मित्र से वो पैसे लाकर चंदन साहब को लौटा दिए। मैंने राहत की सांस ली।

अलका कभी-कभी ही घर आती थी, पर अब वह मुझसे कुछ नाराज़ रहने लगी थी। एकबार तो उसने टेलीफोन करके मुझे कह भी दिया था कि जब से मैं इस घर में आई हूँ, डैड अब उसको पहले की तरह प्यार नहीं करते। वह किस तरह का प्यार चाहती थी जो मेरे आने से उससे छिन गया था। मैं तो बल्कि चंदन साहब और अमनदीप दोनों को ही अलका की चिंता करते, उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखते ही देख रही थी और उनकी हर खुशी में शामिल हो रही थी। मैं मुँह से यद्यपि कुछ न कहती, पर मैं समझ अवश्य जाती थी। बेशक अमनदीप चंदन साहब के साथ ही रहता था और अलका कभी कभार आती थी, परंतु जब आती, दोनों पिता पुत्र उसकी सेवा में तत्पर हो जाते। फिर मेरे आने से क्या अंतर पड़ रहा था ? मैं इसको समझने का यत्न कर रही थी। मैंने यह बात इस ख़याल से चंदन साहब के साथ साझी की कि शायद कुछ किया जा सके, पर चंदन साहब ने अलका की सारी कहानी मुझे सुना दी और यह भी कहा कि मुझे अलका की कही बात की परवाह नहीं करनी चाहिए। मुझे सब अजीब लग रहा था, पर मैंने अधिक दख़ल देना उचित नहीं समझा क्योंकि अलका का गिला अपने डैड से था और पिता-पुत्री कभी भी रूठकर मान भी सकते थे।

चंदन साहब ने जॉब के साथ साथ घर से ही एक अन्य काम भी शुरु कर लिया था। यह काम था- अनुवाद, टाइप सैटिंग और प्रिंटिंग का। इंग्लैंड की काउंसिलों को आम लोगों तक विशेष जानकारी पहुँचानी होती थी। काउंसिल ही नहीं, स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग और अन्य बहुत सारे विभाग जानकारी भरे लीफलेट्स लोगों में बाँटते रहते थे। ये अंग्रेजी में ही नहीं हुआ करते थे, बल्कि भिन्न भिन्न भाषाओं में भी होते थे। क्योंकि पंजाबी बोलने-पढ़ने वाले बहुत सारे लोग इंग्लैंड में बसते थे, सो इन लीफलेट्स का पंजाबी में भी छापना ज़रूरी होता। पहले इन लीफलेट्स का पंजाबी में अनुवाद किया जाता, फिर इनकी टाइप सैटिंग की जाती और फिर ये छापे जाते। चंदन साहब ने बॉक्स रूम में सारी आवश्यक मशीनें लगा रखी थीं। उन्होंने मुझे सारा काम सिखा दिया। वह काम पर चले जाते। उनके वापस लौटने तक मैं अनुवाद करके टाइप सैटिंग कर देती। वह आकर प्रिंट कर लेते। उन्हें यह काम काउंसिल से किसी एजेंट के माध्यम से मिलता था। मैंने उनका यह सारा काम संभाल लिया था। मेरी अच्छी-खासी व्यस्तता हो गई थी।

चंदन साहब की एक खूबी यह थी कि वह जहाँ भी जाते, मुझे संग लेकर जाते। कोई साहित्यिक समारोह होता तो वह बड़े ठाठ से पहुँचते। मुझे भी लोगों से मिलना जुलना अच्छा लगता। इन्हीं दिनों हम एडम एंड ईव पब में अक्सर जाया करते थे। अब तक मैंने वाइन का गिलास लेना शुरू कर दिया था। मुझे इस तरह पब में बैठना भी पसंद था। एक दिन हम पब के लिए जाने लगे तो अमनदीप भी काम पर से लौट आया था। चंदन साहब कहने लगे -

“हम एडम एंड ईव में जा रहे हैं, चलेगा ?”

“हाँ, आप चलो, मैं चेंज करके आता हूँ।”

हम पब में जा बैठे। चंदन साहब काउंटर पर जाकर ड्रिंक ले आए। धीरे-धीरे सिप करते हम इधर-उधर की बातें भी करते जा रहे थे। वह रह रहकर घड़ी देखते और कहते -

“अमनदीप अभी तक नहीं आया। बहुत केयरलैस लड़का है ये !”

हमने एक और ड्रिंक ली। हमारी दूसरी ड्रिंक भी खत्म हो गई, पर अमनदीप अभी तक नहीं आया था। चंदन साहब का गुस्सा बढ़ने लगा। शायद वह उसके साथ कोई आवश्यक बात करना चाहते थे। करीब डेढ़ घंटा बैठकर हम उठ खड़े हुए। पब में हम इतना समय ही बैठा करते थे। हम घर पहुँचे तो चंदन साहब गुस्से में लाल-पीले हुए पड़े थे। ऐन उसी समय अमनदीप तैयार होकर बाहर जाने के लिए निकल रहा था। चंदन साहब उसको देखते ही गाली पर उतर आए। ऐसा गाली-गलौच या झगड़ा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कम से कम, बाप-बेटे में ऐसी लड़ाई की आस कभी नहीं रखी थी। मेरे परिवार में तो क्या मुहल्ले में भी पिता-पुत्र के ऐसे संबंध नहीं होंगे। वह तो लड़-झगड़कर ठीक हो गए, पर मैं कई दिन तक उखड़ी रही।

घर का साहित्यिक वातावरण मुझे बहुत अच्छा लगता था। कोई दोस्त आ जाता तो बहसें शुरू हो जातीं। अपनी अपनी रचनाओं को लेकर भी बातें होतीं। चंदन साहब ‘कंजकां’ उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहे थे, कितनी कितनी देर अपने उपन्यास की ही बातें करते रहते। अलका के जीवन में आए उतार-चढ़ाव की भी, जहाँ से उन्होंने इस उपन्यास को उठाया था।

मेरा बहुत सारा समय टाइप सैटिंग में निकल जाता। घर का काम तो अधिक होता नहीं था। अधिक से अधिक रायता डालना और फुलके सेक देना या कभी-कभी दाल बनाने का काम होता, पर इसका फैसला भी चंदन साहब के हाथ में होता। अमनदीप का काम सलाद काटने का होता था, यह बात अलग थी कि वह कभी कभी मीट भी बना लेता था। एक बात मुझे अच्छी यह लगती थी कि हम तीनों ही हर रोज़ रात का भोजन बढ़िया ढंग से डायनिंग टेबल पर मिलकर करते। लेकिन बहुत बार यही टेबल बहस और लड़ाई का अखाड़ा भी बन जाती। चंदन साहब किसी बहाने अमनदीप के साथ कोई न कोई पंगा डाल लेते लेकिन सुबह होते ही दोनों रात की लड़ाई भूल चुके होते। फिर भी, कभी कभी इस लड़ाई में साहित्य भी शामिल हो जाता। एक बार साहित्य के सिद्धांतों की बात करते करते उन्होंने माक्र्सवाद पर लंबा लेक्चर दे मारा। वहीं से बहस छिड़ गई। हँसी हँसी में ही माहौल गरम हो गया। चंदन साहब कहने लगे, “देविंदर, सिर्फ़ संरचनावाद से काम नहीं चलेगा, तुझे माक्र्सवाद भी पढ़ना पड़ेगा।” मैंने हँसते हुए कहा, “माक्र्सवाद पढ़े बगै़र ही मैंने पीएच.डी. तो नहीं कर ली है। ज़रा मेरा थीसिस पढ़कर देखो, फिर पता चलेगा कि माक्र्सवाद पढ़ रखा है या नहीं।” मेरे द्वारा इतना कहने की देर थी कि चंदन साहब गुस्से में आ गए। उन्होंने मेज़ पर ज़ोर से मुक्का मारा और मुझे वहीं छोड़कर ऊपर बैडरूम में चले गए। कुछ देर बाद मैं भी ऊपर चली गई। अभी बिस्तर पर लेटी ही थी कि चंदन साहब ने अपना सिहराना उठाया, एक कंबल लिया और नीचे अपने स्टडी रूम में चले गए। सारी रात वह वहीं सोये और मैंने सारी रात जागकर काटी। सवेरे तड़के ही काॅपी पैन उठाकर एक गीत लिखा, “इह रात कैसी बीती, कैसा है इह सवेरा, न बोल कोई तेरा, न गीत कोई मेरा...“ यह गीत मैं अक्सर ही महफ़िलों में सुनाया करती थी और बार बार दोस्तो की ओर से उसकी फरमाइश भी होती।

चंदन साहब की आदत थी कि रसोई का काम खुद करके ज्यादा खुश रहते, खास तौर पर मीट बनाने का काम। वह काम पर होते तो कई बार मेरा दिल करता कि बाहर हो आऊँ। घर के करीब ही दुकानें थीं, उनकी तरफ ही चक्कर लगा आऊँ। परंतु मेरी जेब में पैसे नहीं होते थे। चंदन साहब से मांगने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी। यह जो काम मैं करती थी, इसका चंदन साहब ने मुझे क्या देना था। मैं सोचने लगी कि यदि मुझे कोई नौकरी मिल जाए तो कम से कम मेरे पर्स में रखने के लिए कुछ तो हो। वैसे तो मेरी कोई अधिक ज़रूरत नहीं थी, पर दुकान पर गए हो तो किसी चीज़ के लिए मन कर ही आता है। एक दिन मैंने उनसे कहा -

“चंदन जी, मेरे लिए कोई काम ही तलाश दो।”

उन्होंने मेरी ओर गौर से देखा और बोले -

“तू किसी काम लायक नहीं है।”

“क्यों ?”

“अपना जिस्म देख, अपनी सेहत देख, अपने हाथ देख, मैनुअल काम तुझसे होगा नहीं।”

“कोई दूसरा हो।”

“तेरे लिए इस कंट्री में काम करना बहुत कठिन है।”

वे ऐसे कह रहे थे जैसे उन्हें मुझमें यकीन ही नहीं था कि मैं कोई काम कर सकती हूँ। उस वक्त मुझे दिल्ली में अपना कालेज और अपनी सहेलियाँ बहुत याद आते।

एकबार मुझे पता चला कि हैस्टन के गुरद्वारे में पंजाबी अध्यापिका की आवश्यकता है। मैं वहाँ गई। नौकरी मिल गई। सप्ताहांत पर कक्षाएँ लगती थीं, पर नाममात्र को पैसे देते थे। उतने तो आने जाने में ही खर्च हो जाते। मैं 21 वर्ष की थी जब कालेज में लेक्चरर लग गई थी। मेरी अच्छी खासी तनख्वाह थी और अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करती थी। पहले भी पैसे की तरफ से मुझे कोई तंगी नहीं आई थी, पर अब मैं बहुत तंग थी। हर समय इसका हल खोजने की कोशिश करती रहती। यदि कोई काम मिल जाता तो एक तो मेरे पास अपनी कमाई के पैसे होते और दूसरा, चंदन साहब को भी पता चल जाता कि मैं काम कर सकती हूँ। लेकिन मुझे कोई काम न मिला। मैं इसी निराशा में घुलती रही।

एक अन्य बात ने मुझे बहुत परेशान कर रखा था। वह यह थी कि घर में मेरी कोई भी मर्ज़ी नहीं चलती थी या मेरी किसी बात में सलाह ही नहीं पूछी जाती थी। रसोई में तो मेरा रोल बस रायता बना देने या फुलका सेक देने तक ही सीमित होता। मेरी पसंद, नापसंद की चंदन साहब को कोई फिक्र नहीं थी। नाश्ते, दोपहर के खाने या रात के खाने में क्या बनना है, यह उनके हाथ में ही होता। घर की शॉपिंग भी वही करते। कई बार मैं भी संग होती, पर वह मुझसे पूछते ही नहीं कि मुझे क्या चाहिए। मेरी कोई सहेली भी नहीं थी कि जिसके साथ मैं बात कर सकूँ। सभी उन्हीं के ही मित्र थे। उनके दोस्तों की बीवियों के साथ तो मैं अपने दिल की बात क्या करती। ऐसी स्थिति में मेरा दिल इंडिया जाने के लिए उतावला पड़ने लगा। परंतु इंडिया जाना भी इतना सरल नहीं था क्योंकि मुझे अभी इंग्लैंड में एक साल का वीज़ा ही मिला था। स्थायी वीज़ा एक वर्ष पूरा होने पर लगना था। एक वर्ष सितंबर में पूरा होना था।

एक दिन हम स्टोर में शॉपिंग करने गए। चंदन साहब ने मीट लिया, शराब ली, सिगरेटें लीं, घर की सफाई का सामान भी लिया। हम सब्ज़ियों वाले हिस्से में आए तो मुझे घीये दिखाई दिए। बहुत समय हो गया था घीये की सब्ज़ी खाये हुए। दिल्ली में तो फेरी वाला हर रोज़ आता था और हम प्रायः बनाते ही रहते थे। यहाँ बहुत सी सब्ज़ियाँ मिलती भी नहीं थीं। हालांकि शॉपिंग में चंदन साहब मेरी राय पूछने की ज़रूरत नहीं समझते थे, पर मैंने आगे बढ़कर एक घीया उठाया और बैग में रख शॉपिंग वाली ट्राली में रख दिया। चंदन साहब ने घीया देखा तो आग-बबूला हो गए और बोले -

“इसे क्यों रखा ?”

“सब्ज़ी बनायेंगे।”

“घीया खाने के लिए काम करना पड़ता है। इस मुल्क में खाली बैठकर घीये नहीं खाये जाते। यहाँ मीट सस्ता है और घीया महंगा है।”

कहते हुए उन्होंने घीया वापस रख दिया। मेरी अंतरात्मा रोने लगी, पर मैं चुप रही। कर भी क्या सकती थी। चंदन साहब का यह रूप देखकर मुझे आश्चर्य तो हुआ था, पर इस बात को व्यवहारिक तर्क में बदलने की बजाय मैंने इन पलों को कविता में कै़द करके अपना मन हल्का कर लिया। सोचा, ज़िन्दगी के सफ़र में यह बड़ा छोटा-सा हादसा था।

मैं अपने आप को चंदन साहब के साथ अभ्यस्त करने की कोशिश करती रहती थी। जैसे भी हालात होते, उन्हीं में रहने का यत्न करती। उनकी सिगरेटें, उनकी शराब, उनकी गालियाँ, उनकी पिता-पुत्र की लड़ाई, इस सबकी मैं अब अभ्यस्त हो गई थी। शायद ये बातें मेरी अंतरात्मा में कोई परिवर्तन भी ला रही थीं। अनदेखा यह सब मेरी मानसिकता में अंकित होता जा रहा था, पर मेरे अंदर घर का सपना सदैव ही करवटें लेता रहता और मैं इस सपने को बचाये रखने के लिए इस आस में सब सह जाती कि वक्त के साथ शायद सब ठीक हो जाएगा।

सर्दी का मौसम बीता और गरमी के दिन आ गए। मौसम कुछ ठीक रहने लगा। चंदन साहब ने एक बात अच्छी की कि मेरी माँ को इंडिया से बुला लिया। इससे मेरा मन कुछ स्थिर हो गया।

इन्हीं दिनों एक अन्य हादसा घटित हुआ। एक शाम चंदन साहब और अमनदीप के बीच किसी बात पर बहस हो गई। वह बहस लंबी होती चली गई। इतनी लंबी, जिसका परिणाम यह निकला कि चंदन साहब के गुस्से की कोई सीमा ही न रही। एकदम बोले -

“अगर तेरे में ज़रा भी गैरत है तो इसी वक्त घर से निकल जा।”

अमनदीप ने कहा, “डैड प्लीज़, ऐसा न करो। मैं अभी अभी जॉब पर लगा हूँ और साथ-साथ पढ़ाई कर रहा हूँ।” चंदन साहब बोले, “मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं। तुझे एक हफ्ते का वक्त देता हूँ, अपना कोई ठिकाना ढूँढ़ ले।” उस रात तो अमनदीप सो गया, पर अगले दिन से ही अमनदीप ने किराये पर मकान खोजना शुरू कर दिया। और एक दिन अपना सामान इकट्ठा करके घर से चला गया। मैं और मेरी माँ यह सब देखती रह गईं। मुझे यह चिंता सता रही थी कि लोग कहेंगे, सौतेली ने आकर बेटे को घर से निकलवा दिया। यह बात मैंने चंदन साहब से साझी भी की, पर चंदन साहब के आगे किसकी मजाल कि कोई चूँ भी कर जाए। मैं कुछ न कर सकी। मन ही मन अफ़सोस करने से अधिक मुझसे कुछ न हो सका। हाँ, मेरी आत्मिक शक्ति को एक झटका अवश्य लगा और मैंने उस झटके की बदौलत रिस रही अपनी शक्ति को हिम्मत करके इकट्ठा करने का यत्न किया और पिता-पुत्र के इस अजीब-से रिश्ते को अंदर ही अंदर समझने लगी। यद्यपि अमनदीप के साथ मेरी सहानुभूति पैदा हुई लेकिन परिवार में अपने अस्तित्व की स्थिति को भाँपते हुए मैंने चुप रहने में ही अपनी बेहतरी समझी।

अगली सुबह उठे, पता नहीं मन में क्या आया, अमनदीप को फोन किया। पता चला, उसने कमरा किराये पर ले लिया था। हम उससे कई बार उस कमरे में मिलने गए। एक दिन चंदन साहब के मन में कुछ दया उमड़ी, उन्हें शायद यह लगा कि लड़के के साथ कुछ ज्यादती हो गई है। कुछ दिनों में ही एक दो बेडरूम का फ्लैट उन्होंने अमनदीप को ले दिया। लेकिन अमनदीप के वेतन का अधिकांश हिस्सा मार्टगेज की किस्त में निकल जाता था और उसका गुज़ारा कठिन हो रहा था। लेकिन चंदन साहब तो पता नहीं उसको कौन-सा सबक सिखाने पर तुले हुए थे। कैसा बाप था कि अपनी औलाद से भी बदला लेने पर आ जाता था।

ख़ैर, ज़िन्दगी चल रही थी। जुलाई का महीना था, पता लगा, डॉ. हरिभजन सिंह इंग्लैंड आ रहे हैं। हम दोनों बहुत खुश थे। डॉक्टर साहब हमारे पास रहेंगे, इस विचार से हम दोनों गदगद हो रहे थे। डॉक्टर साहब की पत्नी को भी संग आना था। स्पांसरशिप चंदन साहब ने भेजी थी लेकिन वे एयरपोर्ट से सीधे तरसेम नीलगिरी के घर चले गए। हमें बड़ा अजीब लगा। एकबार तो सोचा कि डॉक्टर साहब से पूछा जाए, लेकिन फिर सोचा कि चलो कोई बात नहीं। अभी तो डॉक्टर साहब काफ़ी समय यहाँ रहेंगे, हमारे पास भी आ जाएँगे। हुआ भी इसी प्रकार। एक दिन डॉक्टर साहब का खुद ही फोन आ गया कि वे हमारे पास भी रहना चाहते हैं। चंदन साहब उन्हें स्वयं जाकर ले आए। घर का वातावरण और अधिक साहित्यिक हो गया। एक शाम गार्डन पार्टी रखी गई जिसमें कई पंजाबी लेखक आए जिनमें से ज्ञानी दर्शन सिंह, अवतार जंडियालवी, तरसेम नीलगिरी, साथी लुधियानवी और यश साथी आदि शामिल हुए।

अगली सवेर डायनिंग टेबल पर चाय पीते हुए चंदन साहब डॉक्टर साहब से पूछ बैठे -

“डॉक्टर साहब, आपकी समीक्षा दृष्टि कौन सी है ?”

डॉक्टर साहब ने मेरी ओर संकेत करते हुए कहा -

“मेरी समीक्षा दृष्टि वो बैठी है।”

बस, फिर क्या था, चंदन साहब के गुस्से का पारावार न रहा और उन्होंने इस बात का बदला लेने की ठान ली। कई दिन कई रातें परेशान रहे। आखि़र, डॉक्टर साहब के जन्म दिन अर्थात 18 अगस्त को एक साहित्यिक कार्यक्रम रखा गया। चंदन साहब ने डॉक्टर साहब की समूची आलोचना पर पेपर तैयार किया जिसमें उनकी सारी आलोचना पर काटा फेरते हुए यह सिद्ध करने का यत्न किया कि यह सारी आलोचना अंग्रेजी की किताबों का अनुवाद है। साथ ही, उनके जन्म दिन का केक काटा गया। मुझे लगा, चंदन साहब ने साहित्यिक मिलनी को फिर एक अखाड़े में बदल दिया था। लेकिन डॉक्टर साहब अपने स्वभाव के अनुसार शांत रहे। बल्कि उन्होंने कहा कि उनका समय बीत गया है और अब नौजवानों को आगे आना चाहिए।

उसी शाम चंदन साहब ने अपने घर पर भी एक पार्टी रखी हुई थी। डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी तो थे ही, अन्य लेखक मित्र भी शामिल थे। डॉक्टर साहब का अपमान करके उनकी तसल्ली नहीं हुई थी। ज़रा-से नशे में आकर चंदन साहब ने डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी को अपने घर से निकल जाने का हुक्म सुना दिया। बस यहीं पर नहीं हुई। वह खुद उन्हें उनके सामान सहित अपनी कार में ईश्वर चित्रकार की बेटी के घर छोड़कर आए। मेरे लिए वह दिन सबसे बड़ी शर्मिन्दगी का दिन था। मेरे गुरू का इतना निरादर मेरे लिए असहय था, पर मैं यह सब खड़ी-खड़ी देखती रही, कुछ कर न सकी। मैं और मेरी माँ एक दूसरे की ओर बेबस नज़रों से देख रही थीं। पर किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि कोई चंदन साहब को कुछ कह सके। मैंने तो यह देखकर ही सब्र कर लिया था कि यदि चंदन साहब अपने पुत्र को घर से निकाल सकते हैं तो फिर किसी के साथ कुछ भी कर सकते हैं। मेरी कमज़ोरी मेरी मजबूरी बनती जा रही थी और मैं अभी इतनी जल्दी घर के सपने को बर्बाद होते नहीं देखना चाहती थी।

(जारी…)