बहीखाता - 15 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 15

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

15

सह-संपादक

अब मैंने साहित्य में आगे के कदम रखने शुरू कर दिए थे। मेरा एक मुकाम बन चुका था। जब भी नई आलोचना की बात आती तो मेरा नाम सबसे आगे दिखता। नई पीढ़ी के कवि मुझसे ही अपनी किताब की आलोचना करवाना चाहते। मेरी निष्पक्षता की सभी दाद देते। दिल्ली से ही एक मैगज़ीन निकलता था - कौमी एकता। यह शायद उस समय के सभी परचों में सबसे अधिक छपता था। यह मैगज़ीन पंजाबी लोगों के हर घर का सिंगार बना हुआ था। इसमें हर प्रकार के पाठक के पढ़ने के लिए कुछ न कुछ होता था और इस मैगज़ीन के सिर्फ़ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी पाठक थे। इसके एडीटर तो राजिंदर सिंह भाटिया थे, पर डॉक्टर सुतिंदर सिंह नूर भी इसके साथ किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे। उन्होंने मुझे इस मैगज़ीन के लिए निरंतर कॉलम लिखने के लिए कहा। मैंने ‘औरतनामा’ शीर्षक से एक कॉलम प्रारंभ कर दिया। इसमें मैं स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं को लेकर लेख लिखती। ऐसी समस्यायें जिनके विषय में आम स्त्रियाँ बात करने से डरती हैं जैसे कि औरत और विवाह, औरत और तलाक, औरत और सेक्स। यह ऐसे विषय थे जिनके बारे में दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए बात करना ज़रूरी था। मेरे लेखों को बहुत दिलचस्पी से पढ़ा जाने लगा। इन पर विचार भी किया जा रहा था। ढेर सारे ख़त ‘लैटर टू एडिटर’ कॉलम में छपते थे। मेरे लेख स्त्रियों में जाग्रती लाते थे। उन्हें शिक्षित करते थे। नूर साहब बहुत खुश थे। पर साथ ही साथ उनके पास शिकायतें भी आनी प्रारंभ हो गईं। इनमें से अधिकांश शिकायतें ईष्र्या में से ही निकली हुई थीं। नूर साहब मुझे हमेशा हौसला देते रहे। मेरा यह कॉलम भी पूरे एक वर्ष चला। मुझे इसने अनेक पाठक और प्रशंसक दिए। अब मैं आलोचक के साथ साथ लेखिका भी बन गई थी।

यह यात्रा यहीं पर नहीं रुकी। पंजाबी अकादेमी, दिल्ली द्वारा ‘समदर्शी’ नाम की पत्रिका भी शुरू की गई जिसके संपादक के लिए अमृता प्रीतम के नाम का चयन किया गया। इस पत्रिका में भी मेरे कई लेख शामिल किए गए जिनमें से बहुत सारे लेख पंजाबी कविता को लेकर थे। इन लेखों में सात कवियों की एक एक कविता लेकर सृजनात्मक समीक्षा करनी होती थी। अमृता प्रीतम को विशुद्ध अकादमिक आलोचना बड़ी रूखी लगा करती थी। मेरी आलोचना में सृजनात्मकता होने के कारण ही मेरे लेख उन्हें बहुत पसंद आते थे।

मैत्रेयी कालेज में भी मेरी सरगरमियाँ आगे बढ़ने लगीं। पंजाबी अकादेमी, दिल्ली की सहायता से हम अपने कालेज में शख़्सियत सेमिनार आयोजित करने लगे। एक सेमिनार पंजाबी लोकयान के विद्वान वंजारा बेदी पर किया गया जिस में विषय के विशेषज्ञों जैसे केसर सिंह केसर, नाहर सिंह तथा अन्य लेखकों को परचाकारों के तौर पर आमंत्रित किया गया। वंजारा बेदी स्वयं इस समारोह में शामिल हुए। कुल मिलाकर 10 परचे पढ़े गए जिसमें एक परचा मेरा भी था। विभाग की हैड होने के नाते मैंने सारे पेपर एकत्र करके, उन्हें पुस्तक रूप में एडिट किया तथा उसे अपनी भूमिका सहित पंजाबी अकादेमी, दिल्ली के दफ्तर में जमा करवा दिया। पंजाबी अकादेमी को ही इसको छापने का प्रबंध करना था।

इन्हीं दिनों मेरा इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बन गया। रिश्ते में लगते मेरे एक भाई-भाभी लंदन के हैरो इलाके में रहते थे। वे जब भी भारत आते तो हमारे घर अवश्य आते। उन्होंने मुझे बुलाया और मैं इंग्लैंड जाने की तैयारी करने लगी। प्रिंसीपल ने मेरी छुट्टी मंजूर कर दी और मैं इंग्लैंड जा पहुँची। इंग्लैंड जाने का यह मेरा प्रथम और बिल्कुल नया अनुभव था। दिल्ली से अन्य दोस्त जाते रहते थे। डॉक्टर हरिभजन सिंह कईबार जा चुके थे। गार्गी जाता रहता था। कुछ वर्ष पूर्व इंग्लैंड में पंजाबी की वर्ल्ड कान्फ्रेंस हुई थी तो दिल्ली के सभी पंजाबी लेखक वहाँ होकर आए थे। वहाँ से पंजाबी के लेखक स्वर्ण चंदन आते रहते थे जिनके मैंने यूनिवर्सिटी में कई लेक्चर सुने हुए थे। एकबार बातचीत करने का अवसर भी मिला था। इंग्लैंड में पंजाबी के बहुत सारे लेखक रहते थे। प्रवासी साहित्य का बोलबाला भी था, इसलिए इंग्लैंड जाना मेरे लिए एक खुशी की तरह ही था। इसी प्रकार नये अनुभव की आस में और नई दुनिया को जानने की तमन्ना के साथ मैं इंग्लैंड जा पहुँची। इंग्लैंड में डॉ. हरिभजन सिंह के मित्र सुलक्खन सिंह रहते थे जिनके बारे में उन्होंने एक आर्टीकल भी लिखा था - गुम हुआ बस्ता। एक अन्य रेडियो वाले हरिभजन के दोस्त रसाल रंधावा जी भी रहते थे जो एक-दो बार इंडिया आने पर मिल चुके थे। मैं वहाँ के लेखकों से भी मिलना चाहती थी। एक दिन अपने भाई-भाभी के साथ मैं साउथाल सुलक्खन सिंह के घर गई। वहीं बैठे बैठे लेखकों की बातें चल पड़ीं। स्वर्ण चंदन की बात चली तो सुलक्खन सिंह बोले कि वह लाइब्रेरी में काम करते हैं और लाइब्रेरी हमारे घर के करीब ही है। यदि मिलना है तो मिलवा देते हैं। मेरे ‘हाँ’ कहने पर वह हमें लाइब्रेरी ले गए। वहाँ चंदन साहब के साथ मुलाकात हुई। और वहीं बैठे-बैठे ही एक प्रोग्राम बना लिया गया और मुझे पंजाबी कविता पर पेपर लिखने के लिए कह दिया। मैंने परचा लिख लिया और प्रोग्राम में पहुँचकर गुरदयाल सिंह फुल्ल जी की अध्यक्षता में मैंने वह परचा पढ़ा। वहाँ इंग्लैंड के बहुत सारे लेखक आए हुए थे, उन्होंने मेरे परचे पर मिलीजुली प्रतिक्रियाएँ दीं। उनकी यह आपत्ति थी कि मैंने इंग्लैंड की पंजाबी कविता को अपने पेपर में अधिक स्थान नहीं दिया, अधिकतर बात भारत के कवियों को लेकर ही थी। मैं यह वायदा करके कि अब इंग्लैंड की पंजाबी कविता के बारे में जमकर पढ़ूँगी, प्रोग्राम के बाद घर लौट आई। उसके बाद एकबार जगतार ढाअ के घर में साथी लुधियानवी और बलदेव बावा से मिली। अनेक बातें हुईं। बाद में मैं साथी लुधियानवी से कईबार उनके बिजनेस वाले स्थान पर मिलती रही। कारण, उनका दफ्तर मेरी भाभी के घर के बहुत निकट था।

इसके पश्चात एकबार मैं स्वर्ण चंदन से मिलने उनके घर भी गई। उन दिनों वह अपनी बेटी अलका के विवाह की तैयारियों के कारण बहुत व्यस्त थे। फिर भी, उन्होंने एक दिन मुझे लंदन घुमाने का वायदा कर लिया। मैं उनके संग लंदन के प्रमुख स्थल जैसे ब्रिटिश म्युजियम, टेट गैलरी, डिलन बुकशॉप और ट्रफाल्गर स्क्वेयर आदि देखे। ट्रफाल्गर स्क्वेयर के एक कोने में बैठकर हमने अपनी ज़िन्दगी की कई बातें साझी कीं। वापस लौटते हुए राह में एक पब में बैठकर स्वर्ण चंदन ने अपनी पहली पत्नी सुरजीत की बुराई शुरू कर दी। मैंने उसने कहा, “पर ये बातें आप मुझसे क्यों कर रहे हैं ?” वह चुप हो गए और वहाँ से उठकर वह मुझे मेरी भाभी के घर छोड़ गए। मेरे कहने पर मेरे भाई ने चंदन साहब और उसकी पत्नी को एक दिन शाम के खाने पर भी बुलाया। वह अपनी पत्नी के संग आए। बातचीत की और साथ ही अलका के विवाह का कार्ड भी दे गए। हम तीन लोग अलका के विवाह पर गए। वहाँ भी काफी लेखक आए हुए थे। विवाह अटेंड कर हम घर आ गए। बहुत धूमधाम वाला विवाह था।

कईबार बहुत कुछ अच्छा चलते-चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है। ऐसे ही कुछ हुआ मेरे साथ मेरी इस फेरी के समय। जिस भाई के घर मैं रह रही थी, उसकी पत्नी ने मेरे पैसे चोरी कर लिए। मेरे लिए अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई थी। हुआ यूँ कि मैं पाँच सौ डॉलर अपने संग ले जा सकती थी। दिल्ली से ही मैं उन्हें पौंड में बदलवाकर ट्रैवलर चैक बनवाकर ले आई थी। कुल 340 पौंड बनते थे। वहाँ पहुँचकर मैं अपनी भाभी के संग बैंक गई और अपनी भाभी की सलाह के अनुसार खर्च के लिए सारे पैसे कैश करवाकर ले आई। अगले दिन क्या देखती हूँ कि उसमें से एक सौ साठ पौंड गायब थे। घर में मेरी वही भाभी थी, पर वह मानकर राजी नहीं थी। मैं बहुत परेशान हुई। ज़रा-सी शिकायत करने के अलावा और कर भी क्या सकती थी। मैंने अपनी बड़ी भाभी के साथ बात की तो उसने बताया कि उस औरत को चोरी करने की आदत है। एकबार उसने अपने जेठ की जेब में से भी पैसे निकाल लिए थे। भाई मेरा तो शरम से ही मरा जा रहा था। बाद में भी वह मुझसे खुलकर नहीं मिल सका था। मैंने इंग्लैंड से वापस इंडिया आकर इस बारे मे एक लेख भी लिखा था जो ‘नागमणि’ में छपा था। इसके अलावा मेरा एक लेख ‘गल दरियाओं पार दी’(बात दरिया पार की) ‘समदर्शी’ पत्रिका में भी छपा था जिसमें पंजाबी लेखकों से मिलने के अनुभव प्रस्तुत किए गए थे।

मैं वापस इंडिया पहुँची तो मेरे द्वारा संपादित पुस्तक छपकर आ गई थी। मैं देखकर दंग रह गई थी कि मेरे नाम के साथ ही सह-संपादक का नाम भी छपा था। यह सह-संपादक मेरी सहयोगी तो अवश्य थी, पर उसने किताब पर की गई मेरी सारी मेहनत पर किसी न किसी तरह से अपना नाम भी डलवा लिया था। मुझे बहुत दुख हुआ क्योंकि यह काम मेरी अनुपस्थिति में किया गया था। मुझे लग रहा था मानो किसी ने मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया हो। मैं स्वयं को बहुत समझाती, पर इसके बारे में सोचने से अपने आप को न रोक पाती। किसी ने सलाह दी कि मैं इस बारे में कानूनी सलाह लूँ। हमारी ही गली में रमेश कुमार नाम का एक वकील रहता था। मैंने उससे बात की। उसने मुझे एक अन्य वकील के पास भेज दिया। मैं उस वकील के दफ्तर में गई। उस वकील से मिलकर मुझे अजीब-सा महसूस होने लगा। वह मेरी तरफ अजीब नज़रों से देख रहा था। मेरे अंदर की औरत असहज होने लगी। उसने काफ़ी देर तक मुझे अपने दफ्तर में बिठाये रखा। मुझे लगा, मैं गलत जगह आ गई थी। उसका मेरी ओर देखना ही मुझे असहज कर रहा था। मैं सोचने लगी कि मैं कैसे अजीब से हालात में घिर गई हूँ। तभी, मुझे चूचो का मामा याद हो आया और बलाकी का थप्पड़ भी। मैं वहाँ से उठकर जाने की तैयारी करने लगी। शायद वकील मेरे अंदर की हिलजुल को समझ गया था। वह बोला कि मैं शाम के वक्त कचेहरी में उसके कैबिन में मिलूँ। मैं बहाना बनाकर वकील के दफ्तर से उठ पड़ी और बाहर आते ही थ्री-व्हीलर पकड़कर सीधे घर आ गईं। बड़ी कठिनाई से मैंने स्वयं को समझाकर मुकदमेबाजी से दूर ही रहने का फैसला किया और पुस्तक से जुड़े सह संपादक के नाम को कड़वे घूंट की तरह स्वीकार कर लिया, जिसका पुस्तक एडिट करने में कोई हाथ नहीं था। दरअसल, मैं वकील की नज़रों और उसके नापाक इरादे से डर गई थी और उससे बचना चाहती थी। मेरे लिए उस समय किताब की अपेक्षा मेरी अपनी इज्ज़त कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी।

(जारी…)