नारीयोत्तम नैना - 12 Jitendra Shivhare द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नारीयोत्तम नैना - 12

नारीयोत्तम नैना

भाग-12

भारत और श्रीलंका के बीच तनावपूर्ण रिश्तों और

उसके बीच दक्षिण भारतीय राजनीति की रस्साकशी और झगड़े की मूल कारणों पर प्रकाश डालना जरूरी है।

श्रीलंका में बंदूकों को खामोश हुए चार साल होने वाले थे। लेकिन गोलियों से पैदा हुई गर्मी अभी बाकी थी। यह गर्मी थी मानवाधिकारों के हनन की, जो रह-रहकर भभक उठती थी। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कभी कहा था, 'युद्ध चाहे जितना भी जरूरी हो या उसे कितना भी जायज ठहराया जाए, यह अपराध नहीं है, ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए।' श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ छेडे़ गए युद्ध में भी कई बेगुनाह, बच्चे और औरतें मारी गईं और युद्ध अपराध का साया अभी भी इस देश का पीछा कर रहा थी।

सिंहली और तमिलों का संघर्ष वर्षों से श्रीलंका की धरती को रक्त से लाल कर रहा था। श्रीलंका में लिट्टे के बनने की कहानी काफी हद तक वैसी ही है, जैसे दुनिया के कई और देशों और भारत के कुछ हिस्सों में जमीन, संसाधन और बराबरी की मांग पर कई सशस्त्र विद्रोह हुए और अभी भी चल रहे हैं। यहां की लड़ाई मुख्य तौर पर सिंहली और श्रीलंकाई तमिलों के बीच रही है। सिंहली यहां की मूल प्रजाति है, जो बौद्ध धर्म मानती है। तमिल हिंदू हैं और इनमें भी दो तरह के लोग हैं। एक तो वे जो सदियों से यहां रह रहे हैं और दूसरे, जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान 19वीं और 20वीं सदी में चाय, कॉफी और रबर के बागानों आदि में काम करने के लिए दक्षिण भारत से ले जाया गया था।

सिंहलियों का आरोप रहा है कि तमिल उनके संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं। इसी को लेकर तनाव पैदा हुआ और कई बार दंगे और गृहयुद्ध हुए। सिंहलियों और तमिलों के बीच तनाव भड़काने में ब्रिटिश शासन की फूट डालो और शासन करो की नीति ने भी अहम भूमिका निभाई। श्रीलंका जब ब्रिटिश शासन से आजाद हुआ, तो 1956 में वहां की सरकार ने 'सिंहला ऑनली ऐक्ट' लागू किया, जिससे तमिलों के बीच असुरक्षा की जबर्दस्त भावना घर कर गई। इस ऐक्ट के जरिए तमिल को नकारकर सिर्फ सिंहली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। इससे नौकरियों और अन्य चीजों में तमिलों की अनदेखी का रास्ता खुला, जिससे राज्य के प्रति विद्रोह की भावना को और बल मिला।

दक्षिण भारत की राजनितिक पार्टियां बैचेन हो उठी। श्रीलंका में तमिलों की खराब स्थिति को लेकर फिलहाल दक्षिण की पार्टियों की बेचैनी खांटी राजनीति पहले है, भावनात्मक मुद्दा बाद में। डीएमके और एआईएडीएमके सहित अन्य पार्टियां आम जन की भावनाओं के जरिए वोटबैंक की राजनीति में लगी थी। हालांकि, दक्षिण भारत की राजनीति में श्रीलंकाई तमिलों के प्रति सहानुभूति और उनके हक की आवाज उठाने की बात नई नहीं है। डीएमके, एआईएडीएमके सहित अन्य पार्टियों के बनने से पहले जब द्रविड़ कषगम (डीके) पार्टी हुआ करती थी, तब भी श्रीलंकाई तमिलों की मांग जोर-शोर से उठाई जाती थी। श्रीलंकाई तमिल लीडरशिप से इसके गहरे रिश्ते थे और राजीव गांधी द्वारा श्रीलंका में शांति सेना भेजे जाने का इसने कड़ा विरोध भी किया था।

लिट्टे के विरूद्ध श्रीलंकाई सेना मजबूती ये युद्ध लड़ रही थी। युद्ध में तीन लाख लोग बेघर हो चूके थे। हजारों निर्दोष लोग मारे गये थे। राहत शिविरों में लाखों की संख्या में लोग खाने-पीने की वस्तुओं को लिए संघर्ष कर रहे थे। सरकार सभी के लिए व्यवस्थाएं जुटा सकने में असमर्थ थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के अध्यक्ष बान की मून ने श्रीलंका के राहत शिविरों का दौरा किया। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि श्रीलंका सरकार के पास पर्याप्त संसाधन नहीं है। 15 लाख डाॅक्टर ॠण की पेशकश श्रीलंका सरकार ने की है।

जितेंद्र ठाकुर नैना को फोन लगा-लगाकर थक चूके थे। नैना का फोन लग ही नहीं रहा था। महेश सोलंकी और तरूणा सोलंकी अपनी बेटी की सही सलामत भारत वापसी का निवेदन मुख्यमंत्री से कर रहे थे। राजेंद्र ठाकुर और कौशल्या भी नैना के लिए चिंतित थे। नूतन किसी तरह स्मिता को संभाले हुई थी। विक्रम भी मुख्यमंत्री निवास पर आ चूका थ। माला ठाकुर ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी की नैना श्रीलंका में सही सलामत हो? जितेंद्र ठाकुर ने स्वयं नैना को श्रीलंका से लाने का संकल्प ले लिया।

"ये क्या कह रहो जितू? तुम श्रीलंका अकेले जाओगे! वहां कितना बड़ा खतरा है जानते हो? नहीं मैं तुम्हें वहां जाने की अनुमति नहीं दे सकता।" राजेन्द्र ने विरोध किया।

"भैया वहां नैना अकेली है। पता नहीं कैसी होगी? और फिर मेरे दो नन्हे-मुन्ने जुड़वा बच्चें उस खतरे में क्या मुझे याद नहीं कर रहे होंगे? नहीं भैया! मैं अब और अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हो सकता। मुझे श्रीलंका जाने से संसार की कोई शक्ति रोक नहीं सकती।" विधायक जितेन्द्र ठाकुर ने निश्चित कर लिया था।

नैना के प्रति एक पति और लव-कुश के लिए एक पिता का दृढ़ निश्चय देखकर सभी अभिभूत हो गये।

द्वार से लव और कुश को अन्दर आता हुआ देखकर सभी प्रसन्न हो उठे। लव-कुश के साथ आचार्य भगवती प्रसाद जी भी थे।

"बेटा! आप सभी जिस विषय पर चिचिंत है मुझे भी वही चिंता यहां खींच ले आई है। आप से उस दिन लव-कुश को मिलवाकर हम तीनों काशीनाथ जी के दर्शन हेतु चले गए थे। वहां हम एक आश्रम में कुछ दिन ठहरे। तभी यह घटनाक्रम श्रीलंका में घटित हो गया।" आचार्य भगवती प्रसाद बोले।

अपने दोनों बच्चों को सकुशल देखकर जितेंद्र ठाकुर उन्हें हृदय से लगाने दौड़ पड़े। लव-कुश पीछे हटकर आचार्य से लिपट गये।

" पुत्रों! यह तुम्हारे पिता है। इनसे डरों नहीं। जाओ! इनका आशिष लो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।" आचार्य ने लव-कुश से कहा।

लव-कुश कुछ सामान्य होकर गुरू की आज्ञा मानकर अपने पिता के नजदीक आये। जितेंद्र ठाकुर ने अपनी संपूर्ण ममता अपने बेटों पर लुटा दी। यह मार्मिक दृश्य देखकर उपस्थित सभी पारिवारिक सदस्यों की आंखे नम हो गयी।

श्रीलंका दूतावास ने नैना की सकुशल वापसी हेतु सहायता करने में अपनी असमर्थता जता दी। श्रीलंकाई सेना को लिट्टे के दमन हेतू सम्पूर्ण छूट श्रीलंका सरकार की ओर से दी गई थी। सैना निर्दोष नागरिकों को सकुशल बचाने का कार्य अपने स्तर पर सम्पन्न कर रही थी। अन्य मशीनरी का सैना के कार्य में हस्तक्षेप सर्वथा प्रतिबंधित था।

जितेंद्र ठाकुर ने स्वयं ही श्रीलंका जाकर नैना को सकुशल भारत लाने का संकल्प ले लिया। राजेंद्र इसके लिए कतई तैयार नहीं था। उसे दोनों देशों की सरकारों पर पुर्ण विश्वास था। जल्द ही दोनों सरकारें मिलकर नैना ठाकुर को भारत लौटाने के प्रयासों में तीव्रता लायेगीं। मगर जितेंद्र ठाकुर को मनाना सरल कार्य नहीं था। वह हाथ पर हाथ रखकर बैठने वालों में से नहीं था।

"भैय्या! मैं आपको कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाता हूं। आप मेरे लौटने तक प्रदेश को व्यवस्थित संभालेंगे ऐसा मुझे पुर्ण विश्वास है।" जितेंद्र ठाकुर ने इन बातों से श्रीलंका जाने का अपना निर्णय सुना दिया। अगले ही पल प्रदेश के समस्त विधायकों को त्वरित भोपाल पहूंचने के निर्देश जितेंद्र ठाकुर की ओर से प्राप्त हुये। आनन-फानन में जितेंद्र ठाकुर ने अपना मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा राज्यपाल भवन पहूंचा दिया । जहां उसे स्वीकृत कर लिया गया।

अर्द्ध रात्रि में विधायक दल का नेता राजेन्द्र ठाकुर को सर्वसम्मति से चुन लिया गया। तथा आगामी छः माह में विधानसभा का सदस्य अनिवार्यः बनने के निर्देश के बाद राज्यपाल महोदय ने राजेंद्र ठाकुर को पद और गोपनीयता की शपथ दिलवा दी। जितेंद्र ठाकुर को आभास हुआ कि लव-कुश को अपने साथ श्रीलंका ले जाने में खतरा था। किन्तु सुना था कि लिट्टे के सदस्य महिला और बच्चों पर कुछ नर्मी अवश्य बरतते थे। साॅफ्ट कार्नर अपने साथ रखने से नैना को ढूंढने में सरलता होगी।

आचार्य भगवती प्रसाद, लव-कुश और जितेंद्र ठाकुर किसी तरह दक्षिण भारत के रामेश्वरम स्थल पहूंच गये। वहां से मात्र सेतीस किलोमीटर की मामुली दुरी पर श्रीलंका था। किन्तु कोई भी नाविक अपनी नैय्या लेकर श्रीलंका की जाने हेतु तैयार नहीं था। क्योंकि लिट्टे और तमिल विद्रोह की ज्वाला चरमोत्कर्ष पर होकर धधक रही थी। आचार्य भगवती प्रसाद ने अपने प्रयासों से एक नाविक को समुंदर पार करने के लिए तैयार कर लिया।

"आदरणीय मुख्यमंत्री जी! हम अपनी जान पर खेलकर आपको समुंदर पार पहूंचा देंगे। किन्तु बदले में हमें क्या मिलेगा?" नाविक मुर्गन दत्त ने पुछा।

"तुम जो कहोगे मैं वो देने को तैयार हूं भाई। बस किसी तरह मुझे श्रीलंका पहूंचा दो।" जितेंद्र ठाकुर ने विनती की।

"ठीक है भाईसाहब! अभी हम आपको पार लगा रहे है कभी हम आपके राज्य में आ गये तब आप हमें पार लगा देना।" नाविक मुर्गन दत्त ने कहा।

नाविक की बातों का रहस्य कोई नहीं समझ सका।

जैसे ही जितेंद्र ठाकुर नाव में में बैठने लगे नाविक चिल्लाया-" रूकीये आदरणीय श्री! आप एक पवित्र उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रस्थान कर रहे है। यह नौका आपकी जीवन संगनी को आपसे पुनः मिलवाने का एक तुच्छ माध्यम बनेगी। हमारे यहां जब भी कोई पुनीत कार्य किसी भी नौका के माध्यम से किया जाता है तब नौका में सवारी करने वाले प्रत्येक नौका संवार के पैर धोने के उपरांत ही उसे नौका में बैठाया जाता है। ताकी वह यह श्रेष्ठ कार्य अपने पुरे मनोयोग से पुर्ण कर के ही आवे।" मुर्गन दत्त ने कहा।

नाविक ने बारी-बारी से चारों नौका सवार के पैर धोकर उन्हें नौका में सादर बैठाया। समुन्दर की लहरें शांत जरूर थी मगर ये शांति कब तक कायम रहेगी इस संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता था? थीवू द्विप पर नाविक उन चारों को छोड़कर चला गया। द्विप को पुरी तरह उजाड़ दिया गया था। सांप्रदायिक हिंसा में जान और माल का बहुत नुकसान हुआ था। द्विप के चप्पे-चप्पे पर सैना का पहरा था। जितेंद्र ठाकुर को भय था कि यदि श्रीलंकाई सेना के हत्थे चढ़ गये तो वे नैना तक पहूंच नहीं पायेंगे। आचार्य भगवती प्रसाद जी का भी यही विचार थी। उन्होंने सैना से बचते-बचाते किसी तरह आश्रम तक पहूंचना निश्चित किया। वहां से उस बंगले पर पहूंचना आसान हो जायेगा जहां नैना को आश्रय मिला था। सैना से छिप-छिप कर वे चारों किसी तरह आश्रम पहूंचे। इससे पहले कि वे लोग आश्रम पहूंचते, विनाश के पैर उससे पहले ही आश्रम को तहस-नहस कर चूके थे। आश्रम को पुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। अधजले आश्रम के अवशेष के मध्य आश्रम वासियों के नर-मादा कंकाल बहुतायत में देखकर उपस्थित सभी सिहर उठे। लव-कुश भयभीत होकर आचार्य भगवती प्रसाद से लिपट गये। जितेंद्र ठाकुर वहां गिरे-पड़े मानव अवशेषों की उठा-पटक कर नैना की कोई निशानी ठूंढने लगे। उनका मन स्वीकार नही कर रहा था कि नैना अब नहीं रही। किसी के कराहने की ध्वनि बहुत ही मध्यम होने के बावजूद आचार्य भगवती प्रसाद ने सुन ली। यह उनके एक शिष्य शिव की ध्वनी थी जो गंभीर घायल होकर मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहा था।

"शिव! शिव! शिव! यह सब क्या हुआ?" आचार्य जी ने कुंए की दीवार से सटकर बैठे शिव को देखा। जो करूण रूदन कर रहा था।

"आचार्य! सब कुछ नष्ट कर दिया उन्होंने!" शिव बोला।

आचार्य सबकुछ समझ गये। सिंहली जनसंख्या और णणप्त कर संतुष्टी कर ली।

नैना की कहीं कोई खबर नहीं लग रही थी। तिलकरत्ने अट्टपटू ने आसपास जहां तक मार्ग सुगम था, नैना की खोजबीन करवाई किन्तु नैना का कोई भी सुराग हाथ नहीं लगा। राहत शिविरों में सूक्ष्मता से जांचने पर भी नैना की खैर खब़र नहीं मिल सकी। बंगले के आसपास पुनः जांच-पड़ताल आरंभ की गई। इस बार एक सैनिक ने जोरदार आवाज लगाई-

"सर यहां आईये! देखीये ये निशान!"

तिलकरत्ने अट्टपटू दौड़कर वहां पहूंचे। जितेंद्र ठाकुर भी उस पदचिन्ह को आश्चर्य से देख रहे थे।

"ओह! माई गाॅड! ये निशान!" तिलकरत्ने अट्टपटू चौंक पड़े।

"क्या बात है सर? आप चिंताग्रस्त क्यों गये? यह किसके पदचिन्ह का निशान है?" जितेंद्र ठाकुर ने पुछा।

"ठाकुर साहब! ये उस दैत्य रूपी मानव के पद चिन्ह है जिसके विषय में बात करना भी भयभीत कर देता है।" तिलकरत्ने अट्टपटू ने कहा।

"ग्यारह फीट का लम्बा चौड़ा दानव। जो वर्षों से समुद्र की सीमा लगे घने जंगलों के पार दुर्गम पहाड़ियों के बीच रहता है। अपने हितार्थ उसने डकाल नगर बनाया, जहां उसके सहयोगी (आम लोग) अपने परिवार के साथ डकाच्या की सेवा में लगे रहते है। उसके लिए भोजन आदि की व्यवस्था यही लोग करते है। बदले में डकाच्या उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है। लूटपाट से मिली सामग्री का डकाच्या के उपभोग के बाद इन्हीं लोगों का अधिकार होता।" कहते हुये तिलकरत्ने अट्टपटू चूप हो गये।

"उसे पकड़ने का प्रयास नहीं किया गया?" जितेंद्र ठाकुर ने पुछा।

"जनता के लिए हानिकारक सिध्द हो चुके डकाच्या को जीवित या मृत पकड़कने के निर्देश है किन्तु उसकी पनाहगाह पहूंचना अत्यंत कठीन है।"

जंगल और विस्तृत दलदली भूमि का चक्रव्यूह था। तत्पश्चात अति दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र था। डकाल नगर में खाने-पीने की सामग्री भी नहीं थी। डकाच्या और उसके सहयोगी समुद्र की मछलिया, जल सर्प, केकड़े आदि का सेवन करते थे। लूटपाट में यदि कुछ खाद्य सामग्री हाथ लग जाती तब वे लोग उसे अपने साथ डकाल नगर में ले आते। प्रथम भोजन का अधिकार डकाच्या दैत्य के पास सुरक्षित था। तदुपरांत उसके सहयोगी भोजन कर सकते थे। सर्वाधिक सुन्दर स्त्री प्रथमतया डकाच्या दैत्य के साथ शयन करती थी। अपहृत अन्य महिलाएं डकाच्या दैत्य के सहयोगीयों की काम ईच्छा पुर्ण करती थी। नगर में निवासीयों की अन्य स्त्रीयां भी थी जो डकाच्या और अन्य पुरूषों के लिए भोजन आदि पकाने का कार्य करती थी। डाकाच्या दैत्य एक संपूर्ण दिन कुछ न कुछ खाया पिया करता। दूसरे दिन वह भरपुर निद्रा लेता। तीसरे दिन वह अपहृत महिला के साथ समागम करता था। जब उसके सहयोगी स्त्रियों के अपहरण में सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और संयोग से यदि वह दिन डकाच्या के संभोग का दिन होता तब सहयोगियों को बारी-बारी से अपनी स्त्री डकाच्या के सम्मुख प्रस्तुत करनी

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