दो अजनबी और वो आवाज़ - 5 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

दो अजनबी और वो आवाज़ - 5

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-5

जैसे मैं किसी अंधेरे कमरे में बंद हूँ, जहां चाहकर भी मैं कुछ देख नहीं पा रही हूँ। अंधेरा इतना घना है कि हाथ को हाथ की सुध नहीं, मानो जैसे मैं सच में अंधी हो गयी हूँ। आती हुई आवाज़ें मुझे परेशान कर रही हैं। मैं बेचैनी से छटपटा रही हूँ। सुनो तुम कौन हो...? मैं अब भी नहीं जान पायी हूँ। लेकिन अभी इस वक़्त तुम्हारी आवाज मुझे डरा रही है। मुझे यहाँ से बाहर निकालो प्लीज....नहीं तो मैं मर जाऊँगी।

मैं देख क्यूँ नहीं पा रही हूँ। क्या मैं सच में नेत्रहीन हो गयी हूँ। या फिर यह मेरा वहम है। तुम चुप क्यूँ हो, कुछ बोलते क्यूँ नहीं??कोई आवाज नहीं आयी। सुनो तुम यूं मुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकते। मैं परेशान होकर ज़ोर ज़ोर से दरवाजा पीटने लगती हूँ। कोई है...कोई है? सुनो कोई है ? मेरी मदद करो प्लीज....! मुझे यहाँ से बाहर निकालो। डर और परेशानी के भाव मेरी आवाज में साफ छलक रहें है। मदद मांगते- मांगते गला रुँध गया मेरा, मुझे उस वक़्त कोई सहायता नहीं मिली। मैं थक हारकर रोने लगती हूँ। वही आवाज...मैंने कितनी बार कहा है कि मुझे तुम्हारी आँखों में आँसू अच्छे नहीं लगते। तुम्हें समझ नहीं आता है क्या, हाँ जानती हूँ मैं बार-बार मुझे एक ही बात बताने की जरूरत नहीं है।

मैंने रोते-रोते ही उसे तपाक से जवाब दे दिया। जैसे उसके होने के एहसास ने मुझे थोडी सी हिम्मत दे दी थी। शायद कि अब वो है तो अकेली नहीं हूँ मैं, इतना भरोसा कैसा था मुझे उस आवाज पर, अभी अभी कुछ देर पहले जब डर से काँपते हुए मैं सहायता के लिए गुहार लगा रही थी। तब जिस आवाज का मैं इंतज़ार कर रही थी, क्या यह वही आवाज़ थी ? ऐसे न जाने कितने सवाल मेरे दिमाग में एक साथ आए और आकर चले गये। जैसे किसी ने सवालों की स्टेंगन सी चला दी हो मेरे दिमाग में, देखते ही देखते मुझे कमरे की संद में से एक रोशनी सी आती हुई दिखायी देती है। जो मुझ में, आशा की एक किरण जागा देती है। मैं खुश हो जाती हूँ कि मुझे एकदम से ऐसा लगता है जैसी किसी ने मेरे चेहरे पर कैमरे की फ्लेश लाइट से आक्रमण किया। जिससे मेरी आँखें चुँधिया गयी और जब कोशिश करके मैंने अपनी आँखें खोली, तो मैंने उस वक़्त अपने आप को एक सुनसान बियाबान बीहड़ में पाया।

जहां चारों ओर नज़र घूमने के बाद सिर्फ रेत ही रेत दिखाई दे रही थी। तापमान इतना तेज़ था की सूर्य की किरनें आग की लपटों सी लग रही थी। सूर्य की तपन अपने चरम पर थी। गर्मी से बदहाल में पसीने से नहा चुकी थी। धूप से मेरा रंग काला पड़ चुका था और धूप से मेरा सर चकरा रहा है। मुझे प्यास भी बहुत तेज़ लग रही है। लेकिन दूर-दूर तक न कोई इंसान दिखायी दे रहा है और न ही कोई पशु पक्षी, मैं पानी की तलाश में बस चलती चली जा रही हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं कहाँ आ गयी हूँ। अभी कुछ देर पहले तक तो मैं बारिश में भीग भीग कर बारिश से परेशान थी और अब पानी के लिए तरस रही हूँ। प्यास इस कदर लग रही है कि गरम रेत भी मृग तृष्णा के समान पानी जैसी दिखायी दे रही है। लेकिन पास जाते ही पानी गायब हो जाता है और रेत शेष रह जाती है।

लेकिन मेरे दिलो दिमाग में अभी इतना कुछ चल रहा है कि अभी शारीरिक जरूरतें हावी नहीं हो पायी हैं मुझ पर, चटक धूप में चलते चलते अब पैरों में छाले हो चले हैं। यही सब सोचते-सोचते मैं एक गाँव के निकट आ पहुंची हूँ। जहां एक चाय की दुकान पर राजिस्थानी पगड़ी पहने एक काका खड़े हैं। मैं उन्हें नहीं जानती। लेकिन फिर भी उनसे निवेदन करते हुए कहती हूँ कि एक गिलास ठंडा पानी मिलेगा का क्या काका सा। वह मुझे पानी देने ही वाले होते हैं कि सहसा एक काकी सा आकर उन्हें रोक लेती हैं। क्या गज़ब करे है छोरी...तन्ने समझ नहीं आवे है के लोहे को लोहा काटे है। गर्मी में पानी नहीं चाय पियो चाय। इतनी गर्मी में चाय...! क्या बात करो हो काकी सा ? इस मौसम में यदि मैंने चाय पीली न तो मैं पेट की जलन से मर जाऊँगी। हाओ ...रे भाई जी, इस छोरी ने चाय देवो पानी ना देना।

इसके पहले कि मैं उनसे कुछ कह पाती वह मौसी कुछ दूर जाकर गायब हो जाती है। मैं उनके पीछे-पीछे जाकर भी देखती हूँ पर सिवाय रेगिस्तान के मुझे कुछ नज़र नहीं आया। फिर मैंने सोचा छोड़ो जाने दो। होगी कोई...मुझे क्या मैं तो यहाँ से एक बोतल पानी ले लेती हूँ। फिर सोचूँगी कि मुझे आगे क्या करना है। ऐसा सोचते-सोचते जैसे ही मैं पलटती हूँ, वहाँ से सब गायब हो जाता है। अब इस पल में वहाँ न कोई बस्ती है, न कोई चाय की दुकान। अगर कुछ है तो वह है सिर्फ ओर सिर्फ दूर.....तक फैला रेगिस्तान। मैं भागकर यहाँ वहाँ देखती हूँ कि अभी तो बहुत से लोग थे यहाँ, अचानक कहाँ गायब हो गए सब। मैं भेरा-भेराकर उन्हें ढूँढने कि नाकाम कोशिश करने लगती हूँ, मगर मुझे कोई दिखायी नहीं देता।

अब मैं उन लोगों में से एक हो गई हूँ जो आम जन जीवन देखने के लिए तरस जाते होंगे, कि इंसान कैसा होता है। इस विकट परिस्त्तिथी में मुझे एहसास हो रह है कि वो दिन कैसा होगा जब इंसान लुप्त हो जाएगा। तब शायद दूसरी दुनिया के लोग अपने बच्चों को किताबों में फोटो दिखा-दिखाकर यह समझाएंगे कि देखो बेटा ऐसा हुआ करता था इंसान, जो अब लुप्त हो चुका है। धत मैं भी क्या क्या ऊल जलूल सोचे जा रही हूँ। मत मारी गयी है मेरी, मैं कौन सा तब तक जिंदा रहने वाली हूँ। बल्कि अभी तो जैसे हालात चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए तो ऐसा लगता जल्द ही मरने वाली हूँ मैं, कभी भी, कुछ भी हो सकता है। यूं भी “मौत से डर नहीं लगता साहिब ज़िंदगी से डर लगता है”। कमबख्त बड़ी बे रहम होती है यह ज़िंदगी, हमेशा अपनी-अपनी ही चलाती है। कभी मेरे मन का होने ही नहीं देती।

यही सब उलटी सीधी बातें सोचते हुए मैं आगे बढ़ रही हूँ। पाओ रेत में धस धस जाते हैं, चलना मुहाल है। आदत जो नहीं है रेतीली ज़मीन पर चलने की, ना जाने क्यूँ मुझे रह रहकर वह अजनबी मौसी बहुत याद आ रही है। लेकिन उनके जाने के बाद से अब न मुझे भूख लग रही है न प्यास लग रही है। मैं अब बस उस अजनबी आवाज को ढूँढने की कोशिश कर रही हूँ। पिछले कुछ दिनों में आदत सी हो गयी है मुझे उस आवाज की, जरा देर सुनाई ना दे, तो बहुत अजीब सा लगने लगता है। मैं उसे पुकारते हुए कहती हूँ। अरे कहाँ गायब हो गए....वैसे तो सारा-सारा दिन चकोले मारा करते हो मेरे साथ और आज तो सुबह से तुम्हारी आवाज सुनायी नहीं दी। इस बार उस आवाज का जवाब कुछ इस तरह आया मानो कोई आकाशवाणी हो रही हो। यह क्या पागल पन है, मेरे अलावा भी तो तुम्हारी अपनी एक ज़िंदगी है। अपने कई और भाई बंधु है। अब तुम उनकी चिंता करो और अपनी ज़िंदगी जियो। अब तुम्हें मेरी कोई जरूरत नहीं। अच्छा जी…..ह क्या बात हुई। अब मुझे अपनी ज़िंदगी में किस की जरूरत है, किस की नहीं। यह भी अब तुम ही तय करोगे ? तो मेरी ज़िंदगी मेरी कहाँ रही।

बदले में कोई जवाब नहीं सिर्फ एक खामोशी और उस खामोशी को ज़रा ज़रा भंग करती हुई हवा के संग रेत उड़ने की आवाज और कोई शोर नहीं, मुझे उस आवाज के बाद की ऐसी खामोशी बहुत अखरती है। मैं परेशान हो जाती हूँ, इस अंदर तक चीर देने वाली खामोशी के बाद। शायद इसलिए मुझे अन्य इंसान की तलाश है। मैं बस भाग रही हूँ, मगर किस से यह शायद मैं खुद भी नहीं जानती। मैं बस भाग रही हूँ कि कहीं पहुँच सकूँ। क्यूंकि न मुझे रास्ते का पता है, न मंजिल का फिर भी मैं कहीं तो पहुँचना चाहती हूँ। जहां मुझे अपने अनगिनत सवालों के जवाब मिल सकें। जहां मुझे चार लोग मिल सकें। जिन्हें मैं छूकर देख सकूँ के वह लोग वास्तव में हैं भी या नहीं, चार लोगों से मुझे दुनिया के वह चार लोग याद आ रहे है। जिनसे दुनिया अकसर परेशान रहा करती है। जो कभी दिखायी नहीं देते। किन्तु उनकी बातों का प्रभाव पूरे समाज को प्रभावित करता है। अपने-आप से ही बातें करती हुई मैं आगे बढ़ रही हूँ।

यूं ही चलते चलते मुझे घी की खुशबू आने लगती है। मैं रुक जाती हूँ, इधर उधर देखती हूँ कोई दिख तो रहा नहीं है आस-पास, फिर यह देसी घी की खुशबू आ कहाँ से रही है। जो मेरा मन ललचा रही है। यूं भी ऐसा लग रहा है खाना खाये ज़माना बीत गया हो जैसे, मैं आँखें बंद करके अपनी गहरी साँसों के द्वारा उस देसी घी की सुगंध का आनंद लेने लगती हूँ, मेरी आँखों के आगे न जाने कितने पकवानों का चित्र घूमने लगता है और मैं अपनी बंद आँखों से ही उन पकवानों का स्वाद याद करके अपने होंठों पर अपनी जुबान फेरने लगती हूँ। लेकिन यह क्या जुबान फेरते ही मेरे मुंह में रेत ही रेत का स्वाद आ जाता है और में उसे थूकते हुए वापस धरातल पर आ गिरती हूँ। फिर घी की वो सुगंध मेरे और निकट आ जाती है। मैं भाग भागकर उस सुगंध को तलाशने का प्रयास करने लगती हूँ।

लेकिन मुझे दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता। मैं थक हारकर अपने घुटनो पर झुकते हुए थोड़ा सुस्ताने लगती हूँ और वही पास में रेत से बने एक टीले पर बैठकर कुछ देर विश्राम करने के लिए बैठ जाती हूँ। तभी मुझे थोड़ी ही दूर पर एक खेत नज़र आता है। मैं सोचती हूँ शायद कोई बस्ती नजदीक ही है। खेत मैं बहुत से लोग जमा है। सभी कुछ न कुछ काम कर रहे है शायद लहसुन का खेत है, घी के साथ कच्चे और भुने दोनों ही तरह के लहसुन की सुगंध भी आरही है। मैं धीरे धीरे चलती हुई वहाँ उस खेत के निकट पहुँच जाती हूँ। किसी बिन बुलाये मेहमान की तरह, जहां मुझे सब एक अजूबे समान देख रहे हैं। जैसे मैं कोई इंसान नहीं बल्कि चिड़िया घर से आयी कोई अबुझ पहली हूँ। मैं भी एक साथ इतने लोगों को देख थोड़ा अचंभित हूँ। शायद मेरे लिए यह यकीन करना कठिन है कि वह लोग सचमुच में वहाँ है या फिर यह भी मेरा वहम ही है। अभी कुछ देर में सब गायब हो जाएंगे। सब मेरा स्वागत करते हैं। पर मुझे किसी पर विश्वास नहीं हो रहा है।

तभी सहसा मेरी नज़र उन चाय वाली मौसी पर पड़ती है। जो मुझे देखकर जरा मुसकुराती है और किस को पास बुलाकर कहती है रे छोरे अठे आ यह जो छोरी दिख रही से ने, यह थारी बहन लागे है, इसे भी अच्छे से पेट भर के खिलाओ पिलाओ, बहन बेटियों को खिलाने पिलाने से बड़ा पुन लागे है। मैं शांत खड़ी उन दोनों की बातें सुन रही हूँ और यह सोच रही हूँ कि आखिर मुझ पर इतनी मेहरबानी क्यूँ। मैंने तो कोई सहायता नहीं मांगी इनसे, फिर आखिर यह मेरी मदद करना क्यूँ चाहती है और इन्हें मेरी जरूरत के विषय में कैसे पता चल जाता है कि मुझे कब क्या चाहिए, या मेरे लिए कब क्या सही होगा। फिर मैंने सोचा छोड़ो जाने दो अभी भोजन मिल रहा है, तो भोजन करलो बाद की बाद में देखेंगे। यूं भी घी की खुशबू से मेरी भूख कई गुना बढ़ चुकी थी।

मैं अभी मन ही मन यह सब सोच ही रही थी कि एक निम्मी नामक लड़की मेरे निकट आकर कहती है, क्या सोच रही हो, चलो पत्तल लगाने में मेरी मदद करो। आज सब यहाँ खेत में बैठकर ही भोजन करेंगे। ऐसा कहती हुई वह मुझे अपने पीछे आने का इशारा करती हुई आगे बढ़ गयी। और सभी को यह कहने लगी चलो चलो सभी जन अपनी-अपनी पत्तल पकड़ कर बैठो। अरे दिलीप भाई सा आप मिट्टी से गरमा गरम बांटी निकालो। मैं तब तक दाल परोसती हूँ।

***