रौशनी के अंकुर- सविता मिश्रा राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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रौशनी के अंकुर- सविता मिश्रा

बिना किसी खर्चे के किताबों को पढ़ने और उन्हें प्रोत्साहित करने का एक आसान तरीका, उनकी आपस में दूसरों के साथ अदला बदली भी है। इस तरीके से आप अपने सीमित बजट में भी ढेर सारी किताबों को पढ़ कर उनका आंनद ले सकते हैं। इस बार के पुस्तक मेले में जब मेरी मुलाकात सविता मिश्रा 'अक्षजा' जी से हुई तो बातों ही बातों में मैंने उन्हें अपनी किताब "फ़ैलसूफियां" के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि उनकी भी एक लघु कथाओं की एक किताब आ चुकी है। एक दूसरे की किताब को खरीदने के बजाय हमने सोचा कि क्यों ना आपस में किताबों की अदला बदली कर ली जाए?


नतीजन अब मेरे हाथ में उनकी किताब "रौशनी के अंकुर" है और मैंने इसे अभी अभी पढ़ कर खत्म किया है। इस किताब में उनकी 101 लघु कथाएं हैं और इसको पढ़ते वक्त कहीं पर भी यह नहीं लगा कि यह उनका पहला संकलन है। सीधी..सरल एवं प्रवाहमयी भाषा में बहुत ही आसानी से वे अपने मन की बात प्रभावी ढंग से कह जाती हैं। विषयों को चुनने की उनकी समझ वाकयी तारीफ के काबिल है। वे अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं एवं खबरों पर पैनी नज़र रखती हैं और उन्हीं में से अपनी सुविधानुसार कहानी तथा किरदारों को चुनते हुए आसानी से अपनी रचना का ट्रीटमेंट तय कर लेती हैं।


इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ जो मुझे बेहद प्रभावी लगी, उनके नाम इस प्रकार हैं:

*सही दिशा
* निर्णय
* आत्मग्लानि
* दाएं हाथ का शोर
* सर्वधाम
* तोहफ़ा
* भाग्य का लिखा


एक पाठक के तौर पर पढ़ते हुए जहाँ एक तरफ उनकी लघु कथाओं में मुझे विषयों की व्यापकता एवं स्थानीय भाषायी प्रयोग ने प्रभावित किया , वहीं दूसरी तरफ कुछ कहानियाँ ने इस बात की तरफ इंगित भी किया कि अंत में वह अपनी बात उनमें पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं कर पायी हैं। कहीं-कहीं पर यह भी लगा कि रचना जल्दबाज़ी में तुरत फुरत जैसे लिखी गयी बस..वैसे ही लिख दी गयी। मेरे ख्याल से इस क्षेत्र में उन्हें अभी और मेहनत करने की ज़रूरत है।


मेरे हिसाब से किसी भी रचना में ये लेखक की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वो जो कहना चाहता है, वह पाठक को पूर्णरूप से साफ..साफ एवं स्पष्टरूप से समझ आना चाहिए। अगर इसमें रचियता कहीं चूकता है तो उसे, उस रचना पर अभी और मेहनत या पॉलिश करने की ज़रूरत है। कई बार एक लेखक के तौर पर हमें अपनी रचनाओं का बार बार खुद ही पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है, तब कहीं जा कर वह रचना पाठकों की कसौटी पर खरी उतरने लायक बनती है। पुस्तक के अंदर मात्रात्मक ग़लतियों का होना तथा नुक्तों का सही एवं वाजिब जगहों पर भी प्रयोग नहीं किया जाना थोड़ा अखरता है। वैसे लेखिका ने इस बात पर अपने आत्मकथ्य में सफ़ाई दी है लेकिन ग़लती तो खैर ग़लती ही है। उम्मीद है कि अपनी आने वाली पुस्तकों और इसी किताब के आगामी संस्करणों में वे मेरे इन सुझावों को अन्यथा ना लेते हुए अपनी कमियों को दूर करने का पूरा प्रयास करेंगी।


152 पृष्ठीय इस लघुकथाओं के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ,शाहगंज, आगरा ने और इसका मूल्य ₹300/- रखा गया है। किसी भी किताब या रचना पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में कंटैंट के अलावा उसके शीर्षक की भी अहम भूमिका होती है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पाठक को खुदबखुद अपनी तरफ खींचे। उम्मीद है कि अगली बार लेखिका की रचनाओं एवं किताबों के शीर्षक ज़ोरदार होंगे। इसी के साथ आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।


***राजीव तनेजा***