Nishchhal aatma ki prem pipasa - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 11

कानपुर-प्रवास के जोड़ीदार--शाही और ईश्वर

आगे की कथा कहने के लिए थोड़ी भूमिका अपेक्षित है। लेकिन आप यह न समझें, मैं कोई अवांतर कथा कहने लगा हूँ। जिनका उल्लेख कर रहा हूँ, वे सभी आगे चलकर इस परलोक चर्चा के महत्वपूर्ण पात्र सिद्ध होंगे।…


कानपुर-प्रवास में जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था। सप्ताह के पांच दिन दफ्तर में, काम की भीड़-भाड़ में और मित्रों के सान्निध्य में व्यतीत हो जाते तथा दो दिन श्रीलेखा-मधुलेखा दीदी के पास। बैचलर क्वार्टर तो लघु भारत ही था, वहाँ देश के हर प्रदेश के प्रतिनिधि आ बसे थे। वे टोलियों में बँटे हुए थे--ऐसा लगता था कि 'किसी धर्मशाला में रहकर यात्री मन बहलाते थे, अपने-अपने प्रांतों का वे वर्णन करते जाते थे !' उन्हीं टोलियों में से एक टोली के नायक थे राक्षसाकार लक्ष्मीनारायण ओज़ा (OZA)। वह राजस्थान के बीकानेर के मूल निवासी थे। मरुभूमि की राणा-परंपरा के अनुकूल दीर्घ देह-यष्टि की विशालकाय विभूति ! वह ज्यादातर अपनी टोली के साथ तफ़रीह करते और नवागंतुकों की टांग-खिंचाई का आनंद लेते। १०४ किलोग्राम वज़न के महाप्रभु, लेकिन स्थूल नहीं, कसी हुई देह के स्वामी! मेरा जब से वहाँ पदार्पण हुआ, लक्ष्मीनारायणजी का आनंद-लाभ द्विगुणित हो गया था। वह आते-जाते, मेस में भोजन के वक़्त और सुबह-शाम मुझे चिकोटी काटने से बाज़ न आते। मैं उनसे बचकर निकलने की फ़िराक़ में रहता; लेकिन वह कोई मौका न चूकते। मैं सोचता, कौन उस विराट् महाप्रभु से पंगा ले, उनके मुंह लगे। लेकिन रोज़-रोज़ की उनकी बेअदबियों से मैं हलकान तो होता ही था। खैर, दिन कटते रहे। मैं कार्यालय से आने के बाद स्वदेशी क्लब चला जाता और शेष समय ज्यादातर अपने कमरे में कीलबद्ध रहता।

तभी एक दिन ध्रुवेंद्र प्रताप शाही अपने सरो-सामान के साथ आ पहुंचे। इन डेढ़-दो महीनो में उनसे मेरी प्रगाढ़ मित्रता हो गई थी। उनके आने से मैं सबल ही हुआ। उनके साथ मेरी गहरी छनने लगी।....

हाँ, बीच में यह क्षेपक भी जोड़ दूँ कि स्वदेशी में मुझे और शाही को काम करते एक महीना ही गुज़रा होगा कि लेख-विभाग में नयी नियुक्ति पाकर एक नवयुवक ने प्रवेश किया। उनका नाम था--ईश्वरचंद्र दुबे। दुबले-पतले युवा, आकर्षक व्यक्तित्व--खड़ी मूँछ और चढ़ी आँखें-- समवयसी। उन्हें देखते ही मेरी और शाही की आँखें चमक उठीं। हमें लगा, चलो एक और जोड़ीदार आया, अन्यथा एकमात्र वर्माजी को छोड़कर लेख-विभाग में अधिकतर उम्रदराज़ लोग थे; जिनसे हमारी पटरी तो खैर क्या बैठनी थी! लेकिन ईश्वर तो ईश्वर निकले। पन्द्रहियों दिन तक भले आदमी ने कंधे पर हाथ न रखने दिया। ईश्वर बहुत गंभीर बने रहते। सामान्य शिष्टाचार के कुछ प्रश्नों का उत्तर देकर वह विमुख हो जाते। किसी को निकट आने का अवसर न देते। मेरे साथ-साथ शाही ने भी (सच कहूँ तो मेरी वज़ह से) कुछ दिनों तक उनसे मित्रता की कोशिश की, किन्तु जब उन्हें ईश्वर से सकारात्मक संकेत नहीं मिला, तो वह 'फिरंट' हो गए। वैसे भी, शाही 'दीयरा इस्टेट' के राज-परिवार के प्रतिनिधि थे, उनके पितामह किसी ज़माने में कानपुर के मेयर थे, बड़ा रौब-दाब था उनका। लखनऊ के न्यू हैदराबाद इलाके में दीयरा इस्टेट का जो विशालकाय भवन (यूनिटी लॉज ) है (जिसमें सेवामुक्त होकर शाही आज भी निवास करते हैं), उसमें स्वतंत्रता-संग्राम के ज़माने में गांधीजी से लेकर तत्कालीन बड़े-से-बड़े काँग्रेस के नेता पधारते थे और वहाँ उनकी बैठकें होती थीं--यह बात मुझे शाही के बड़े पापा ने बाद में बतायी थी। कहने का तात्पर्य यह कि जमींदारी गई, राज्याधिकार न रहा, वे सुनहरे दिन भी चले गए; लेकिन मेरे शाही भाई का दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार-सा बना रहा। वही ठाकुराना तेवर, वही गाम्भीर्य, वही रौबोदाब!

ईश्वर एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिखे, तो फिर शाही तो शाही ठहरे! वह दो कदम पीछे ही ठिठक गए। लेकिन मेरी मनोरचना वैसी नहीं थी। मैं ईश्वर के निकट आने की कोशिश करता रहा और पंद्रह दिनों में उनके बारे में बस इतना भर जान सका कि वह बाँदा-जैसे दुर्धर्ष क्षेत्र के एक समृद्ध जमींदार परिवार के रत्न हैं। उनके पीछे निरंतर पड़े रहना अंततः फलीभूत हुआ। ईश्वर मेरे और शाही के साथ उठने-बैठने लगे, लेकिन संक्षिप्त सम्भाषण करते, प्रश्नों के उत्तर तो दे देते, लेकिन अपनी ओर से उन्हें कभी कुछ कहना ही न होता। ईश्वर का अंदाज़ निराला था--अपने-आप में कहीं खोये हुए, अपनी ही चढ़ी हुई आँखों में निमग्न-से; जैसे दुनिया में हों, दुनिया के तलबगार नहीं हों…!

शाही के बैचलर क्वार्टर में आ जाने से मेरी स्वतंत्रता में किंचित् व्यवधान हुआ। व्यवधान इसलिए कि वह नियमबद्ध युवा थे और मैं निशाचर। समय से खाना, समय से सोना, नियमित व्यायाम और कसी हुई दिनचर्या के अभ्यासी। मैं फक्कड़, अलमस्त, अपनी ही धुन का रागी। जिस विधा में मैं गति पकड़ रहा था और जिसका नशा मुझ पर तारी था, उसमें उनकी कोई रुचि नहीं थी। वह मुझे उस दिशा में बढ़ने से रोकते थे। कभी-कभी खीझकर कहते--'तुम्हें मरना है तो मरो, मुझे इसमें मत घसीटो।' लेकिन मैं तो इस विधा में ऊँची छलांग लगाने पर आमादा था और शाही के सहयोग के बिना उसी एक अकेले कमरे में आत्माओं से संपर्क-साधन संभव नहीं था। मेरे निरंतर इसरार पर अंततः शाही मेरे साथ बोर्ड पर बैठने तो लगे, लेकिन उनकी एक शर्त का पुँछल्ला हमेशा लगा रहता कि वह रात बारह के बाद सब कुछ छोड़कर सो जाएंगे। कई बार तो वह मुझे राह पर लगाकर बिस्तर में चले जाते और मैं धूनी रमाये रहता। वे अभावों के दिन थे, जागरण की रातें। ...

जहां तक स्मरण है, संभवतः मैंने अपनी ही ज़िद पर सिर्फ एक बार उनकी दिवंगता माता से बात करवायी थी। उसके बाद शाही को भी यह कृत्य बहुत निःसार और अविश्वसनीय नहीं लगा। वह थोड़ा अधिक वक़्त देने लगे। शाही अभिमानी बिलकुल नहीं थे, लेकिन स्वाभिमान उनमें प्रचुरता से भी अधिक था। वह अपनी पीड़ा किसी के साथ नहीं बाँटते थे। उन्होंने अपना निर्माण स्वयं किया था। कुछ-कुछ वैसी ही प्रवृत्ति के ईश्वर भी थे, फर्क सिर्फ इतना था कि आत्म-गोपन की कला तथा अल्प-भाषण में ईश्वर शाही से बहुत आगे थे। शाही मुखर थे और अपनी बात खुलकर कहते थे। दो-ढाई महीनों में हमारी तिकड़ी जम गई थी और इन दो अल्पभाषियों बीच मैं अतिभाषी संतुलन बनाये रखने की चेष्टा करता रहता था।

बहरहाल, तीन-साढ़े तीन महीनों तक लगातार बैचलर क्वार्टर नामक नीड़ में रात के २-३ बजे तक मेरे कमरे की जलती लाइट देखकर भी उसमें रहनेवाले चिड़ों को कोई संदेह नहीं हुआ कि वहाँ कुछ ऐसा-वैसा अनुष्ठान होता है। बस, लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी ने दो-तीन बार जिज्ञासा की थी, चिकोटी काटी थी और मुझसे पूछा था कि 'तुम्हारे कमरे में रात भर लाइट क्यों जलती रहती है, डर लगता है क्या ?' मैं उनकी बात का कोई उत्तर न देकर कन्नी काट जाता। एक बार तो लक्ष्मीनारायणजी के अधिक परेशान करने पर मेरी रक्षा में शाही उनसे जा भिड़े थे, इस बात की चिंता किये बिना कि यदि वह महामानव उनपर गिर पड़े तो उनका क्या हश्र होगा।....
(क्रमशः)


अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED