Nishchhal aatma ki prem-pipasa - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 8

जब सुनी गई पहली पुकार...

उस शाम बाबा ने पराजगत के विषय में जो कुछ बतलाया, वह गूढ़ ज्ञान चकित करनेवाला था। वह तो एक सम्पूर्ण लोक ही है, जिसके कई तल (layer) हैं, कर्मानुसार शरीर-मुक्त आत्माएं विभिन्न तलों में प्रतिष्ठित होती हैं और अपना समय वहाँ व्यतीत करती हैं। परमशांत, आप्तकाम, जीवन्मुक्त आत्माएं समस्त तलों के पार चली जाती हैं अर्थात जन्म-मृत्यु चक्र से छूट जाती हैं। ऐसी आत्माएं कभी संपर्क में नहीं आतीं। उन्हें पुकारना व्यर्थ है। अपमृत्यु को प्राप्त आत्माएं सबसे निचले तल पर भटकती रहती हैं। उनमें अत्यधिक विचलन होता है, वे जगत-संपर्क के लिए किसी माध्यम की तलाश में व्याकुल रहती हैं। ऐसी आत्माएं किसी माध्यम को पाते ही शीघ्रता से, स्वयं प्रेरित होकर, उपस्थित हो जाती हैं और फिर लौटना नहीं चाहतीं। उनकी अत्यधिक व्यग्रता सम्हाले नहीं संभलती। इन बिन-बुलाई आत्माओं से परहेज करना चाहिए और यदि वे संपर्क साधने में बलात सफल हो जाएँ तो उन्हें वापस भेजकर ही आसन का त्याग करना चाहिए। ये आत्माएं बहुत हठी होती हैं, लौटना ही नहीं चाहतीं; किन्तु उन्हें विदा कर यह सुनिश्चित कर लेना भी आवश्यक है कि वे चली गयीं अथवा नहीं। सचमुच, मुझे आश्चर्य हुआ वहाँ भी इतनी व्यापक व्यवस्था है…!

बाबा उस दिन बहुत मुखर थे। उपर्युक्त बातें समझाकर उन्होंने कहा था--'जो कोई अपनी समस्त चेतना और ऊर्जा को समेटकर एक विन्दु पर केन्द्रित कर सकेगा, और पूरी तड़प के साथ अपनी पुकार 'ट्रांस' (परा ) में भेज सकेगा, वह वांछित आत्मा से संपर्क साधने में सफल होगा। इस भ्रम में मत रहना कि इस क्रियाकलाप में अन्य कोई जादू अथवा तंत्र-मंत्र है। हाँ, साधना की गहराई इस क्रिया को गति देती है, पुकार को अचूक बनाती है।'

वे मुझे पूजन-स्थल पर ले गए। उन्होंने मुझे ध्यान-आसन की मुद्रा बतायी। चित्त को एकाग्र करने और ध्यान को प्रगाढ़ करने की विधि बतायी। मृतात्मा के स्वरूप को मानस-पटल पर स्थिर करना और उसे पुकारते हुए एकाग्रचित्त बने रहना कैसे संभव है, सब समझाया। मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए पूछा--'बाबा, आपने वह मंत्र तो बताया ही नहीं, जिसे आप निःशब्द बोलते रहते हैं?' उन्होंने कहा--'अभी उसकी तुझे ज़रूरत नहीं।' वह मुझे बताने लगे कि बोर्ड पर एक साथ तीन व्यक्ति बैठ सकते हैं, लेकिन दक्षिण की दिशा खाली रखनी होगी--अवरोधविहीन। वही काल-भैरव की दिशा है, वही आत्माओं के आने-जाने का मार्ग है। मैंने पुनः पूछा--'जिन आत्माओं ने पुनर्जन्म ले लिया है अर्थात जीवन-जगत में लौट आई हैं, क्या उनसे भी संपर्क किया जा सकता है?' बाबा ने तत्काल उत्तर दिया था--'अनुभव भी बहुत कुछ सिखाता-बताता है। जब तेरी पहुँच बनेगी, इस प्रश्न का उत्तर भी तुझे मिल जाएगा...!''

तत्पश्चात, उन्होंने एक संक्षिप्त अभ्यास भी मुझसे करवाया था। उन्होंने कुछ हिदायतें दी थीं और अंततः एक शपथ दिलवाई थी। हिदायत ये कि आत्मा से संपर्क के दौरान कक्ष में किसी-न-किसी रूप में अग्नि प्रकट रहनी चाहिए। प्रकट हुई आत्मा को उसके लोक में वापस भेजकर सुनिश्चित कर लेना आवश्यक होगा कि वह विदा हो गई है अथवा नहीं।

और शपथ ये कि आत्मा का आह्वान कभी किसी लोभ-लाभ के लिए, स्वार्थ-साधन के लिए या किसी को पीड़ित करने के लिए मैं नहीं करूँगा। बाबा ने यह अहद भी उठाने को कहा कि इस प्रसंग में कभी उनका नामोल्लेख मैं नहीं करूँगा। उनकी हर बात का मान मैंने चालीस वर्षों तक रखा। अपने निकटतम मित्रों को भी मैंने कभी जानने नहीं दिया कि यह गुर मुझे भैरोंघाट पर किन्हीं बाबा की कृपा से प्राप्त हुआ था। लेकिन इस दस्तावेज़ के लेखन के लिए उनका उल्लेख तो अत्यावश्यक था अन्यथा यह दस्तावेज़ पूरा कैसे होता? फिर भी, नामोल्लेख तो हुआ ही नहीं; क्योंकि नाम तो अज्ञात था!

इस सम्पूर्ण क्रियाकलाप में रात के ९ बज गए थे। बाबा ने हवन-कुण्ड से भभूत उठाई और मेरे मस्तक पर लगाकर आशीर्वाद दिया। उनके टप्पर से चलने को हुआ तो बाबा ने कहा--'सुन, शरीर और वस्त्र की स्वच्छता होनी चाहिए। हाँ, शुरूआती दौर में पात्र में विचलन हो, किन्तु उसे चलने में कठिनाई हो रही हो तो अपनी एक ऊँगली का स्पर्श पात्र के ऊपरी भाग पर दिए रहना।' मैंने पूछा--'ऐसा क्यों बाबा? क्या मेरी गिलासिया स्वयं नहीं चल पड़ेगी?'

बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा था--'तेरी साधना में ऐसी शक्ति अभी उत्पन्न नहीं हुई है। उसके लिए गहरी और लम्बी साधना करनी होगी और दीर्घकालिक अभ्यास भी जरूरी है।' कुटिया से बाहर आते-आते बाबा ने कहा था--'अपना ख़याल रखना बच्चे...!'

क्वार्टर पर पहुंचा तो साढ़े नौ से ज्यादा हो चुके थे। रास्ते-भर ऐसे उड़ता चला आया, जैसे मुझ में पंख लगे हों। शीघ्रता से स्नान करके मेस में गया और जल्दी-जल्दी तीन रोटियां खायीं। अपने कमरे में आकर मैंने दरवाज़े बंद कर लिए और लेटकर बारह बजने की प्रतीक्षा करने लगा। व्यग्रता, उत्कंठा, उत्साह और उमंग ने मुझे व्याकुल कर रखा था और आतुर प्रतीक्षा की घड़ियाँ व्यतीत ही नहीं होती थीं।

घड़ी का काँटा बारह बजने का एलान करता, इसके पहले ही मैंने सारी व्यवस्था जमा ली थी।मोमबत्तियाँ रही थीं और अगरबत्ती की सुगंध कमरे में भर रही थी। बारह बजते ही मैं आसन पर जमकर बैठ गया और प्रारंभिक प्रार्थना के बाद ध्यान केंद्रित कर अपनी माँ को पुकारने लगा। वह तो बैचलर क्वार्टर था, आधी रात तक वहाँ खटपट लगी रहती थी। किसी भी स्वराघात से मेरा ध्यान-भंग होता तो चित्त को पुनः एकाग्र करना पड़ता। एक घंटे के ध्यान के बाद मेरे शरीर और हाथ के गिलास में हल्का-सा कम्पन हुआ। मैंने सचेत होकर गिलास को बोर्ड पर रखा और मेरे मुख से प्रश्न उच्चरित हुआ--'क्या आप आ गई हैं माँ?' गिलास रखने के बाद मैंने दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में जोड़ लिए थे और आँखें फाड़कर ग्लास को देख रहा था। पांच-छः सेकेण्ड बाद भी ग्लास में कोई हरकत न देखकर मुझे थोड़ी निराशा हुई। मुझे बाबा की बात याद आई और मैंने अपने दायें हाथ की प्रथमा (ऊँगली) से गिलास के शीर्ष भाग का स्पर्श कर वही प्रश्न दुबारा पूछा। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि गिलास ने हिलना शुरू किया। उसकी गति बहुत मंद थी, किन्तु वह चल पड़ा था और धीरे-धीरे अंकित किये हुए 'YES ' की ओर बढ़ रहा रहा था।

वह मेरी परम प्रसन्नता का क्षण था। मैं चकित भी था और हर्षोन्मत्त भी। मैंने अपने प्रयत्न से पहली बार पारा-जगत से संपर्क साधने में सफलता पायी थी।

(क्रमशः)]

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