Chirai Churmun aur Chinu Didi - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी - 3

चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी

(कहानी पंकज सुबीर)

(3)

अपने बहुत सारे अनसुलझे सवालों के साथ ही हम बड़े हो रहे थे । इन सबमें ही उलझते उलझाते हम सबने मिडिल पास कर लिया था । अब हमारा स्कूल भी बदल गया था । इस बीच हम भी बहुत बदल गये थे । हम सबकी देह में कल्ले फूट रहे थे । मगर मन से हम अभी भी वही थे चिरइ चुरमुन। नये स्कूल में नये नये साथी मिले । बहुत से बच्चे गाँव के भी हमारी कक्षा में थे, जो गाँव के मिडिल स्कूल से मिडिल पास करके आगे पढ़ने शहर आये थे । नये स्कूल में हमें बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था । सरकारी हस्पताल के उस कैम्पस को ही दुनिया मान कर चलने वाले हम लोगों के सामने एक नया आसमान धीरे धीरे खुल रहा था । हमारा सबसे हरामी माना जाने वाला क़मर हसन भी यहाँ आकर दूध पीता बच्चा ही साबित हो रहा था । हमारे ये नये दोस्त हमें अनाड़ी कहते थे । हैरत से पूछते थे ‘हें....? तुमने अभी तक असली बीड़ी नहीं पी? हें ...? तुम असली वाली गाली नहीं बकते...?’ नये स्कूल में हमने गिलकी बीड़ी की जगह असली बीड़ी का स्वाद लिया । हमारा सरकारी स्कूल खँडहर समान था जिसका नाम था ‘शासकीय बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ । बालक इसलिये कि इसमें लड़कियाँ नहीं पढ़ती थीं उनका अलग स्कूल था क़स्बे में जिसका नाम था ‘शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ । ये हमारे साथ एक बड़ी चोट हुई थी कि स्कूल में हम केवल बालक ही बालक थे । हमारे स्कूल के ठीक पीछे खेत थे, दूर दूर तक फैले हुए खेत । दोपहर की रिसेज में हम लोग अपने नये दोस्तों के साथ खिड़की से कूद कर पीछे चले जाते थे और वहाँ असली बीड़ी का मज़ा लेते । वहीं बैठते बैठते धीरे धीरे हमने गालियाँ भी सीख ली थीं । अभी तक तो हमारे लिये गाली का मतलब साले और ज़्यादा से ज़्यादा कुत्ते ही हुआ करता था मगर यहाँ तो हमने तरह तरह की गालियाँ सीखीं । हमारे नये दोस्त हमें न केवल गालियाँ सिखा रहे थे बल्कि उनके मतलब भी समझा रहे थे । उन गालियों का मतलब सुन कर हमारे दिमाग़ में कुछ रासायनिक परिवर्तन होते थे जिनका असर हमें अपने शरीर पर भी महसूस होता था ।

हम बाक़ायदा दीक्षित किये जा रहे थे । और हमें दीक्षा देने का काम कई सारे गुरू कर रहे थे । उनमें से भी कैलाश पीरिया हमारा मुख्य गुरू था क्योंकि उसका अनुभव और ज्ञान सबसे कहीं ज़्यादा था । वैसे तो उसका नाम कैलाश राठौर था लेकिन कैलाश पीरिया होने का भी एक कारण था । वो ये कि उसका पिता शराब बहुत पीता था और इस कारण वो अपने पिता से बहुत चिढ़ता था । जब भी कोई उससे उसके पिता के बारे में पूछता तो एक ही जवाब देता था ‘मुझे क्या मालूम, पी रिया होगा कहीं बैठ कर ।’ बस ये पीरिया ही उसका सरनेम बन चुका था । यहाँ तक कि उसके पिता को भी क़स्बे के लोग अब पीरिया ही कह के बुलाते थे । कैलाश पीरिया ने ही हमें भाँति भाँति की गालियाँ बकना तथा ठीक प्रकार से उनका उच्चारण करना सिखाया था । ग्रामर के मामले में वो किसी उर्दू के उस्ताद की तरह सख़्त था, ज़रा भी तलफ़्फ़ुज़ की ग़लती वो बर्दाश्त नहीं करता था। गाली में क्रिया और कर्ता का ठीक प्रयोग यदि नहीं किया गया तो वो उखड़ पड़ता था । सारी गालियाँ उसकी अपनी ही ईजाद की हुईं थीं । पीरिया की गालियों की एक विशेषता ये थी कि उन गालियों में महिलाएँ नहीं होती थीं, उसकी सारी गालियाँ पुरुष प्रधान थीं । हाँ गालियों में जानवरों का प्रयोग उसने बहुत हुनरमंदी के साथ किया था । उसकी गालियों में जानवर, पुरुषों पर अत्याचार करते थे । इन जानवरों में सूअर, कुत्ते और गधे प्रमुख होते थे । पीरिया ने ही हमारे उन प्रश्नों के भी उत्तर हमें प्रदान किये जो हमें परेशान करते थे । आग के बारे में भी उसने हमें विस्तार से बताया, हालाँकि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा । ऐसा ही कुछ आप आये बहार आई के साथ भी हुआ, पीरिया ने हमें उस तूफान के बारे में पूरी जानकारी दी और बाक़ायदा एक्शन के साथ दी, किन्तु, हम तो अज्ञानता के महासागर से आये थे। हमारे प्रश्नों को सुन कर हमारे नये दोस्त खी खी करते थे । हम शरमा जाते थे अपने अल्पज्ञान पर । कभी कभी हम सोचते थे कि अगर हम इस वाले स्कूल में नहीं आये होते तो हमारा क्या होता ।

हम बहुत कुछ जान चुके थे मगर अभी भी एक धुंध सी जमी हुई थी जो छँटने का नाम ही नहीं लेती थी । बुज़ुर्गों ने कहा भी है कि कानों सुनी और आँखों देखी में बड़ा फर्क होता है । हमारे सब कुछ जान कर भी न जान पाने को लेकर पीरिया बहुत परेशान रहता था । वो अलग अलग तरीक़ों से हमको समझाने की कोशिश करता था, मगर बात वही की वही रहती । और फिर अचानक वो दिन आया जब सूरज चकाचौंध करता हुआ हमारे सामने निकल पड़ा । सारी की सारी धुंध छँट गई और हमें सब कुछ साफ साफ दिखाई देने लगा । उस दिन जब हम लोग रेसिज में स्कूल के पिछवाड़े अपने दैनिक ज्ञानार्जन के कार्यक्रम के लिये गये तो उस दिन कुछ और ही हुआ । उस दिन पीरिया ने अपने मोज़े में फँसा कर रखी हुई एक पतली सी जर्जर किताब निकाली । पुस्तक पर लिखा हुआ था ‘असली सचित्र...’ और बाद की लिखावट को किसी ने काट दिया था । वो पुस्तक बारी बारी से हम सबके हाथों में से गुज़री । जिसके हाथ में पुस्तक आती थी उसके ज्ञान चक्षु ‘भकाक’ से खुल जाते थे और पुस्तक अगले के हाथों में पहुँच जाती थी । हम हस्पताल कैम्पस वालों की हालत तो ऐसी थी कि उसे शब्दों में बखान भी नहीं किया जा सकता । दिमाग़ रासायनिक परिवर्तन से ऊब चूब हो रहा था और शरीर उस रासायनिक परिवर्तन के परिणामों के चलते.....। सब के देख लेने के बाद पीरिया ने उस पुस्तक को अपने हाथ में ले लिया और उसके सभी अध्यायों की बाक़ायदा संदर्भ सहित व्याख्या करनी शुरू कर दी । साथ ही हर चित्र पर विशेषज्ञ की हैसियत से अपनी विशेष टिप्पणी भी दी । हम हस्पताल कैम्पस वाले अज्ञानियों की तरह मुँह खोले बैठ कर सुन रहे थे । दिव्य ज्ञान उसी खुले मुँह से धीरे धीरे हमारे अंदर समाता जा रहा था और वो सारी चीज़ें खुलती जा रही थीं जो अभी तक हमारे लिये पहेली बनी हुई थीं । आग, बदमासी, आप आये बहार आई, तूफान जैसे कई कई सवाल एक एक करके हल होते जा रहे थे । रीसेज का समय भी बीत चुका था मगर हम वहीं बैठे थे, और बैठे रहे स्कूल का समय ख़त्म हो जाने तक । तब हमें नहीं पता था कि सन्निपात क्या होता है, किन्तु, जो कुछ हुआ था वो यक़ीनन सन्निपात ही था ।

उसके बाद वो ही पुस्तक बहुत दिनों तक हमारी रीसेज का प्रमुख केन्द्र बनी रही । हमारे लिये स्कूल का मतलब ही रिसेज हो गया था । पीरियडों में मन उचाट सा रहता था । बस रीसेज होने का इंतज़ार बना रहता । रीसेज में हम सब उन कई कई बार देखे जा चुके चित्रों को फिर फिर देखते । अपनी उँगलियों के पोरों को उन चित्रों पर धीरे से रखते और आग की आँच को मेहसूस करते । आग जो चम्पा रानी और कलुआ की माँ में भरी थी । पुस्तक की सीले काग़ज़ों में हमने उसी आग को पा लिया था । पुस्तक में संकलित सजीव चित्रों तथा ललित निबंधों पर हम कई दिनों तक विस्तार से चर्चा करते रहे । हमारे पास कई कई विषय विशेषज्ञ थे । इन विषय विशेषज्ञों में प्रेक्टिकल ज्ञान भले ही किसी के पास नहीं था किन्तु, थ्योरी पर इनको अच्छी ख़ासी कमांड थी । हमारे सभी प्रश्नों का उत्तर उनके पास था । हम पूछते रहे और वो बताते रहे । पीरिया ने हमें कुछ रहस्यमय नीले रंग की फिल्मों के बारे में भी बताया था । उसने भी हालाँकि ये फिल्में देखी तो नहीं थीं, लेकिन उनके बारे में सुना बहुत था । उसके अनुसार इन नीले रंग की फिल्मों में इस पुस्तक वाली सारी चीज़ें हक़ीक़त में होती हैं । इस नई जानकारी ने हम सबको हैरत में डाल दिया था ‘हें.......ऐसी भी फिल्में होती हैं ।’ हमारा फिल्म विशेषज्ञ मनीष भी इस जानकारी पर हक्का बक्का था ।

उस एक पुस्तक ने हम सबको एकदम से उम्र के अगले पड़ाव पर खड़ा कर दिया । अब हम सब कुछ जान चुके थे । किन्तु, हम कहाँ जानते थे कि सब कुछ जाने लेने से मुश्किलें और बढ़ जाती हैं घटती नहीं हैं । जब तक कुछ पता नहीं है तब तक आप अज्ञानी हैं, लेकिन जब जान लिया तो इस पाये हुए ज्ञान को व्यवहार में लाने की उत्सुकता और उत्कंठा बढ़ जाती है । ये अज्ञानी होने से भी कहीं ज़्यादा परेशानी की स्थिति होती है । हमारी शाम की गिलकी बीड़ी गोष्ठियों में उदासी घुल गई थी । हम सब उदास थे । बाल्टी भर भर के उदास थे । गिलकी बीड़ी अब आनंद नहीं देती थी । हमारी आनंद की परिभाषा जो बदल गई थी । हमारे ज्ञानचक्षु तो खुल चुके थे लेकिन उस ज्ञान के उपयोग की कहीं कोई संभावना दीख नहीं पड़ रही थी । हस्पताल कैम्पस जहाँ हम रहते थे वहाँ सारे परिवार एक दूसरे के साथ जुड़े हुए थे । कैम्पस की सारी लड़कियाँ हम सारे लड़कों की बहनें थीं । क्योंकि थीं तो वो हमारे ही परिवारों की । और छोटा सा कैम्पस मानो एक बड़ा संयुक्त परिवार था, इस प्रकार कि रक्षाबंधन के दिन क़मर हसन तक के हाथ पर कलाई से कोहनी तक राखी बँधी होती थीं । इसके अलावा हमारी दौड़ स्कूल तक थी, स्कूल जो कि केवल बालक स्कूल था । हमारे लिये, हम सबके लिये वो सचमुच एक कठिन समय था ।

ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद ये ज़ुरूर हो गया था कि दयानंद ने उन काग़ज़ के पुर्जों को अपनी बहन तक पहुँचाने से इनकार कर दिया था जो उसे हमारे हस्पताल कैम्पस के ठीक बाहर स्थित किराने की दुकान वाले भारमल सेठ का लड़का अन्नू देता था । हर पुर्ज़े के बदले में दयानंद को वो अपने बाप की नज़र बचा कर मुट्ठी भर काजू दे दिया करता था । दयानंद की जेब में हरदम काजू भरे होते थे जिनको वो दिन भर चगलता रहता था । इधर से पुर्ज़ा ले जाने और उधर से लाने दोनों तरफ के काजू मिलकर दिन भर चलते थे । ‘सब अन्नू सेठ की कृपा है’ काजू को लेकर ये उसका परमानेंट डॉयलाग था । मगर उस दिन के बाद उसने पुरजे ले जाना तो दूर अन्नू सेठ की दुकान पर ही जाना बंद कर दिया था । हमारे ज्ञान चक्षु खुल जाने का एक ये भी सकारात्मक परिणाम सामने आया था । उसके अलावा जो कुछ भी था वो तात्कालिक रूप से हमें नकारात्मक ही दिखाई दे रहा था । चम्पा रानी वाली आग हम सब के अंदर अपने अपने तरीक़े से भरा चुकी थी और वो रह रह कर खदबदाती रहती थी । रात को सोते तो मन और शरीर दोनों के अँधेरे कोने सामने आने लगते । उन अँधेरे कोनों को टटोलते रहते और ठंडी साँसें भरते रहते । अब हमें दूरदर्शन की फिल्मों में बुटबाज़ी पसंद नहीं आती थी, हम इंतज़ार करते रहते थे कि कब फिल्म में हीरो और हीरोइन कुछ प्रक्रिया शुरू करते हैं । हमारा दुर्भाग्य कि हर बार दो फूल, दो पंछी या किसी पेड़ की डाल ठीक उसी समय आड़ कर देती थी जब हम देखना चाहते थे । हम लोगों की दुनिया बदल गई थी ।

और ऐसे ही उदास दिनों में अचानक हस्पताल कैम्पस में चीनू दीदी का आगमन हुआ । चीनू दीदी, जो हस्पताल में पदस्थ की गईं नई नर्स के साथ आईं थीं । ये नई नर्स कुँवारी थीं और उनके साथ उनकी माँ तथा छोटी बहन भी आईं थीं । उनकी छोटी बहन चीनू हम सबसे क़रीब पाँच से छः साल बड़ी थीं, इसलिये वो हमारी चीनू दीदी हो गईं । बड़ी अजीब सी लगती थीं चीनू दीदी । चेहरे पर मुँहासों के दाग़, सामान्य से कुछ बड़े दाँत, छोटा क़द । इतना बोलती थीं कि अगले का सिर दुख पड़े । आवाज़ भी सामान्य से कुछ अधिक तीखी, या यूँ कहें कि कर्कश ही थी । चूँकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं था इसलिये हमारी टोली में कोई नया सदस्य नहीं बढ़ा । उनकी माँ पूरे हस्पताल कैम्पस वालों के लिये अम्माजी हो गईं। अम्माजी के पति काफी पहले ही नहीं रहे थे, उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर नर्स बना दिया था और अब बेटी ही घर को चला रही थी । अम्मा जी हमसे जम कर काम करवाती थीं । उनके घर तो कोई ऐसा था नहीं जो बाज़ार से सामान वगैरह लाकर दे दे । बस वे ताक में रहती थीं कि कब हममे से कोई दिखे और वो उससे कुछ काम करवाएँ । हम ऊपर वाले से प्रार्थना करते हुए निकलते थे कि अम्मा जी बाहर न बैठीं हों । लेकिन हमारी प्रार्थना अधिकतर व्यर्थ ही जाती थी । ये भी नहीं था कि अम्माजी हमसे रिक्वेस्ट करके वो काम करवाती थीं । वे तो बाक़ायदा हुक्म देती थीं ‘ऐ कालू, किधर जा रहा है, एक काम कर ज़रा पीछे कुँए से एक बाल्टी पानी तो खींच के ला दे ज़रा । और सुन पूरी बाल्टी भर के लाना ।’ ये वो समय था जब किसी भी मुहल्ले के बच्चे उस पूरे मोहल्ले के हर घर के अघोषित नौकर हुआ करते थे। उनसे पूरे मोहल्ले का कोई भी घर कुछ भी काम करवा सकता था । कुछ भी का मतलब कुँए से पानी भरवा सकता था, जलावन की लकड़ी कटवा सकता था, बाज़ार से सामान मँगवा सकता था । ये आज का समय नहीं था कि बच्चे अपने ही घर का काम नहीं करते हैं ।

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