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बीवी संग न खेलो होली

आज मेरे मित्र राधेश्याम , सुबह से ही भांग छान आये थे । आते ही बमके - बीवी संग न खेलो होली ।

मैंने कहा - भैया जरा धीमे । क्यों त्योहार के दिन खुशहाल घर में मोहरम मनवाना चाहते हो ।

वे पूरे जोश में थे । वैघानिक चेतावनी को दरकिनार करते हये , दोनों हाथ उपर कर और जोर से बौराये - हे संसार के पतियो सुन लो । अपनी बीवी के साथ होली खेलना सबसे घात. . ।

इससे पहले कि वे लाइन पूरी करते मैंने अपनी हथेली से उनका मुंह बंद कर दिया - यार , थोड़ी सी अकलमंदी अपने घर के लिये भी बची रहने दो ।

वे चैथे गियर में थे । उन्हें अब रोक पाना बेहद कठिन था ।

मुझे उहालना देते हुये बोले - सारा दिन भाभी जी के पल्लू से बंधे रहते हो । तुम्हारे कारण ही आज़ बीवीयों ने हमारे नाक में दम कर रखा है ।

उन्हें एक कोने में ले जाकर मैं फुसफुसाया - यार राधे , क्या किसी ज्योतिषि को अपना हाथ दिखा आये हो ?

वे फूल कर कुप्पा हुये । अपनी सफाचट दाढ़ी पर हाथ फेरतेे हुये तनिक दार्शनिक अंदाज़ में बोले - इस संसार में इस पंडित से बड़ा कोई पंडित है प्यारे जो तुम्हें यह दिव्य ज्ञान दे सके ।

वे मुझे समझाते हुये बोले - दरअसल , होली का अर्थ है - आज़ादी । आज़ादी मायने पूरी स्वतंत्रता । कोई रोक - टोक नहीं । होली का त्योहार हम गुलामों के लिये ही बना है । यह त्योहार हमें बताता है कि आज के दिन हम सब अपने मन के राजा है । चाहे जिसकी चुनरिया भिगोयें । चाहे जिसके गाल गुलाबी करें बइयां मरोड़े । कोई टेंशन नहीं । यह यहाॅं - वहाॅं गलियों में ढ़ोल लटकाये हुये मस्त फिकरे कसने का पर्व है । छैल - छबीला बनने को दिन है । सोम रस में डूबे रहने का दिन है । गोपियों के साथ रास रचाने का दिन है ।

मैंने कहा - यार , यह तो बीवीयों के साथ ना इंसाफी है ।

वे ठहाका मार कर हंसे - प्यारे , रहे पोंगा के पोंगा ही । भाई मेरे शरारत का जो मज़ा भाभियों के साथ होली खेलने में हैं । वह बूढ़ा चुकी बीवीयों के साथ कहाॅ।

मैं कुछ कहने ही जा रहा था कि श्रीमती जी अपनी चुनिंदा सखियों के साथ आ धमकीं और राधे को गुलाल लगाते हये अंखियों ही अंखियों से बात करते हुये बोलीं - भैया , आज़ तो सूखा न छोड़ेगे ।

श्रीमती जी के बायीं ओर पच्चास साला बाॅब-कटट आंटी ने दूर से ही रंग फेंका - बुरा न मानो होली है ।

अरे बुरा कहाॅं मान रहे हैं सखियो । लो मलती जाओ । लेकिन तनिक करीब से । बायां गाल आगे करते ‘श्याम‘ ने चुटकी ली ।

श्रीमती जी ने कनखियों से मुझे इशारा किया । पीछे भाभियों के पति रंगों की बाल्टियां लिये खड़े थे । इशारा पाकर उन्होंने राधे को पूरी तरह रंगों से सरोबार कर दिया ।

राधे रुआंसे हो उठे । लेकिन , श्रीमती जी की सहेलियां नहीं मानी । पड़सी दुबे की बीवी आज साक्षात मेनक लग रही थी । गोरे - गोरे गालों पर लाल रंग मुझे शरारत करने को मज़बूर कर रहा था । लेकिन , राधे की हालत देखकर मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ।

पड़ोस की पनवाड़िन ने पीक फेंकी - भैया इधर तुम हमें रंग रहे हो । उधर तुम्हारी बीवी गुप्ता जी के रंग में रंगी है । ननकू धोबी अलग से पिचकारी लिये खड़ा है ।

वे एक - दूसरे को भूत बनाने में लगे हुये थे । और मैं सोच रहा था कि भाभियां सचमुच कितनी सुंदर होती है । काश मैं कुछ कर पाता ।

अच्छा शुक्ला , अब चलता हूं । तुम्हारी भाभी राह देख रही होगी । उन्होने पनवाड़िन की बात सुन ली थी ।

मैं स्वर्ग लोक में था । राधे की आवाज़ सुनकर धरती पर आ गिरा - क्या ?

घर जा रहा हॅंूं प्यारे । राधेश्याम ने लगभग चीखते हये कहा ।

मैंने उनकी आंखों में देखा । नशा उतार पर था ।

मैंने आग्रह किया - बैठो पकवान खा कर जाना । तुम्हारी भाभी ने खास तौर पर तुम्हारे लिये बनाये हैं ।

फिर कभी । अभी तो जाने ही दो । अगर जल्दी घर न पहुंचा तो वह मेरा कोट मार्शल कर देगी । हुक्का पानी बंद । समझे । कहते हुये वे तेज़ी से अपने घर की ओर लपक लिये ।

- डा. नरेंद्र शुक्ल

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