इस दश्‍त में एक शहर था - 17 Amitabh Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इस दश्‍त में एक शहर था - 17

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(17)

यह संयुक्त परिवारों में अकसर होता था कि दो पीढ़ी लगभग एकसाथ अपना कैरियर शुरू कर रहीं होतीं थी। यहां भी तिक्कू चाचा के कैरियर के संवरते संवरते उनके कुछ भतीजे भतीजियां अपना होश संभल चुके थे और अपना कैरियर प्रारंभ करने की अवस्था में थे। ठीक तिक्कू के साथ जिस भतीजे का कैरियर शुरू हुआ वह था सोमेश गन्नू चाचा का बेटा। जो पढ़ने में औसत से बेहतर था इस खानदान का पहला इंजीनियर बना। परिस्थ्रितियों से जूझते हुए सोमेश का इंजीनियर बनना एक बड़ी घटना थी। गन्नू भैया पहलवान थे ठेठ पहलवान पर लंगोट के कुछ कच्चे थे सो शादी के अलावा भी फिसल गए पर इस दूसरे परिवार को बकायदा निभाया भी यानि अब उनके दो परिवार थे। बाद को वे सरकारी मुलाजिम हो गए थे, कलेक्ट्रेट में बाबू थे तो सरकारी क्वार्टर में उनका दूसरा परिवार रहता था और मिसरों के बाछ़े में मूल परिवार। जब यह भेद खुला तब वे बहिष्कृत कर दिए गए अघोषित तौर पर और उनका वो रुतबा नहीं रहा जो पहले था। वे कई बार कसमें खा चुके थे पीलियाखाल न आने की पर फिर फिर जहाज पर आ जाता था यह पंछी। वे अपने पिता की परंपरा को बढ़ा रहे थे, अवैध रूप से दूसरा परिवार रखने का का काम वैध रूप से सीना ठोक कर करने का। बाप कालिका प्रसाद ने जो किया हूबहू गणपति भी वही कर रहे थें बावजूद सारे तिरस्कार के, सारे अपमान के ये निभाना उस समय भी विरल और कठिन था अपनी गलती को या कहें भूल को ताज़िन्दगी निभाना। तो बावजूद सारी मानवीय कमजोरियों के ये दोनों बाप बेटे तमाम लोगों से खरे ही साबित हुए। हालांकि ये गुणगान बाहर से ही किया जा सकता है ठीक उस परिवार का सदस्य हो कर नहीं। मूल परिवार में उनके दो बेटे सोमेश और सौमित्र यानि कप्तान। दोनों ने उनसे असर लिया पर बिलकुल उलट। बड़े सोमेश ने जिद की तरह उनको नकारा और पढ़ लिख कर इंजीनियर बने पर कप्तान यानि सौमित्र अजीब से उहापोह के षिकार बने।

सोमेश मिश्रा का इंजीनियर बनना एक करिष्मा था। क्योंकि जिन परिस्थितियों में गन्नू थे और पूरा परिवार था जहां फाके की नौबत थी। पर अर्जुन के इंजीनियरिंग में दाखिले के समय घर के माली हालात सुधरने लगे थे शंकरलाल नायब तहसीलदार बन चुके थे और उन्होंने उस मुश्किल समय में घर का बोझ उठाया। घर में जिसको जब जरूरत लगी मदद की उन्होंने सो सोमेश को भी इंजीनियर बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा। सोमश मिसिर खानदान के पहले इंजीनियर थे सिविल इंजीनियर जिनकी उस जमाने में बहुत ज्यादा डिमांड थी लिहाजा उनकी नौकरी लगी जल्दी ही और वो भी लोक निर्माण विभाग में बकायदा सहायक यंत्री बकायदा द्विजीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी। हालांकि उनसे पहले दो चाचा कालेज में प्रोफेसर थे राजपत्रित अधिकारी एक चाचा सहायक शल्य चिकित्सक थे। पर सोमेश मिश्रा की ठसक अलग ही देखते बनती थी। दरअसल वे उस कमाऊ विभाग में थे जहां सुख सुविधाओं और पैसे की कोई कमी नहीं है। उन्होंने एक चतुर अधिकारी के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की और राजनीतिक लोगों से भी संपर्क बनाए रखा और उनके जरिये मनमाफिक यानि सबसे कमाई वाली जगहों पर पोस्टिंग करवाते रहे। वे संयुक्त परिवार की अंतिम पीढ़ी के सारे फायदे लेने वाली पीढ़ी के अंतिम सदस्य रहे जिन्होंने संयुक्त परिवार के सारे फायदे लिए पर उसी संयुक्त परिवार को मदद करने में सबसे पीछे रहे और यही संयुक्त परिवार के विघटन का कारण रहे। उनकी पढ़ाई और उनका शानदार कैरियर उस संयुक्त परिवार की ही देन था पर उन्हें उनकी नौकरी ने सिर्फ लेना ही सिखाया था देना नहीं इसलिए उनका संबंध इस पूरे परिवार से बहुत ही व्यावहारिक किसम का रहा है। उनके इस व्यावहारिक बनने में उनके उस अतीत का पूरा का हाथ रहा है जो बचपन की नासमझी में निकल गया पर होश संभालते हुए उन्होंने अपने पिता की जो स्थिति देखी थी उसकी शरम ने उन्हें उस हद तक व्यावहारिक बना दिया जिसकी इंतेहा खुदगर्जी तक पहंचती है। उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने से मतलब था। उनकी दुनिया उनकी नाक के आगे खतम हो जाती थी। उन्होंने अपने छोटे भाई का भी इस्तेमाल कर लगभग निकम्मेपन की हद तक पहुंचा दिया था।

उन्होंने अपने पिता के अनाड़ीपन और गलतियों या कहें भूल से बहुत कुछ सीखा। मसलन पत्नी के सिवा वैध और स्थायी संबंध किसी और औरत से नहीं रखना चाहिए और किसी भी हालात में बच्चे सिर्फ अपनी पत्नी से ही होना चाहिए। वे एक अच्छे घरेलू आदमी हैं जिन्दगी को छककर जीना जानते हैं। पिछली जिन्दगी के सारे निशान मिटा दिए हैं उन्होंने। उनके पास अकूत संपत्ति है पर सिर्फ अपने लिए। अपने दो बेटों के लिए हैं जिनके लिए वे तमाम सुविधाएं मुहैया हैं जिन्हें अय्याषी की हद तक कहा जा सकता है। वे दोनों इस इलाके के सबसे महंगे सबसे अच्छे स्कूल में पढ़े हैं पर आगे ज्यादा पढ़ नहीं पाए हालांकि उसकी जरूरत भी नहीं है अब।

इंजीनियर सोमश मिश्रा इस बदलते समय के विरल गवाह हैं। उन्होंने पचास साल के जीवनकाल में इतिहास के तमाम कालखंड जी लिए। घनघोर गरीबी फाकेकषी से लेकर अथाह पैसे की अमीरी तक, लोटा लेकर जंगल जाने से लेकर आधुनिकतम शौचालय की व्यवस्था तक, कुंए से पानी खींचकर नहाने से लेकर बाथटब की व्यवस्था तक, हर मौसम में खुले में मार सहने से लेकर चौबीसों घंटे वातानुकूलन में रहने की व्यवस्था तक, गरम पिघलती डामरदार सड़क पर नंगे पैरों मीलों दौड़ने से लेकर कुछ कदम सबसे महंगी गाड़ी से सफर करने तक। यह फेहरिष्त बहुत लंबी हो सकती है। उन्होने आंख खोली तो देश गुलाम था और होश संभाला तब तक मुल्क आज़ाद हो चुका था और वे इस स्वतंत्र देश की व्यवस्था में प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी हैं। वे इस शहर के हर दौर से हर जर्रे जर्रे से वाक़िफ़ हैं। उनके दोस्त झुग्गी से लेकर आलाशन बंगलों तक फैले हैं जिनका इस्तेमाल वे सहूलियत के मुताबिक करना जानते हैं।

उनकी एक और खासियत जो उन्हें सफलता देती रही कि उन्हें किसी भी किसम का कोई परहेज नहीं रहा और न ही उन्होंने अपने पर किसी किसम की रोक लगाई। वे हर तरह का खाना, हर तरह का पीना पिलाना और हर तरह का उपभोग पसंद करते थे बेरोकटोक। पर दो असर और आदत पीलियाखाली वे नहीं छोड़ पाए बावजूद तमाम अफसरी के चो थी भंाग और तंबाकू की आदत। दोनों का उनका डोज अच्छा था। वे अपनी लच्छेदार बातों से सबको प्रभावित कर देते थे और अपने काम निकलवा लेते थे। उन्हें लोगों को प्रभावित कर और सग्जोबाग दिखाकर काम कराने का अद्भुत हुनर प्राप्त है। अपने खुद के छोटे भाई कप्तान जो कमाल की मेधा के धनी हैं। उनकी सारी मेधा का इस्तेमाल सोमश ने अपने लिए किया और उन्हें बिलकुल ही बेकार कर दिया। आज की तारीख में कप्तान दुनिया की तमाम लतों से चूर इन्सान हैं।

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