कौआ मुँडेर पर श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कौआ मुँडेर पर


कौआ मुँडेर पर

लेखिका : श्रुत कीर्ति अग्रवाल

मुँडेर पर कौआ काँए-काँए किये जा रहा था। मन अनसा गया उनका... चुप हो जा नासपीटे, अब नहीं अच्छा लगता किसी का आना-जाना। आज कल तो वो अपनी जिंदगी का लेखा-जोखा ले कर बैठी हुइ हैं कि क्या ठीक किया और क्या गलतियाँ कीं। छोटी उमर में ब्याह कर आईं और जान लगाकर सास ससुर , नन्द देवर की सेवा में जुट गईं। जो अपने आप को कभी कोई अहमियत नहीं दी तो भगवान ने भी बड़ाई प्रशंसा देने में कभी कोई कसर नहीं रखी।
फिर समय बदला कि धीरे-धीरे वो घर के लोग रिश्तेदार में बदल गए और अपने दो बेटे जवान होने लगे। फिर एक वो भी दौर था कि पति, जिनको वो राजा बाबू पुकारती थीं, हमेशा दोस्त यारों से घिरे रहते, हर समय लोगों का आना जाना लगा रहता... और वो रोज नये नये व्यंजन बना कर सबके सामने पेश करती रहतीं... लोगों के मुँह उनकी बड़ाई करते न थकते। पैसों को तो राजा बाबू ने कभी अहमियत दी ही नहीं... सबकी मदद भी खूब की और नाम भी खूब कमाया। ऐसे शानोशौकत वाले अपवे राजा बाबू को वो भला कुछ करने से क्यों रोकतीं? उन दिनों कोई उन्हे अन्नपूर्णा पुकारता था तो कोई शारदे माँ....
इतना सारा प्यार , स्नेह , आदर मान कमाने के बावजूद आज अपना आँचल खाली-खाली सा क्यों लगने लगा है? कैसी करवट ली समय ने इसबार कि कोठी बेचकर यहाँ नये शहर में आकर रहना पड़ा.. कि दोनों बेटे पढ-लिख कर बाहर रहने लगे और अब किसी के पास बूढे-बुढिया के लिये समय नहीं है... कि पिछले दिनों राजाबाबू को पैरालिसिस की बीमारी हो गई और इन नई परिस्थितियों में न वह डाक्टर अस्पताल सँभाल पा रही हैं न रूपये-पैसों का हिसाब-किताब ही उनकी समझ में आता है। जिस पति ने कभी उनकी आँख में एक आँसू बर्दाश्त नहीं किया अब निष्ठुर हो कर सुबह शाम रूला रहा है।
......लगता है आज कौए ने झूठ नहीं बोला था .... ये कौन नई उमर की दुबली-पतली सी लड़की दरवाजे से अंदर आई है... "मैं झुमकी हूँ रानी सा .... पहचानिये मुझे। जगदम्बा बाबू की बेटी। आप एक बार मेरे लिये जयपुर से पायल की जोड़ी ले कर आई थीं... आपने मुझे घेवर बनाना भी सिखाया था।"... याद आ गया उनको। इन जगदम्बा लाल को राजा बाबू ने तीन बार पैसे दे-देकर व्यापार शुरू कराया था पर कभी उनका काम नहीं जमा। फिर बेटी की पढाई-लिखाई के चक्कर में वो लोग गाँव छोड़ कर पता नहीं कहाँ चले गये थे।

वो बोले जा रही थी...
"पिछले दिनों हम लोग गाँव गये तो वहाँ कक्का की हालत के बारे में पता चला। मैंने डाक्टरी की है रानी सा... मैं अगर इसी शहर में ट्रांसफर ले लूँ तो क्या आप मुझे अपने घर में रखेंगीं?" .... और वो अवाक् सी कभी उस लड़की को तो कभी उसका संदेशा लाने वाले कागा को देखे जा रही थीं।


मौलिक एवं स्वरचित

shrutipatna6@gmail.com

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
पटना
बिहार