कच्चा गोश्त - 2 - अंतिम भाग Zakia Zubairi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कच्चा गोश्त - 2 - अंतिम भाग

कच्चा गोश्त

ज़किया ज़ुबैरी

(2)

यही सब सोचती मीना घर की ओर चली जा रही थी कि सामने से सब्बो मटकने की कोशिश कर रही थी। मीना के भीतर उसे देख कर एक उबाल सा उठा। लगता था प्रकृति जैसे उसकी गर्दन बनाना ही भूल गई थी। धड़ लम्बा और छोटी टांगें। कंधे को एक तरफ़ झुकाए हुए थी। वह अपनी छोटी छोटी टांगों से मीना की तरफ़ लगभग भागी चली आ रही थी।... उसे पहले से ही मालूम था कि सरपंच आज मदन मोहन की मां को क्या फ़ैसला सुनाने वाला है। सारा गांव उसे बुद्दू समझता था, मगर वह अपने मामले में पूरी काइयां थी।

मीना ने जल्दी से पगडंडी बदल खेत खेत होती घर की ओर तेज़ तेज़ क़दमों से चलने लगी। सोचती जा रही थी कि जबसे सयानी हुई है बृज बिहारी को सर पर सवार पाया है।

बृजबिहारी अपने मां बाप की दर्जन भर बच्चों में से एक था। अब तो उसे अपना नम्बर भी ठीक से याद नहीं। बाप बचपन में ही चल बसा था। मां ने अकेले ही पालन पोषण किया था। बचपन से ही बृजबिहारी को पंचायत लगाने का शौक़ था। बातें ख़ूब बघारनी आती थीं। गाना-बजाना, खाना-पीना सभी तरह के शौक़ थे। उसने एक सेना बना रखी थी जिसका सेनापति बन वह हुक्म चलाया करता। जो भी उसका हुक्म नहीं मानता उसे बृजबिहारी की डांट मिलती। छोटी सी उम्र में ही बृजबिहारी अच्छा ख़ासा दादा बन गया था। अब वह अपनी मां की डांट की परवाह भी कहां करता था।

अब लूटपाट भी बृजबिहारी की गतिविधियों का हिस्सा बन गई। खेतों, खलिहानों, बाग़ों और घरों से जो चाहता उठवा लेता। न जाने क्यों सब उसका कहा सुनते और मानते – उसकी श्याम छवि में शायद कुछ ऐसा आकर्षण होगा कि वह किसी से भी अपनी बात मनवा लेता। उसकी ज़बान में कुछ ऐसा जादू था कि वह अपने ग़लत कामों को भी सही साबित कर लेता। गांव के बड़े बूढ़े तक उसकी चक्करबाज़ी के जाल में फंस जाते। अपनी बातचीत की इसी तेज़ी के चलते नौजवानों का सहारा लेकर गांव का सरपंच बन बैठा। गांव के सभी क़ायदे कानून पीछे रह गये कि किसी बड़े बुज़ुर्ग को ही सरपंच होना चाहिये। लोकतंत्र में गुंडे बदमाश बहुत काम आते हैं। पंचायत के चुनावों में बस वही वोट डालने जा पाए जिन्हें बृजबिहारी के गुण्डों ने जाने दिया। उसके बाद से आजतक कोई भी उसे सरपंच की गद्दी से हटा नहीं पाया। गांव के बुज़ुर्ग कभी कभी सर जोड़ कर बैठते और गांव के अच्छे दिनों को याद करके आहें भरते। और फिर अपने बूढ़े शरीर को घसीटते हुए घर की ओर जाती हुई पगडण्डियों में गुम हो जाते। जब कभी किसी ने बृजबिहारी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, उसकी ऐसी बेइज़्ज़ती होती कि सामने वाला शर्म से मर मर जाता। सच बोलने वाला मुजरिम बन जाता और गुनाहगार बृजबिहारी अपनी राजगद्दी पर बेशर्म मुस्कुराहट बिखेरता रहता।

उसकी इसी बेशर्मी ने सब्बो तक को न छोड़ा था। शराब के नशे में शब्बो भी ख़ूबसूरत लगती होगी, तभी तो एक दिन गांव की दाई को बुला कर सब्बो को उसके हवाले करते हुए कहा, “देख दाई अम्मां! यह गांव की छोरियां कहां कहां से सामान उठा लाती हैं! अब मैं किन किन बातों का ख़्याल रख सकता हूं।”

सब्बो सब सुन रही थी। ख़ामोशी से दाई अम्मां के पीछे पीछे चली गई। मगर चार दिन बाद ही लौट आई। अब वह भीगी बिल्ली नहीं घायल शेरनी लग रही थी। गांव वालों के सामने सरपंच की लम्बी नाक काटने को तैयार। वह चिल्लाए जा रही थी, “सरपंच जी तुम तो गांव वालों के माई बाप हो। अब इस अबला को अपनी पत्नी बनाओ। भला इस अभागन से अब कौन शादी करेगा ? ”

सरपंच घबरा गया। हमेशा एक वार से दो काम निकालने वाला बृजबिहारी लगभग स्तब्ध चकित था। एक लम्बे अर्से बाद उसने अपने आपको मजबूर महसूस किया था। हर परेशान औरत से चुंगी वसूल करता था। फिर मामले की तह तक पहुंच कर ही रुकता। मगर यह सब्बो तो पूरी तत्तैया निकली। जिस्म पर चिपक कर ख़ून चूसने लगी। मगर बृजबिहारी ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उसके दिमाग़ मे एक तरकीब आई और होटों पर मुस्कुराहट। सामने दिखाई दिया मिट्टी का माधो – मदन मोहन ! अरे दिमाग़ में पहले यह क्यों नहीं आया ? क़ुरबानी का बकरा सामने खड़ा है और सरपंच परेशान ! यह ज़रूर बात मान जाएगा और सब्बो से शादी कर लेगा। यही सोच कर उसने मीना से सब्बो की शादी की बात चलाई थी।

और मीना इस शादी की बात सुन पीली पड़ गई थी। चुप ! कोई जवाब नहीं। सब्बो बेचैन – बृजबिहारी के इर्द गिर्द भिनभिना रही थी। पहली बार बृजबिहारी की कमज़ोरी उसके हाथ लगी थी। मगर जब ब्रिजबिहारी ने मदन मोहन के साथ शादी की रिश्वत दी तो सब्बो खिल उठी। उसकी मर्दानगी को वह हमेशा ही ललचाई नज़रों से निहारा करती थी। उसे लगा कि अब तो भाग्य खुल गये। सारे गांव नाची नाची फिरी। न्यौता भी आप ही बांटना शुरू कर दिया।

सब्बो की छोटी बहन नकटो ने जब सब्बो की यह आन बान देखी तो वह भी घुस गई सरपंच जी की सेवा करने। ऐसी घुसी की कई दिनों तक बाहर ही नहीं निकली। कुछ गांव वाले बातें भी बनाने लगे थे कि आख़िर यह सब क्या हो रहा है। मगर ऐसे भी थे जो सरपंच को परमेश्वर का रूप मानते। नकटो उनके हिसाब से पुण्य कमा रही थी। सरपंच को जब कोई नया शिकार मिलता, तो बस ख़ुद ही पकाता और ख़ुद ही खाता। वैसे कभी कभी कुछ बचा खुचा अपने उन साथियो के सामने भी फेंक देता जो मुंह से लार टपकाते शिकार को निहारते रहते। और फिर साथियों पर रौब गांठता, “भाई हम अकेले कभी नहीं खा सकते। बांट कर खाने का मज़ा ही अलग है। ”

सब कुछ समझते हुए भी साथी लोग चुप रह जाते। ऐसा बहुत बार होता कि कोई नई लड़की या औरत दिखाई देती और बृजबिहारी तीन चार या अधिक दिनों के लिये अपने कमरे में बंद हो जाता। और फिर जब बाहर आता तो पंचायत लगा कर बैठ जाता। ऐसा चीख़ता चिंघाड़ता जैसे बाहर बैठे रातों दिन काम करने वाले तो ऐश कर रहे थे और वह नकटो जैसी किसी के साथ बंद कमरे में उसकी टूटी नाक गढ़ रहा है। सभी साथी सब कुछ समझते थे मगर बस अपनी भाग्य रेखाओं से नाराज़गी व्यक्त कर लेते।

जब गांव वालों तक ख़बर पहुंची कि बृजबिहारी मदन मोहन का विवाह सब्बो के साथ करवाने पर तुला हुआ है तो वे भौंचक्के रह गये। क्या अन्याय है ! कितना ज़ुल्म है ? बेचारे मदन मोहन ने ऐसा कौन सा पाप कर दिया था जिसकी इतनी बड़ी सज़ा उसको दी जा रही है। कितनी सेवा करता है बेचारा सरपंच जी की और इसका यह बदला !

मीना अपने बेटे के लिये गांव भर से ख़ुशामद करती फिरी। उसके बेटे को सरपंच की हवस की भेंट चढ़ाया जा रहा था। कोई तो उन पर दया करके बृजबिहारी से बात करे। सब्बो से शादी की ख़बर सुन कर मदन मोहन जैसे मनो बोझ के नीचे दब गया था। मगर वहां तो सब बृजबिहारी के क्रोध से डरे हुए थे। इंसाफ़ मांगे तो कौन ? सब्बो के अतिरिक्त भला किसमें दम था कि बृजबिहारी के विरुद्ध आवाज़ उठा सके। भला वह क्यों कुछ कहती। उसके ही तो मन की कर रहे थे सरपंच महाशय। वह कब से अपनी छोटी छोटी धंसी हुई आंखें लगाए हुए बैठी थी। वह अपने होने वाले विवाह के लिये ख़ुद ही कभी दर्ज़ी के पास पहुंच जाती तो कभी रंगरेज़ के पास।

उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि कोई भी उसकी ख़ुशी में शामिल होने को तैयार नहीं हो रहा था। सब मदन मोहन के शोक में संतप्त थे। सबके मुंह पर एक ही बात – बेचारा बेमौत ही मारा जाएगा। सब्बो जब ख़ुशी में दांत निपोरती तो पायोरिया से ग्रस्त मसूढ़े पूरी फ़िज़ां में बदबू फैला देते। मगर उसे क्या फ़र्क पड़ता । वह हर वक़्त गुनगुनाती और ठुमक ठुमक इधर से उधर फुदकती रहती। सुनार के पास जाकर माथे का टीका अपनी छोटी सी पेशानी पर सजा कर देखती। घुंघराले काले बाल छप्पर की तरह चेहरे के चारों तरफ़ छा जाते। छोटी गर्दन, तंग पेशानी, बाहर को निकले दांत जैसे डारविन की थ्योरी का शाहकार मालूम होती थी।

मदन मोहन अभी तक कुछ समझ नहीं पा रहा था। सारी उम्र गधा बन कर सेवा की सरपंच की। बाप समान माना। कभी कभी अपने मन को समझाने लगता कि सरपंच भी उसे प्यार करता है। नहाने के लिये ख़ुश्बुदार साबुन और साल भर में दो जोड़े कपड़े भी लेकर देता है। और आज तो सरपंच ने बहुत से नये कपड़े बनवा कर दिये हैं। नया जूता भी। जी चाहता है कि इसी नये जूते से सरपंच की सेवा करे। अब तो शादी का दिन सिर पर खड़ा है।

दुल्हन बनी सब्बो के लिये समय काटना मुश्किल हो रहा था। वह बेचैन थी मदन मोहन को दुल्हे के रूप में देखने को। पंडित जी ने पूजा शुरू कर दी। मदन मोहन को आवाज़ दी। मगर वह घर में होता तो आता ना। किसी ने बताया कि उसने मदन मोहन को शाम के समय बरगद वाले मंदिर की तरफ़ जाते देखा था। एक एक कर सभी लोग उठ कर घरों को वापिस चलने लगे।

अब सब्बो भी थकने लगी थी। बृजबिहारी भी अभी तक नहीं पहुंचे थे। सब्बो ने अपने दुल्हन के परिधान की चिंता नहीं की... बस उठी और चल दी सरपंच के घर की ओर।

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