राय साहब की चौथी बेटी - 19 - अंतिम भाग Prabodh Kumar Govil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राय साहब की चौथी बेटी - 19 - अंतिम भाग

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

19

चाहे अम्मा अब किसी को पहचानें या नहीं पहचानें लेकिन कुछ दिन दोनों बेटियों के साथ रहने पर उनके चेहरे पर कुछ रौनक ज़रूर आ गई।

बेटियां सुबह पूरे मनोयोग से उन्हें नहलाती- धुलाती थीं और साफ़ सुथरे कपड़े पहना कर तैयार करती थीं। चेहरे पर क्रीम पाउडर सब उसी तरह रहता, जैसे कभी रहता रहा होगा।

कपड़े केवल साफ़ सुथरे ही नहीं, बल्कि वो नए भी रहते जो ख़ुद वो दोनों उनके लिए खरीद कर लाई थीं।

बड़ी बिटिया जब देखती कि सिर में जुएं हो जाने के चलते अम्मा के बाल काट दिए गए हैं तो वो एक बड़ा सा रंगीन रुमाल लेकर अम्मा के सिर पर स्कार्फ की तरह बांध देती।

कोई पड़ोसी, पारिवारिक मित्र या संबंधी अम्मा को देखने के नाम पर जब मिलने आते तो अब पहले की तरह करुणा और लाचारी से देखते हुए नहीं लौटते थे।

लेकिन कभी - कभी ऐसा लगता था कि अम्मा के चेहरे की ये गमक कहीं चिराग़ के बुझने से पहले दमकने वाली ज्योत न हो।

सबके समझाने- बुझाने से अब दोनों बहनों ने अम्मा को साथ ले जाने का इरादा तो छोड़ दिया था किन्तु वो दोनों कुछ दिन अम्मा के पास रुक कर उनके साथ रहने के लिए ज़रूर तैयार हो गई थीं।

लेकिन इंसान को ये भ्रम ही होता है कि कुछ दिन साथ में रह लेने के बाद उन्हें जाने वाले की याद नहीं आयेगी।

खून के इस रिश्ते की फितरत तो ऐसी ही है कि जो जितने दिन साथ रहेगा वो बिछड़ने के बाद उतना ही याद आयेगा।

फ़िर अम्मा तो मां थीं।

कभी - कभी बड़ी बहन रसोई में जाकर कुछ संकोच के साथ भाभी से इस तरह का आग्रह करती कि अम्मा की पसंद का कोई व्यंजन बनाए। भाभी ऐसे प्रस्ताव पर खुश नहीं होती थी, बल्कि कुछ अपमानित सा महसूस करती।

उसे लगता मानो ये अप्रत्यक्ष रुप से उस पर आक्षेप लगाया जा रहा हो कि उसने अम्मा के खाने- पीने का ख्याल नहीं रखा होगा।

छोटी बहन इस बात को भांप लेती और जैसे बड़ी को रोकने के लिए ज़ोर से बोल पड़ती कि अम्मा को क्या पसंद है क्या नहीं, ये तो हम से ज़्यादा भाभी ही समझेगी न!

और तब बड़ी बहन को भी ये अहसास हो जाता कि हम तो दो दिन बाद चले जाएंगे, क्यों ये अहसास किसी को दिलाएं कि हम ही अम्मा के सच्चे हितैषी हैं।

दो - चार दिन बाद दोनों चली गईं।

अब जाते समय अम्मा से मिल कर रोने- धोने का कोई लाभ नहीं था। अम्मा दुनिया के सुख दुःख से बहुत दूर जा चुकी थीं।

हां, मां से बिछड़ने का कुदरती दुःख तो होना ही था।

मां अब इस हालत में नहीं थी कि बेटियों को शगुन का कोई मीठा टुकड़ा, कपड़ा या सिंदूर भी हाथ में पकड़ा सके।

घर एक बार फ़िर सूनेपन से घिर गया।

अम्मा नाम के इस दिए की बाती को संतानों का ये जमघट उकसा तो गया,पर लौ के एकाएक प्रखर हो जाने के अपने खतरे भी होते हैं।

तिरानबे वसंत देख चुकी अम्मा की देह ने चौरानबेवें साल की दहलीज पर कदम रखा ही था, कि फागुन माह के खुशनुमा माहौल की एक गुनगुनी रात ने चुपचाप आकर अम्मा के कान में कहा-

"चलें अम्मा???"

अम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया।

मौन को सहमति माना गया और बांध के ताज़ा खोले गए गेटों से हहरा कर उमझते पानी की तरह शहर भर से अम्मा के परिजन, मित्रजन, पड़ोसी जन उस दयार की ओर चल पड़े जहां कभी अम्मा रहती थीं।

अम्मा की मिट्टी मिटाने की तैयारियां शुरू हो गईं।

कभी पेड़ रहे लकड़ी के गट्ठर अम्मा की देह के साथ आग का दरिया परलोक ले जाने के लिए लाए जाने लगे।

अंगारे, घी, मंत्र सब मचलने लगे कि अम्मा को भस्म में तब्दील कर लें ताकि उनके बच्चे कल जब गंगा नहाने हरिद्वार जाएं तो उन्हें अम्मा को उठाने की जहमत न उठानी पड़े।

औरतों के विलाप और पुरुषों की उदासी ने अम्मा का शव देहरी से निकाल कर एक ऐसे विमान से चस्पां कर दिया जो अम्मा को इतनी दूर ले जा छोड़े कि अम्मा इस लोक में फ़िर कभी लौटने की सोच भी न सकें।

अम्मा के बेटों ने जैसे कभी अम्मा का कष्ट हरने को अम्मा के केश उतरवाए थे वैसे ही ज़माने का दस्तूर निभाने को अब अपने बाल भी उतरवा लिए ताकि ज़माना दूर से ही देख कर भांप ले कि राय साहब की चौथी बेटी भी नहीं रही!

लकड़ी जल कोयला भई, कोयला जल भई राख

मरण कुंडली कर गई, जनम कुंडली ख़ाक !

(समाप्त)