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कच्चा गोश्त - 1

कच्चा गोश्त

ज़किया ज़ुबैरी

(1)

बित्ते भर का क़द और दस गिरह लम्बी ज़बान!... और जब यह ज़बान कतरनी की भांति चलती तो बृज बिहारी बहादुर भी बगलें झांकते दिखाई देते। भिड़ के छत्ते को छेड़ने से पहले सोचना चाहिए था न कि पंचायत के सरपंच बने बैठे हैं। और दबदबा ऐसा कि परिंदा भी पर मारते डरे।

फिर मदन मोहन बेचारे की क्या मजाल कि उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पलक भी झपकाए। सब्बो तो बालिश्त भर की तत्तैया बनी हर समय भिनभिनाती फिरती और जहां होता बैठ कर डंक मार कर उड़ जाती।

मदन मोहन चार बहनों पर एक भाई। ऊपर वाले ने मिज़ाज और ज़हन भी ख़ूब दिया था। अभी स्कूल में ही था कि सरपंच बहादुर ने होनहार बिरवा के चिकने पात भांप लिए थे और उसकी मां से कह कर उसको घर पर बुलाना शुरू कर दिया था। घर के छोटे छोटे कामों के साथ साथ कुछ लिखत पढ़त के काम भी करवा लिया करते थे।

शुरू शुरू में तो मदन मोहन को भी भला मालूम होता। काम कम था और खाना अच्छा मिलता था, मगर कुछ ही दिनों में उसका हाल भी एक स्विस चाकू जैसा हो गया। स्विस चाकू की ख़ूबी भी ऐसी ही होती है कि कहने को तो चाकू होता है मगर खोलिए तो उसमें दसियो काम करने के पुर्ज़े निकल आते हैं – कैंची, स्टेपलर, इंच-टेप, नाख़ून घिसने की रेती और टूथ पिक आदि आदि। इसी तरह बेचारा मदन मोहन इस छोटी आयु से ही स्विस चाकू बन गया था।

उसके कामों में शामिल था बृज बिहारी के मोटे बदन को दबाना, मालिश करना, कपड़े धोना, इस्त्री करना, खाना खिलाना; नहाते वक़्त पीठ से मल मल कर मैल छुड़ाना; साइकिल और इक्के पर बैठा कर घुमाने और सैर को ले जाना; लिखाई पढ़ाई का काम करना; हिसाब किताब दिखाना; रोज़ सुबह अख़बार पढ़कर सुनाना और ख़बरों की ऊंचनीच समझाना।

बृज बिहारी बैठक में आते तो अख़बार मुंह के सामने ऐसा ताने बैठे रहते जैसे पूरा अख़बार आज ही चाट डालेंगे। या फिर हो सकता है कि अपनी प्रजा से मुंह छिपाने का ही कोई तरीक़ा हो। गांव वालों पर शेख़ी बघारते की पूरा अख़बार पढ़ कर पूरी दुनिया की ख़बर रखता हूं और गांव वालों के सामने पूरे रौब से पूछते, “मदन मोहन, तुझे पढ़ना लिखना किसने सिखाया? ”

मदन मोहन बेचारा अपनी गम्भीर दबी आवाज़ में तोते की तरह रटे हुए अंदाज़ में जवाब देता, “सरपंच जी आपने। आपने ही लिखना पढ़ना सिखाया है।” यह जवाब देकर पैर के अंगूठे से ज़मीन पर लिखने लगता और सोचता कि मैं कॉलिज में पढ़ रहा हूं या फिर सरपंच जी से? फिर अपने आप को समझाते हुए सोचता कि किताबी शिक्षा से कहीं बढ़ कर होती है अमली तालीम।

बस इतना सोच कर ही मदन मोहन कांप कांप जाता कि कहीं बृज बिहारी उसके विचारों को ताड़ न जाएं। सरपंच ने गांव के भोले भाले वासियों के मन में एक अजब सा डर बैठा रखा था कि जिसके मन में जो भी विचार उठता है वह सरपंच की पोथी में पहले से ही लिखा होता है। हर गांववासी सरपंच को भगवान का स्वरूप ही मानता। इसीलिये कई बार चाहते हुए भी बेचारे गांव वाले बृज बिहारी के विरुद्द कभी एक लफ़्ज़ भी नहीं निकाल पाते। वैसे सच यह भी है कि जिस किसी ने सरपंच के विरुद्द कुछ भी बोला, उस पर अचानक कुछ ऐसा घटित हो जाता कि वह अचानक लापता हो जाता और कुछ ही दिनों में लोग उसे भूल भी जाते। गांव वालों के डर का आनंद बृज बिहारी मंद मंद मुस्कुरा कर उठाता।

मदन मोहन के मन में कभी कभी यह सवाल भी सिर उठाता कि पिता जी वापिस क्यों नहीं आ जाते? अगर वे आ जाते तो सरपंच जी का काम संभाल लेते और वह तसल्ली से पढ़ाई कर पाता। उसे पढ़ने का बहुत शौक़ था मगर बृज बिहारी इस बात का ख़्याल रखता था कि कोई इतना न पढ़ जाए कि उसके सामने वह स्वयं अनपढ़ लगने लगे।

मदन मोहन के पिता जगमोहन वर्षों पहले फ़ौज में भर्ती हो गये थे। उनकी पोस्टिंग कश्मीर में हो गई और वे वहां आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ने चले गये। उन्हें कहां पता था कि वे अपने बेटे को बृज बिहारी के आतंक के साए में छोड़ कर जा रहे हैं। जाते हुए अपने पुत्र को समझा भी गए थे कि हमेशा बृज बिहारी को अपना बाप समझे। गांव का सरपंच बाप-बराबर जो होता है।

आज मदन मोहन को बाप नाम से चिढ़ होने लगी है। वह समझता था कि बाप कंधों पर बैठा कर खेतों को सैर करवाता है; अगर गांव के शरारती लड़के मारने को दौड़ें तो बाप के पीछे छिपा जा सकता है; बाप के साथ कामों में हाथ बंटाया जाता है और फिर हंसते खेलते अपने बाप से कलको स्वयं बाप बनने का ज्ञान पा लेते हैं।

यहां बृज बिहारी जो प्रजा का बाप बना बैठा था, उसमें सब कुछ मौजूद था बस बाप के सिवा। फिर भी मदन मोहन इस सोच को अपने दिमाग़ से एक झटके में उतार फेंकता; रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो जाता। उसे अपने पर हैरानी भी होती कि उसे बृज बिहारी से कुछ लगाव सा भी होने लगा।

दुनियां की ऊंचनीच पर बैठा आंसू बहा रहा था मदन मोहन जब डाकिये ने आकर उसे एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। नाम उसी का पता उसी का – आज तक कभी किसी ने उसे चिट्ठी नहीं लिखी – फिर यह ख़त? कौन भेज सकता है उसे? लगभग बच्चों की तरह ख़ुशी हुई उसे। ख़त खोला। सबसे पहले ख़त की आख़री लाइन पढ़ी कि भेजने वाला कौन है – तुम सब का पिता जगमोहन! अब आंसुओं को कौन रोकता। बहने लगे। सुरक्षा का अहसास जाग उठा। भागा भागा मां के पास पहुंचा क्योंकि बचपन से अपनी हर ख़ुशी मां के साथ बांटता, मगर अपने ग़म केवल अपनी तन्हाई के हवाले कर देता। मां ने भी चिट्ठी की सुनी तो कह उठी, “चिट्ठी! सुना बेटा।”

कश्मीर के हालात, ख़ून ग़ारत, गोला बारूद, विधवाओं की सिसकियां और आतंकवादी – सभी कुछ मौजूद था उस चिट्ठी में। “तुम सब की बहुत याद आती है। यहां आकर बहुत बड़ी ग़लती कर बैठा। छुट्टी तक नहीं मिलती। .... सच तो यह है कि वहां भी डरता था और यहां भी डर! न जाने कभी डर से निजात मिलेगी या नहीं।... न जाने मुझ जैसे लोग पैदा ही क्यों होते हैं। अक़्ल पर पत्थार पड़े थे कि पेट की आग बुझाने के लिये आग में ही कूद पड़ा। मोहन बेटा, तू अपनी पढ़ाई दिल लगा कर करना। और हां, मेरे पीछे सरपंच को ही अपना मांबाप समझना।

मोहन की अम्मा चिट्ठी को हाथ में लिये उदास ही बैठी रही। सोचती रही उसका पति कितना भोला है। कहता है – सरपंच पिता समान है। अगर सरपंच बाप समान है तो फिर भला मुझ से ऐसी बातें कैसे कह लेता है। अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात है – मीना को बुलवा भेजा और हुक्म दिया कि ‘मदन मोहन सयाना हो गया है, अब इसका ब्याह कर डाल। घर में बहू आ जाएगी तो मेरा भी भला होगा; बुढ़ापे में काम आएगी।’

मीना से सिर झुका कर कहा था, “सिमी तो अभी पढ़ रही है। ब्याह के लिये कमसिन भी है।” बृजबिहारी ने झटके से उठकर बैठते हुए कहा, “बहू तो मैने ढूंढ ली है।”

“सरपंच जी, कौन है वो?”

“अरे भाई सब्बो! सब्बो!.. अपनी सब्बो।” बृजबिहारी ने अपना निर्णय सुना दिया। मीना कभी सरपंच जी को देखती तो कभी ज़मीन को अपने पांव के अंगूठे से कुरदने लगती। हकबका सी गई।...ज़मीन भुरभुरी सी महसूस होने लगी...सब्बो!... उससे तो शायद गांव का कुत्ता भी शादी न करे। आखिर जानवर भी तो अपनी पसन्द से मुंह लगावे है! सब्बो तो किसी और ही दुनिया से आई लगती है।

“तुमने सुना नहीं मीना?... मैं कुछ कह रहा हूं।”

मीना समझ नहीं पा रही थी कि बृज बिहारी आख़िर क्यों उसके पढ़े लिखे गबरू जवान बेटे की बलि मांग रहा है।

“ये बात अपने दिमाग में बैठा लो तुम। मदन मोहन का ब्याह सब्बो से ही होगा। चल अब जा कर ब्याह की तैयारी कर। ख़र्चा पानी मुझसे मांग लेना।... और हां, सुन, अब तू भी अपने बारे में सोचना शुरू कर। कब तक जगमोहन की राह तकती रहेगी? अरे लड़ाई में जाकर कभी कोई वापिस आया है जो जगमोहन आएगा।... तुझे महसूस नहीं होता कि तेरा ये संदली बदन कितना प्यासा है। इसकी प्यास बुझा दे तूं अब।” मीना नज़रें झुकाए हमेशा की तरह अन्जान बन गई। जवाब देने से डरती थी कि सरपंच जी के मुंह कैसे लगे। अकेली औरत यहां हवस के युद्धस्थल में अपनी लड़ाई लड़ रही थी। सोचती है... काश! हम औरतें भी अपने पतियों के संग ही लड़ने मरने चली जाया करतीं। अपने सुहाग की सेवा करतीं पतियों के साथ ही साथ जान दे देतीं। कम से कम गांव वाले सरपंचनुमा गिद्धों से बचाव हो जाता। पति तो चले जाते हैं अपने देशवासियों को आतंकवादियों की गोलियों से बचाने। और यहां गिद्धों के आतंक से अपनी आबरू बचाती लड़ती फिरती हैं उनकी औरतें जिन्हें ये गिद्ध केवल कच्चा गोश्त समझ हड़प लेना चाहते हैं।

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