बहीखाता - 14 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 14

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

14

दिल्ली स्कूल ऑफ़ क्रिटिसिज़्म और वापसी

जैसा कि मैंने पहले कहा, अब तक दिल्ली स्कूल ऑफ़ क्रिटिसिज़्म कायम हो चुका था। मैं इसका एक अंग बनने जा रही थी। डॉक्टर साहब की आलोचना प्रणाली को समझने का मैं हरसंभव यत्न करती। अब मैं सुबह जल्दी ही यूनिवर्सिटी आ जाया करती और डॉक्टर साहब की एम.ए. की कक्षायें अटैंड करती। इसकी मैंने उनसे अनुमति ले रखी थी। इसका लाभ मुझे यह होता कि ये कक्षायें मुझे संरचनावाद और रूपवाद को समझने में मदद करतीं। फिर डॉक्टर साहब के पढ़ाने का ढंग ही ऐसा था कि बात सीधी दिमाग में उतर जाती।

रिसर्च स्कॉलरों के साथ मित्रता का भी मुझे बहुत लाभ हुआ। हम मिलकर यूनिवर्सिटी में समारोह करवाते। दूसरी यूनिवर्सिटियों के रिसर्च स्कॉलरों को आमंत्रित करते। उनके भाषण करवाते। हम भी दूसरी यूनिवर्सिटियों में जाते। वहाँ समारोह में भाग लेते। गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी और पटियाला यूनिवर्सिटी में तो हमारा आना-जाना आम-सा हो गया था। अन्य यूनिवर्सिटियों में भी जाया करते। पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ भी कभी कभी जाते, पर अमृतसर और पटियाला जितना नहीं। अब बहुत सारे लेखक भी मेरे मित्र बनने लगे थे। विशेषतौर पर कवि सवरनजीत सवि, अमरजीत कौंके, मोहनजीत, जसवंत दीद आदि। मैं अपने मित्र कवियों की पुस्तकों पर पर्चे लिखने लगी थी। उन्हें मेरी आलोचना पसंद आती। कई कवि तो यह भी कह देते कि उनकी कविता को मैं ही अच्छी तरह समझ रही हूँ, पुराने आलोचक नहीं समझ रहे। शीघ्र ही ऐसा समय आ गया कि जिस भी कवि की कविता की किताब छपती, वह एक प्रति मुझे अवश्य भेजता। समय मिलते ही मैं उस पर परचा लिख भी देती और लिखती भी निष्पक्ष होकर। मेरे लिए अच्छी बात यह थी कि मुझे भी दिल्ली स्कूल ऑफ़ क्रिटिसिज़्म का हिस्सा समझा जाने लगा था।

डॉक्टर हरिभजन सिंह बहुत ही अनुशासित, नियम के पक्के और रिसर्च के मामले में सख़्त अध्यापक थे। मेरे एम.ए. करने के दौरान की अपेक्षा यहाँ वह भिन्न किस्म के अध्यापक थे। एक एक चैप्टर को लिखने के लिए कई कई किताबों को पढ़ना पड़ता। जब मैं चैप्टर लिखकर उनके पास ले जाती तो कई बार वह उसे नकार देते। मुझे दुबारा, तिबारा लिखना पड़ता। कई बार मुझे बहुत गुस्सा भी आता। दिल ऊब जाता, पर क्या किया जा सकता था। जब तक उनकी तसल्ली न होती, वह बार बार लिखवाते रहते। पर इसका लाभ यह हुआ कि उनकी सिखाई हुई बातें उमभ्रर ज्यों की त्यांे याद पड़ी हैं। इतना श्रम करने से मेरी रूपवाद पर पकड़ भी बहुत पुख्ता हो गई थी।

हरिभजन सिंह की संत सिंह सेखों के साथ सैद्धांतिक बहस सदैव ही चलती रहती थी। सेखों बहुत दरियादिल व्यक्ति थे। हर बात बहुत सकारात्मक ढंग से देखा करते थे। डॉक्टर साहब उनकी उपस्थिति में ही उनके सिद्धांत को गलत सिद्ध कर देते, पर सेखों साहब ने कभी भी इसको व्यक्तिगत तौर पर नहीं लिया था। इतने विरोध के बाद भी कोई दुश्मनी वाली बात नहीं थी। एकबार चंडीगढ़ के एक मंच पर से मैंने भी सेखों साहब की आलोचना प्रणाली में दोष निकालते हुए आलेख पढ़ा। मैंने देखा कि सेखों साहब बहुत ध्यान से सुन रहे थे और खुश भी हो रहे थे। कार्यक्रम के बाद सेखों साहब हँसते हुए बोले कि जो दोष मैंने निकाले थे, उनके बारे में तो वह अब तक बेख़बर थे। उनकी उपस्थिति ही वातावरण को सार्थक बना देती थी। सेखों साहब के स्वभाव जैसा खुलापन अन्य किसी स्कॉलर में देखने को नहीं मिला।

सन 1978 में शुरू की पीएच.डी. मैंने सन 1981 में पूरी कर ली। मैं पुनः काम पर जाने लगी। अब मैं डॉक्टर देविंदर कौर थी।

मैं फिर से कालेज में आ गई। डॉक्टर बन जाने के कारण विद्यार्थियों और अध्यापकों में मेरी कुछ कुछ इज्ज़त बनना सहज ही था। प्रिंसीपल भी अब पहले की अपेक्षा मेरी कद्र करने लगी थी। वैसे तो वह सदा ही मेरा साथ देती आई थी। अब एक और बाधा अथवा असुखद बात यह हो रही थी कि मेरे स्थान पर हरचरन कौर को लेक्चरर की नियुक्ति दी हुई थी। मेरे आ जाने से उसकी नौकरी का क्या होगा, मैं सोचने लगी। वह पहले ही बहुत समय तक खाली रहकर नौकरी पर लगी थी। इस बात को लेकर मैं भी स्वयं को अप्रसन्न महसूस कर रही थी, परंतु मेरे वश में कुछ नहीं था। इस बात का हरचरन कौर को भी पता था कि मेरे आने से उसकी नौकरी जाती रहेगी। उसने कोशिश करके कालेज में कुछ और विद्यार्थी दाखि़ल कर लिए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी पार्ट टाइम नौकरी बनी रह गई। इससे मुझे भी कुछ तसल्ली थी। यूँ कह लो कि हमारे कालेज के पंजाबी विभाग में अब डेढ़ नौकरी हो गई थी। हमारे कालेज को नये विद्यार्थियों की हमेशा ही आवश्यकता रही थी। इसमें नवतेज पुआधी ने हमारी बहुत मदद की। उसकी बेटी मेरी विद्यार्थी थी। नवतेज पुआधी कहानीकार होने के साथ साथ नेता किस्म का व्यक्ति भी था। उसकी अच्छी खासी वाकफियत थी। वह दूर दूर से विद्यार्थी ले आया करता था। फिर हमने विद्यार्थियों के दाखि़ले के लिए कुछ विशेष सुविधायें भी आरंभ कर दी थीं। जैसे यदि किसी विद्यार्थी के नंबर कम हों और वह पंजाबी विषय ले ले तो उसको प्रवेश मिल सकता था। इस प्रकार करीब दो वर्ष की भागदौड़ के बाद कालेज में दो लेक्चरर के लायक जगह बन गई थी। मैं तो ख़ैर इस विभाग की हैड थी, अब दूसरी अध्यापिका को स्थायी तौर पर रखा जाना था। हरचरन कौर पार्ट टाइम लेक्चरर थी ही, पर लेक्चरर के इस पद को विज्ञापित किया गया। बहुत सारे आवेदन पत्र आए। समय की सियासत कुछ ऐसी चली कि हरचरन कौर के स्थान पर किसी दूसरे को यह पद जाता दिखाई देने लगा। लेकिन हरचरन कौर प्रिंसीपल की चहेती भी थी, किसी न किसी प्रकार यह नौकरी उसने अपने हक़ में सुरक्षित कर ली। हरचरन कौर को नौकरी तो मिल गई, पर दुर्भाग्य से दूसरे पक्ष के साथ मुकदमेबाजी शुरू हो गई। हरचरन कौर को वकीलों, कचेहरियों के चक्कर लगाने पड़ गए और बहुत साल लगाने पड़े। बल्कि यह कह लो, जब तक उसने नौकरी की, मुकदमेबाजी में ही फंसी रही।

अब कालेज में मेरे पास करने के लिए पहले की अपेक्षा बहुत कुछ था। अब मैं लगातार यूनिवर्सिटी जाती रहती थी। बहुस से मित्र वहाँ आते, पंजाब भर के लेखक रिसर्च फ्लोर पर पहुँचते, हम आपस में बातें करते। हर समय साहित्य की बातें होती रहतीं। डॉक्टर हरिभजन सिंह भी आ जाते। डॉक्टर साहब के इर्दगिर्द तो हर वक्त एक साहित्यिक छतरी-सी तनी रहती जिसके नीचे खड़ा होने का अपना ही आनंद होता। हर लेखक उनकी निकटता का आनंद लेना चाहता। कहीं भी लेखकों की महफ़िल जमी होती तो खूब बातें होतीं, बहसें चलती रहतीं, आते-जाते लोग हिस्सा लेने लगते। कई किसी काम के कारण चुपचाप उठकर चले भी जाते। कई बार हरिभजन सिंह इन महफ़िलों की शोभा होते और कई बार डॉक्टर नूर। दोनों ही बड़ी शख्सियतें थीं। पर डॉ. साहिब अब रिटायर होने वाले थे। मैं और मनजीत सिंह, दोनों ही उनके पीएच.डी. के आखि़री विद्यार्थी थे। इस बात की खुशी थी कि उनके रिटायर होने से पहले हम दोनों की पीएच.डी. पूरी हो चुकी थी। यद्यपि मेरी डिग्री मिलने में कुछ ईष्र्यालू लोगों द्वारा बाधायें डाली गई थीं और मेरी फाइल ही गुम करा दी गई थी। परंतु डॉ. रवि चैधरी की सहायता से मेरी फाइल निकलवाकर समय से मेरा वायवा करवाकर डॉक्टर साहब के रहते हुए ही मुझे मेरी डिग्री दिलवा दी गई थी। ये ईष्र्यालू लोग कौन थे, मुझे आज तक पता नहीं चला और न ही मैंने अपने स्वभाव के अनुसार अधिक जानने की कोशिश ही की थी। मुझे डिग्री मिल गई थी, मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था। हाँ, डॉ. रवि चौधरी की मैं दिल से आभारी थी। डॉ. चौधरी मेरी कालेज की सहेली और कुलीग सरला चैधरी के पति थे जो सी.बी.आई में बड़े अधिकारी होने के कारण ऐसे कामों में मदद कर सकते थे।

1983 में मेरी पहली किताब प्रकाशित हुई - ‘क्रिया प्रतिक्रिया’। यह आलोचना की किताब थी। मेरी पहली किताब होने के कारण मैं बहुत खुश थी। मैं इसकी एक प्रति डॉ. हरिभजन सिंह जी को दे आई। उन्होंने किताब लेकर एक तरफ रख ली। मैंने सोचा कि शायद वह पढ़ें ही न। कुछ इस बात से भी डर रही थी कि मैंने यह किताब उनको सरप्राइज़ के तौर पर भी दी थी। पहले उनके साथ इस किताब को लेकर कोई बात नहीं की थी। हाँ, डॉ. साहिब की प्रतिक्रिया की अवश्य प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ दिन बाद दिल्ली से ही छपने वाली पत्रिका ‘आरसी’ में उन्होंने मेरी किताब का रिव्यू लिखा। ‘आरसी’ उस समय सबसे बड़ा पंजाबी परचा गिना जाता था। यह रिव्यू पढ़ते ही मेरी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। मैं खुशी में उड़ने लगी। उन्होंने मेरे आलोचक होने पर मोहर लगा दी थी। यह भी सच था कि उनकी मोहर को समूचा पंजाबी साहित्य जगत अंतिम मानता था। उन्होंने मेरी आलोचना के बारे कहा कि यह किसी भी राजनीति से ऊपर उठकर की गई आलोचना थी। उनके शब्दों को मैं यहाँ हवाले के तौर पर प्रस्तुत करना चाहूँगी -

“किसी भी पीढ़ी का साहित्यिक लेखन तभी प्रफुल्लित हो सकता है यदि वह अपने क़द की समीक्षा पैदा करे। इस महीने के कॉलम के लिए मैं एक सृजनात्मक रचना का चयन कर चुका था, उस पर लिखने की सोच ही रहा था कि एक नई लेखिका का समीक्षात्मक प्रयास मेरी नज़र में पड़ा। प्रामाणिक समीक्षा का तो जैसे अकाल ही पड़ा हुआ है। इस पुस्तक की ठोस विद्ववता, संतुलित विश्लेषण, वैज्ञानिक पहुँच और प्रशंसा-निंदा से ऊपर की पवित्र शब्दावली ने इस हद तक प्रभावित किया कि पहले तय किए काम को आगे के लिए सुरक्षित रखकर मैंने इस पुस्तक का स्वागत करने का मन बनाया है। समीक्षा, साहित्य का हंुकारा है, पर इसको(समीक्षा को) स्वयं ही हुंकारे की ज़रूरत है।

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नये कवियों के साथ इतना भरपूर, फिर भी सहज, न्याय कम ही देखने में आया है। यह पुस्तक विशुद्ध अध्ययन है, कहीं प्रशंसा-निंदा वर्णन नहीं, दिशा दिखाने का अहं नहीं, समीक्षा को सृजन की कीमत पर बड़ा दर्शाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भ्रम नहीं।”

(आरसी, जुलाई, 1983, पृष्ठ 18)

उनके इन शब्दों ने मुझे सदा के लिए साहित्य और विशेष तौर पर आलोचना से जोड़ दिया। उसके बाद साहित्य ही मेरी ज़िन्दगी बन गया। मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि मैं किसी भी अन्य वस्तु के बग़ैर जी सकती हूँ, पर साहित्य के बिना नहीं। साहित्य को लेकर होती बातचीत मुझ बीमार को भी ठीक कर देती है। इसके साथ ही मैंने अपने पीएच.डी. के थीसिस को भी पुस्तक के रूप में छपवा लिया। उसे भी पंजाबी पाठकों द्वारा काफ़ी पसंद किया गया। इसके साथ पंजाबी साहित्य के आलोचना जगत में मुझे और अधिक पहचान मिली। डॉ. साहब ने इस थीसिस की भूमिका में लिखते हुए इस प्रकार कहा -

“सुश्री देविंदर कौर हालांकि शोध कार्य की ओर ज़रा विलंब से आई, फिर भी उसने कैसे ने कैसे शोध कार्य को समाप्त करने की उतावली नहीं दिखाई। उसकी इच्छा यही थी कि मैं इस क्षेत्र में अपने विलक्षण हस्ताक्षर अंकित करूँ और इस कार्य के लिए वह भली प्रकार तैयार भी थी। पंजाबी में शोध कार्य आरंभ करने से पहले वह अंग्रेजी में एम.ए. कर चुकी थी और उसके अंदर अंग्रेजी भाषा की उन पुस्तकों को देखने-परखने की योग्यता थी जिनकी लकीर पर उन दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी के पंजाबी अध्यापक चल रहे थे।”

(वीर सिंह - काव्य का रूप-वैज्ञानिक अध्ययन, पृष्ठ-ਓ)

“पंजाबी शोध को देखते हुए मुझे इस बात का बड़ा तल्ख़ अनुभव है। मुझे बहुत कम विद्यार्थी मिले जो भिन्न भिन्न अंतर्दृष्टियों की बजाय सम्पूर्ण सिस्टम का ज्ञान प्राप्त करने की ओर रुचि रखते हों। फिर जब मुझे ऐसा विद्यार्थी मिला, मुझे अपनी इच्छा के कठिन राह पर चलने की तसल्ली प्राप्त होती रही। देविंदर कौर मेरी ऐसी ही एक विद्यार्थी थी। उसने अपना शोध प्रबंध निर्धारित समय के अंदर पूरा किया, परंतु इतना समय भी एकाग्र चित्त मेहनत, चिंतन, लेखन और पुनर्लेखन का समय था। अपने कालेज से उसने दो वर्ष की छुट्टी ले रखी थी। इस अवधि में उसने एक दिन भी किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया। ऐसा विद्यार्थी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है।”

(वही, पृष्ठ - ਅ)

उस किताब पर भी कई रिव्यु हुए। इस प्रकार, मेरा और अधिक उत्साहवर्धन हो गया और साथ ही, साहित्य के साथ मेरा रिश्ता और अधिक मजबूत होता गया।

इस कार्य ने मुझे इतना हौसला दिया कि मैंने एक एक कवि की एक कविता लेकर निरंतर लेख लिखने प्रारंभ कर दिए। मैं कविता का धैर्यपूर्वक मुल्यांकन करती। मुझे समीक्षा में से सृजन जैसा आनंद आने लगता। दिल्ली और दिल्ली से बाहर बहुत सारे नये लेखक थे, पंजाब में भी अच्छी कविता लिखी जा रही थी। मेरे लिखे लेखों का अमृता प्रीतम को पता चला। मैं मोहनजीत की कविता ‘सुंदरा’ पर एक समीक्षात्मक लेख लिखकर मोहनजीत के ही संग उनके पास गई। उन्होंने लेख देखा और कहा कि यदि मैं ऐसे लेख निरंतर ‘नागमणि’ के लिए लिखा करूँ तो कैसा रहेगा ? मेरे हाँ कहने पर उन्होंने ही एक काॅलम का नाम ‘पाँचवा चिराग’ रख दिया। ‘नागमणि’ की पंजाबी साहित्य में बहुत बड़ी जगह थी। उसमें छपना ही बहुत बड़ी बात थी, उसमें कोई कॉलम शुरू करना तो उससे भी बड़ी बात थी। मैं ‘नागमणि’ में निरंतर लिखने लगी। मेरा यह कॉलम पूरे एक साल चला। इस प्रकार मेरे पास बारह लेख हो गए। मैंने ‘पाँचवा चिराग’ शीर्षक से एक किताब छपवा ली। यह किताब भी खूब चर्चा का विषय बनी। सन चौरासी के दंगों के बाद जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि दिल्ली में पंजाबियों की आँखें पोंछने के लिए सरकार ने पंजाबी अकादेमी बना दी थी, इस अकादेगी ने कई पुरस्कार, सम्मान भी प्रारंभ कर दिए थे। इसकी गवर्निंग बॉडी ने मेरी इस किताब ‘पाँचवा चिराग’ को वर्ष 1985 का श्रेष्ठ गद्य पुरस्कार देने का निर्णय कर लिया। अकादेमी द्वारा मुझे एक विशेष समारोह में 5100 रुपये का यह इनाम दिया गया। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी। दरअसल, यह मेरे ईमानदारी से किए गए काम की शनाख़्त थी जिसने मुझे समीक्षा कर्म से और अधिक गहराई के साथ जोड़ दिया।

अब मैं आलोचक बन चुकी थी। मेरे लिखे आलोचनात्मक लेख ‘अक्स’ तथा अन्य पत्रिकाओं व अख़बारों में भी छपने लगे थे। अपने कालेज में भी अब मैं सिर्फ़ अध्यापिका ही नहीं थी, बल्कि एक प्रसिद्ध लेखिका भी थी। प्रिंसीपल की दृष्टि में मेरी इज्ज़त और अधिक बढ़ गई। अपने अंदर की हीनभावना से भी मैं बाहर निकलने लगी। ज़िन्दगी सकारथ लगने लगी।

(जारी…)