इस दश्त में एक शहर था
अमिताभ मिश्र
(18)
वे कप्तान थे। अपने मोहल्ले की हर टीम के स्वयंभू कप्तान हुआ करते थे। दरअसल वे हर टीम का गठन भी करते थे और उसके कप्तान भी हुआ करते थे। क्रिकेट, हाकी, फुटबाल, वालीबाल, कबड्डी आदि सारे खेलों के वे कप्तान थे। हर खेल पर बराबरी का अधिकार । उनके जोड़ का खिलाड़ी आसपास के गली मोहल्लों में भी नहीं था। उनका असल नाम चिन्मय स्कूलों के रजिस्टरों में दर्ज था, बड़े होने पर वोटर लिस्ट में मिल सकता था पर अखिल जगत उन्हें कप्तान के नाम से ही जानता रहा। उनका अखिल संसार उूसरी पलटन ग्राउंड से लेकर बंबाखाने वाले मैदान तक था जहां के देखने वाले उनके चौके-छक्कों, गोलों की संख्या, वालीबाल के जमीन में गाड़ देने वाले हाथ को लोग बखूबी जानते थे और सराहते थे और वाह वाह कर उठते। कप्तान टेनिस बाल के क्रिकेट के अदभुत खिलाड़ी हुआ करते थे और उनकी पहली पसंद यही खेल था।
उनके पिता पहलवान हुआ करते थे नामी बिरामी पहलवान। गन्नू पहलवान। पहलवानी मंे वे मोहल्लों के रूस्तमे हिन्द और रूस्तमे जमां थे। पर उनका छोटा लड़का यानि कप्तान उनसे कम नहीं था। उसे वे पहलवानी के दांव पेंच सिखाते थे और वह अपनी कल्पना से बहुत कुछ जोड़ कर नए नए दांव बना लेता था। फिर पहलवान उसे इस्तेमाल कर कप्तान कप्तान की मन ही मन सराहना करते। हालांकि कप्तान की रूचि पहलवानी क़तई नहीं थी। वे राज रोज की वर्जिश और कसरत से तंग आ चुके थे। एक दिन पहलवान कप्तान के साथ जोर आजमाइश कर रहे थे। एक दूसरे के कंधे में हाथ डाल कर दांव लगाने की जुगाड़ में थे। उस बीच बाप ने कप्तान को दो बार रगड़ दिया यानि कंधे से कनपटी तक घिस्सा दे दिया। कप्तान को दर्द हुआ, उनका कान लाल हो गया। उन्होंने भी आव देखा न ताव अपने हाथ से थौड़ा सा दबाव डाल कर बाप का सिर नीचा किया और खुद का घुटना उठा दिया। पहलवान के मुंह पर पड़ा घुटना, उनका एक दांत हिल गया, मुंह से खून छलछला आया, वे तिलमिला उठे। उन्होंने कप्तान को दो तमाचे एक लात और चपरास दांव से नवाजा। ” अपने बाप के भी बाप बन रहे हो ससुरे।“
कप्तान वहां से उठे और सरक लिए। और पहलवान के यह समढ में आ गया कि उसे सिखाना आसान नहीं हैं साथ ही यह भी चिन्ता लगी कि उसकी हरकतें उससे पता क्या क्या करवा सकती है।
चपरास एक अदभुत किसम का पहलवानी दांव है जिसमें सामने वाले की बांयी कनपटी पर दांये हाथ से और बांये पैर पर दांये पैर से जोर से और फुर्ती से तालमेल के साथ मारा जाता है जिसके प्रभव से सामने वाला धरती के समानांतर हवा में उठता है और भद्द से गिर पड़ता है। गन्नू पहलवान का यह मनपसंद दांव था और उसे उन्होंने अपने बाप के पहलवान से सीखा था। सो हमारे कप्तान जिस समय हवा में थे तभी उन्होंने जान लिया था कि उनका बाप एक जल्लाद किसम का आदमी है और अपने बेटे को या तो आगे बढ़ाना नहीं चाह रहा या यह उसके बस में नहीं है। उसी स्थिति में वे बाप की रही सही इज्जत भी तिरोहित कर चुके थे हालांकि जमीन पर गिरते ही उनके मन में बाप के प्रति कुछ सम्मान का भाव आया। यह सम्मान का भाव उनके मन में उस दांव के कारण आया था, जिसके वे कायल हो चुके थे और धरती के समानान्तर स्थिति में उन्होंने तय किया कि उन्हें भी यह दांव आजमाना चाहिए। बस फिर क्या था घर के सामने के ओटले पर बकायदा रियाज चालू हो गई। मोहल्ले के छोटे छोटे लौंडे इकठ्ठा कर यह दांव आजमाए जाने लगा। हलके होने की वजह से बच्चे तब बहुत दर्षनीय स्थिति में हुआ करते थे जब वे धरती के समानानंतर होते। एक सप्ताह में कप्तान इस दांव में पारंगत हो चुके थे । उन्होंने अपनी इस विरासत का बकायदा तब इस्तेमाल किया जब एक मैच के दौरान अंपायर ने उन्हें आऊट दे दिया, जबकि उनके खुद के मुताबिक वे नाट आऊट थे। बस क्या था कप्तान सीधे अंपायर के पास पहुचे और पलक झपकते ही अंपायर धरती से एक फुट समानानंतर थे और भद्द से गिर पड़े। दर्षकों ने कप्तान के इस कमाल पर तालियां पीटी और उसी जनता के अनुरोध पर उस दिन उन्होंने नाबाद सैकड़ा पूरा किया।
कप्तान की हरकतें चौतरफा थीं। उनकी हरकतें पूरे मोहल्ले की नाक में दम किए रहती थीं। किसी को चिढ़ाना हो तो कप्तान आगे, किसी को डराना हो तो कप्तान भूत तक बन सकते थे। नाम रखने में उनका कोई सानी नहीं था। उन्होंने एक बुजुर्ग का नाम टीपू सुलतान रखा तो आलम यह है कि उनका असली नाम क्या है यह सभी भूल चुके हैं। यदि कोई सज्जन किसी दूसरे की तरह दिखता हो तो वे उन्हें उसका नगर संस्करण कह सकते थे।
अलावा इसके कप्तान लड़कियां पटाने में माहिर थे। जिन लड़कियों के बारे में घर या मोहल्ले के लड़के सोचने सराहने की हद तक रहते थे कप्तान उन लड़कियों को पटाकर उनके साथ निपट सुलझ कर नई जुगाड़ में लग चुके होते थे।
कप्तान का जी पढ़ने में नहीं जुड़ाता था, वे एक खिलाड़ी बनना चाह रहे थे पर ना तो वे घर से इतने संपन्न थे और न ह ीवह समय ऐसा था कि महज़ खेल से कोई अपनी रोजी रोटी चला ले। आज कुछ लोगों के लिए खेल एक चमकदार धंधा है हालांकि इस चकाचैंध को पकड़ कहुत कम लोग पाते हैं। लिहाजा उन्हें पढ़ना भी पड़ रहा था और खेलना तो उन्हें था ही। एक क्रिकेट मैच के दौरान उन्हें खेलता देख मुनव्वर अली ने उनसे कहा था-
” मियां क्रिकेट पर ही ध्यान दो तो बहुत आगे जाओगे और हां टेनिस गेंद से नहीं लेदर से खेलो तो निखार आएगा। “
अब लेदर गेंद लो फिर उसके लिए बैअ बलग से लो फिर पैद वगैरा और भी न जाने क्या क्या। बाप से बोला तो उन्हें चपरास जमाने की मुद्रा बनाई और बोला-
” ससुरे पैदा तो गरीबों के घर में हुए हो और शौक नवाबों के पाल रहे हो तो पैदा भी वहीं हुए होते। “
अब ये तो पिता ही थे वरना कप्तान के जेहन में एक अष्लीलतम मुहावरा कौंधा था। फिर भी कप्तान चंदा वगैरा कर के लेदर बाल ले आये और एक बैट भी ले आए कुछ प्रैक्टिस वगैरा भी की पर समस्या ये थी कि जिस टीम के वे कप्तान थे या जिन टीमों से उनका मुकाबला होता था उन सबकी औकात टेनिस गेंद से ही खेलने वाली ही होती थी। सही सही क्रिकेट खेलने वालों की फीस इतनी ज्यादा होती थी कि पूछने पर इस बार उनके बाप गिन कर दस चपरास मारेंगे और नौ के बाद गिनती भूलते जाएंगे। खैर उनके नसीब में टेनिस गेंद का ही खिलाड़ी बनना लिखा था। पर साथ ह ीवे यह भी महसूस कर रहे थे कि जिस वातावरण में वह रह रहे हैं वह न सिर्फ खेल विरोधी है बल्कि प्रतिभा विरोधी भी है। इस बारे में अकसर वे अपने दोस्त गोपाल से चर्चा भी करते थे और गोपाल उनसे सहमत था। एक लंबे समय तक गोपाल उनसे आतंक की हद तक प्रभावित था। वह उनके खेल, उनके हर मामले को लेकर अछूते रवैये और विचारों और लड़की पटाने के हुनर का कायल था। पर उनकी नजरों में बोपाल एक नंबर का हरामी था क्योंकि वह उनकी बात सुनता भी था मानता भी था और पढ़ाई कर फस्र्ट उिवीजन में पास हो जाया करता था। कप्तान यूं बुद्धिमान थे बल्कि एक हद तक जीनियस भी थे। वे बाकी समय धींगामस्ती खेलकूद में लगे रहते थे और इम्तिहान के दिनों में पन्द्रह दिन पढ़ कर अपने लिए सेकंड डिवीजन की जुगाड़ कर लिया करते थे। गोपाल का मानना था कि यदि वे थोड़ी और गंभीरता से पढ़ लेते तो वे बहुत आगे जा सकते थे। विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी हिन्दी साहित्य और अंग्रेजी साहित्य और राजनीति शास्त्र सामाजिक विज्ञान जैसे विषय वे छात्रों को पढ़ा सकते थे। पर कप्तान का लक्ष्य था खेलों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना।
यह कालेज के दिनों की बात है जब गांपाल ने उसे बताया-
” यार एक खेल है जिसे हैण्डबाल कहते हैं जिसे अभी कम ही लोग खेलते हैं, तू खेलना शुरू कर दे तो एक झटके में स्टेट टीम में पहुंच जाएगा।“
कप्तान ने देखा वह गैम, उन्हें जमा वो गैम। और वे वाकई गोपाल के कहे मुताबिक एक झटके में स्टेट टीम में थे। नेशनल चौम्पियनषिप में वे दिल्ली खेल आए। वहां भी कप्तान के खेल की काफी तारीफ हुई, अखबारों वगैरा में भी उनके चर्चे रहे। पर उनकी खुद की टीम का खेल बहुत ही लचर था और वह आखिरी से दूसरे नंबर पर थी। नतीजतन बावजूद अच्छे खिलाड़ी होने के खराब टीम में होने के कारण उनका चयन नेशनल लेवल पर नहीं हुआ। इस सब का निष्कर्ष कप्तान ने यूं निकाला कि उनके दुर्भगय का कारण सिर्फ वे ही नहीं हैं बल्कि उनका आसपास भी है। वे अच्छा खेलते हैं पर वे जहां रहते हैं वह जगह ही सड़ियल और घटिया है इसलिए वे आखिर तक मोहल्लों के ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बने रहेंगे। वे हैण्डबाल के अच्छे खिलाड़ी हैं पर चूंकि वे एक कमजोर राज्य की टीम में हैं इसलिए वे स्टेट टीम से आगे नहीं जा पाएंगे।
कालेज में उन्हें क्रिकेट बकायदा पूरी किट में खेलने को मिला। वहां भी वे अव्वल थे, कालेज टीम के भी कप्तान थे। यूनिवर्सिटी टीम में भी उनका चयन हो गया पर यहां भी वही पुराना किस्सा था कि वे खुद तो अच्छा खेलते थे पर उनकी टीम आखिरी से पहले या दूसरे नंबर पर आती रही। कप्तान सही आदमी थे पर गलत जगह थे। हर बार उन्हें मायूसी हाथ लगती रही। इसी खेलकूद के दरम्यान में बी एस सी पास कर गए। पी एम टी वगैरा में भी कोशिश कर ली अंततः एम एस सी रसायन शास्त्र में कर लिया। खेल और लड़कियों के मामले में नए नए किले फतह करने के बावजूद कैरियर नाम की चिड़िया उनके हाथ नहीं लग पा रही थी। पहलवान बाप, इंजीनियर भाई और अन्य घर वालों ने उन्हें गरियाना शुरू कर दिया था। तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के बावजूद वे सफल नहीं हो पा रहे थे। जबकि उनसे कम बुद्धिमान कुछ तो भाग्य और ज्यादातर प्रभाव दबाव लगाकर सफल हो गए। कप्तान के पास दोनों का टोटा था। वे अपने से बहुत कम बुद्धिवालों को बहुत ऊंचे ओहदों पर देख रहे थे। वे थम गए थे, वे थक गए थे, उनके साथ वाले दौड़ रहे थे। उनमें अपने बाप से प्रतिरोध करने का नैतिक बल समाप्त हो चुका था। खेल के जलवे अब हिरन हो चुके थे। पहलवान बाप अब उन्हें तबियत से गरियाते थे और वे झेलने को मजबूर थे। अंततः उनके बाप ने उन्हें एक फैक्ट्री में केमिस्ट के पद पर लग्वा दिया। मालिक ने बचपन में उनसे पहलवानी सीखी थी सो गुरूदक्षिणा के बतौर यह काम कर दिया।
कप्तान को जमा यह काम। उनकी मेहनत, ज्ञान और काम का लोहा सभी लोग मानने लगे। वे वहां सिर्फ केमिस्ट का ही काम नहीं कर रहे थे बल्कि और भी बहुत सारे काम वे निपटाते थे। उनकी मेहनत और लगन के कारण उस फैक्ट्री ने बहुत तरक्की की, पर कप्तान को उसके बदले में बहुत कम मिला। वे इस उम्मीद में थे कि चीफ केमिस्ट का पद उन्हें मिलेगा पर वैसा हुआ नहीं या किया नहीं गया। उन्हें झटका तब लगा जब बंपनी के चीफ केमिस्ट के पद पर एक नए कम उमर के लड़के को रख लिया गया और उन्हें बताया गया कि चीफ केमिस्ट के पद की जरूरी योग्यता उनके पास नहीं है। उस नय से कम उम्र के लड़के के पास फार्मोकालाजी की डिग्री और विदेश से डिप्लोमा था। भले ही कप्तान के मुकाबले दवाई और उसके बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कप्तान की तुलना में एक बटा छः ज्ञान रखता हो पर कप्तान की छाती पर बकायदा चीफ केमिस्ट था। कप्तान के ऊपर एक और कप्तान। इतने के बानजूद उन्होंने अपने पर जब्त किया और उस कम उपर के लौंडे के अंडर में काम करना कबूल कर लिया। उन्होंने बहुत बड़प्पन से उस कम उम्र कम उमर के चीफ केमिस्ट को दवाइयों को सारी जानकारियां दीं। वह उन्हें गुरू कहता था। उसके निपट किताबी ज्ञान को उन्होंने व्यावहारिक ज्ञान में बदल दिया था। वह लड़का बहुत चतुर था उसने कप्तान से सारे गुर सीखे और जब वह खुद माहिर हो गया और कप्तान की कोई जरूरत नहीं थी तो उन्हें उस पद की भी यानि असिस्टेंट की याग्यता नहीं होने के कारण कंपनी से बाहर करवा कर अपने रिश्तेदार को उनकी जगह पर लगवा दिया। वे कप्तान जिनके खून पसीने के कारण वह कंपनी आज दवाई की एक अग्रणी कंपनी बन गई, वे कप्तान जिन्हें सीढ़ी बना कर कई लोग ऊपर चढ़ गए, आल उसी कंपनी से बाहर खदेड़ दिए गए थे। वे फिर सड़क पर थे। कुछ नुचे हुए रूपए और सडत्री हुई एक्स्पायर दवाई की बदबू के साथ। कप्तान के पसीने की महक में उस कंपनी की दवाई की महक बस गई थी पर अब वे क्या करें।
इस दरम्यान वे एक जानकार केमिस्ट के बतौर जाने जाने लगे थे जिसका फायदा उठाने के लिए कई अवैध दवाई बनाने वाली और नषे की गोली बनाने वाली कंपनियों का काम करने लगे थे। यहां भी उनकी तूती बोल रही थी कि एक बार छापे के दौरान जैसे तैसे भाग निकले पर उन्हें समझ में आ गया कि बाकी लोग तो बच जाएंगे पर वे इस धर पकड़ से बिलकुल ही नहीं बच पाएंगे। बस उसी दिन से कप्तान ने नकली दवा की इस दुनिया से तौबा कर ली। काफी धमकियों के बावजूद कप्तान ने फिर उस गली में रूख नहीं किया। पर वहां से कुछ लतें लेकर जरूर आए थे। कौन सी दवा कैसा नषा करेगी, कितना नषा करेगी, कितनी देर तक उसका असर रहेगा, कितना किक मारेगी यह उन्हें भलीभोति पता था। ब्रैड में आयोडैक्स रखकर खाना उन्हीं का ईज़ाद किया हुआ नुसखा था जो आजकल लतियल लोगों की सूची में ऊंची पायदान पर है। कप्तान में सामान्य दवाई को बेहद प्रभवी बनाने का हुनर था वे सामन्य दवाईयों से लगभग लाइलाज बीमारियों को ठीक करने की कमाल की योग्यता रखते थे तो साथ ही सामान्य दवाइयों को नषे में बदलने के नायाब नुसखे उन्हें पता थे। पर यह सब उन्हें न तो हौसला दे रहा था और न ही पैसा। वे धीरे धीरे दरक रहे थे ढह रहे थे। उनके घर ढेरों पदक ढेरों प्रमाण पत्र थे जो एक समय गौरव और हिम्मत प्रदान करते थे अब वे रद्दी के ढेर में बदलते जा रहे थे।
गोपाल इस बीच उनकी गति दुर्गति की खोज खबर लेता रहा था। गोपाल खुद अपनी पढ़ाई और अपने पत्रकार भाई के प्रभाव के बदौलत एक बड़ी कंपनी में असिस्अैनट मैनेजर के पद पर कार्यरत है। गोपाल जो एक समय कप्तान का मुरीद था, एक हद तक अनुयायी था आज बहुत अफसोस करता है। उसे पता है कि कप्तान जीनियस हैं पर वे गलत समय और गलत जगह पैदा हुए हैं। वरना उनसे बहुत कम काबिल लोग कम अच्छा खेलने वाले खिलाड़ी अपनी जुगाड़ जान पहचान और पैसे के दम पर दुनिया भर में क्रिकेट और और भी खेल दुनिया भर में खेल आए हैं और बहुत अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं। वह कप्तान के आगे कुछ नहीं था पर उन्हें उसे नौकरी दिलाने का र्काए कर बहुत प्रसन्नता हुई। गोपाल ने उन्हें अपनी ही कंपनी में सैल्स डिपार्टमेंट में क्नर्क के पद पर लगाने का जोर लगा दिया। उनका सेकन्ड डिवीजन, उनके स्पोर्टस के सार्टिफिकेट्सऔर सबसे अहम गोपाल की तरफदारी नलेने उन्हें सैल्स डिपार्टमेंट में क्लर्क बनवा ही दिया। वह गोपाल जो स्कूल के दिनों में उनका पठ्ठा था, जिसे वो अपने से कमतर मानते थे आज उसी के बदौलत उसी के अधीनस्थ तीसरे दतजे के कर्मचारी होंगे वो। जिस दिन उन्हें नियुक्ति पत्र मिला उस रात वे रात भर सपने देखते रहे। वे बेहद उद्विग्न और बेचौन रहे। सपने में अपने जीवन का रिप्ले देखते रहे। उन्होंने देखा कि जब सबसे पहले उन्होंने अकेले दम पर अपनी टीम को र्किकेट का एक बड़ा टूर्नामेंट जितवा दिया था तो लोगों ने कैसे उन्हें कंधे पर उठाया हुआ था और उन सबमें सबसे आगे उत्साहित गोपाल ही था। वे सब वे टूर्नामेंट वे सब पुरस्कार वितरण उन्हें दिख रहे थे जिनमें बहैसियत कप्तान उन्होने पुरस्कार ग्रहण किए थे। दिखते रहे वे तमाम मौके जिनमें बड़ी टीमों में लगभग तय चयन उनकी दावेदारी को उनसे दोयम दर्जे का खिलाड़ी अपने अतितिक्त प्रभाव के चलते छीन ले गया। वे बस अच्छे खेल को चयन का आधर मानते रहे।
अंततः भोर होते न होते उन्हें सपने में दिखता था कि वे एक तूफान में फंस गए हैं। पानी का तेज बहाव है वे बहे जा रहे हैं। तभी उन्हें एक टहनी नजर आती है बहुत कमजोर सी टहनी। वह टहनी उन्हें बहते पानी में ठोस जमीन तक ले जाने में समर्थ है। वे जैसे ही अपना हाथ बढ़ाते हैं टहनी पकड़ने को वो गोपाल की शकल में बदल जाती है। और उनकी नींद टूट जाती है।
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