यूँ तो रजनी मोरवाल जी का साहित्य के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम है और मेरा भी उनसे परिचय फेसबुक के ज़रिए काफी समय से है लेकिन अब से पहले कभी उनका लिखा पढ़ने का संयोग नहीं बन पाया। इस बार के पुस्तक मेले से पहले ही ये ठान लिया था कि इस बार मुझे उनकी लिखी किताबें पढ़नी हैं। इसी कड़ी में जब मैंने उनका ताज़ा लिखा उपन्यास "गली हसनपुरा" पढ़ना शुरू किया तो शुरुआती पृष्ठों से ही उनकी धाराप्रवाह लेखनशैली और ज़मीन से जुड़े मुद्दों ने मन मोह लिया। बीच बीच में स्थानीय भाषा का प्रयोग भी अपनी तरफ से उपन्यास को प्रभावी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था। मेरे हिसाब से अगर आपको पढ़ने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों से लैस भाषा मिल जाए तो आपका दिन बन जाता है।
वैसे देखा जाए तो इस उपन्यास की विषय वस्तु ऐसी नहीं है कि आप तुरंत इसे अद्वितीय की श्रेणी में कलमबद्ध करने का सोचने लगें। पहले भी इस तरह के विषयों पर काफ़ी काम हुआ है। इस उपन्यास की कहानी सामान्य तौर पर एक आम अवैध कब्जों से जुड़े गरीब इलाके की है जो कभी शहर के बाहरी हिस्से में अपने आप..वक्त ज़रूरत के हिसाब से मजबूरीवश बसता चला गया। इसमें कहानी उन लोगों की है जो गंदगी, कीचड़, लबालब भरी नालियों, टूटी फूटी सड़कों, गरीबी और अशिक्षा के बावजूद भी अपनी जीवटता को किसी ना किसी तरीके से बचाए हुए हैं और तमाम तरह की दुश्वारियों और अभावों में जीने के बावजूद भी पूरे हर्षोल्लास एवं उन्माद के साथ अपने त्योहारों को..अपनी रीतियों को और यहाँ तक कि अपनी कुरीतियों को भी बचा कर रखते हैं।
इस कहानी के ज़रिए उन्होंने शोषित वर्ग के इन मज़लूमों..सभ्य समाज से दरकिनार कर दिए गए लोगों की आवाज़ को उठाया है। इसमें तथाकथित सभ्य माने जाने वाले इलाकों और उनके पिछड़े इलाके के बीच बरते जा रहे भेदभाव का भी स्पष्ट रूप से वर्णन है तो छुटभैय्ये स्थानीय नेताओं और उनके झूठे वादों की भी कहानी है। अपने ब्याह को लेकर दिन रात सोचती अपाहिज लड़की और उसकी माँ-बहन का दुख भी है। इस कहानी में एक तरफ प्रेम पनप रहा है और दूसरी तरफ बलात्कार जैसी त्रासद विषयवस्तु को भी प्रभावी ढंग से उठाया गया है। इसमें एक तरफ विस्थापन का दुख है तो दूसरी तरफ शिक्षा और जागरूकता के तरफ शनै शनै बढ़ते उत्साहित कदम भी हैं। उपन्यास को पढ़ने के बाद हम एक तरह से कह सकते हैं कि यह पूरा उपन्यास अपने आरंभ से ले कर अंत तक एक त्रासद ट्रैक पर चलता है मगर बीच बीच में कहीं कहीं पात्रों द्वारा खुशियों के खोज लिए गए छोटे छोटे पलों से पाठक को राहत देने का काम भी करता है।
इस उपन्यास में विषयवस्तु को ले कर किया गया उनका शोध और उसमें लगाया गया समय इसकी कहानी तथा भाषा में साफ झलकता है। गांव देहात के तथा स्थानीय भाषा के शब्द कहानी को विश्वसनीय बनाने में मदद करते हैं लेकिन एक पाठक की हैसियत से मुझे लगता है इस उपन्यास पर अभी और काम किया जाना चाहिए था क्योंकि जहाँ एक तरफ रजनी मोरवाल जी का यह उपन्यास अपनी भाषाशैली की वजह से लुभाता है तो दूसरी तरफ कई जगहों पर गंवार किरदारों द्वारा बोली गयी साहित्यिक या पढ़े लिखे तबके की भाषा से थोड़ा मायूस भी करता है।
उपन्यास में एक जगह नानी द्वारा बच्चों को कहानी सुनाने का प्रसंग है जिसमें नानी द्वारा बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानी की भाषा भी सुनाने वाली किरदार के अनुरूप सीधी एवं सरल नहीं है तथा अनावश्यक विस्तार लिए हुए है। साथ ही कहानी सुनने वाले छोटे बच्चों के हिसाब से भी कहानी की भाषा काफी ज़्यादा कठिन एवं गूढ़ है जिसे बच्चों की समझ के हिसाब से आसान भाषा में लिखा जाना चाहिए था।
एक बात और..उपन्यास में एक जगह पर 1995 का समय बताया गया है और उसके कुछ समय बाद कहानी का एक किरदार अपने दहेज में इ-रिक्शा प्राप्त कर लेता है जबकि उस समय याने के अब से लगभग 24 साल पहले तो इ-रिक्शा का भारत में उद्भव ही नहीं हुआ था। ना ही तब किसी ने लव जिहाद या फिर जी.एस.टी (GST) टैक्स के बारे में सुना था। मॉल, आधार कार्ड या और भी कई ऐसे शब्द आज के ज़माने के लगते हैं।
खैर..ये सब तो छोटी छोटी कमियां हैं जिन्हें आने वाली रचनाओं में और इस उपन्यास के अगले संस्करण में अगर चाहें तो आसानी से दूर किया जा सकता है। 128 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है आधार प्रकाशन ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹120/- मात्र रखा गया है जो कि पाठक की जेब पर बिल्कुल भी भारी नहीं पड़ता।
मेरे हिसाब से किसी उपन्यास के लिए उसकी विषयवस्तु का व्यापक होना याने के बड़े कैनवस का होना बहुत ज़रूरी है। उस कसौटी पर कस कर देखें तो अपनी विषयवस्तु के तमाम फैलाव को देखते हुए छोटा होने के बावजूद ये उपन्यास इसमें काफी हद तक खरा उतरता है। आने वाले समय के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।