Nishchhal aatma ki prem-pipasa - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 3

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... (३)

जब मैंने किशोरावस्था की दहलीज़ लांघी और मूंछ की हलकी-सी रेख चहरे पर उभर आई, तो चाचाजी मेरे प्रश्नों के संक्षिप्त और संतुलित उत्तर देने लगे। उनके पास कथाओं का अंबार था--अनुभूत सत्य से भरी कथाएं--रोमांचक! फिर भी वह आत्माओं से संपर्क के अपने अनुभव बतलाते हुए अपनी वाणी को संयमित रखते। उतना ही बताते, जितना बतलाना उचित समझते। इस विद्या के उनकी गति बहुत थी। उनके निर्देश पर आमंत्रित आत्माएं स्वयं उत्तर दे जाती थीं, पेन्सिल स्वयं खड़ी होकर प्रश्नों के उत्तर कागज़ पर लिख जाती, कोकाकोला के टिन के ढक्कन समस्याओं के समाधान के लिए अक्षरों का स्पर्श करने स्वतः चल पड़ते।उनके पास यह जो गूढ़ विद्या थी, उन्हीं के साथ चली गई। उसे उन्होंने किसी के साथ बांटा नहीं, किसी को दिया नहीं। मैं जिज्ञासु बना उनके आगे-पीछे मंडराता भी रहा, लेकिन उस कच्ची उम्र में वह मुझे इस विद्या के लिए अयोग्य अथवा अपात्र ही मानते रहे। सत्य यह भी है कि मैं उनके संपर्क में कम ही रहा। मैं पटना में, तो वह किसी दूसरे शहर में। छुट्टियों में ही उनसे मिलना हो पाता। कालान्तर में उनका स्थानांतरण तुर्की, मुजफ्फरपुर से आरा के एक जनपद (बभनगावाँ) में हो गया। वहीं रहते हुए, मात्र ५१ वर्ष की आयु में, सन १९७० में उन्होंने परमगति पायी। सच है कि उन्होंने ही मेरे मन में पारलौकिक जीवन के रहस्यों को जानने की तीव्र उत्कंठा, प्रबल आकर्षण और गहरी पिपासा जगाई थी। इस रूप में वे ही मेरे प्रथम गुरु थे। आज यह दस्तावेज़ लिखते हुए मैं उन्हें स्मरण-नमन करता हूँ।
मैं थोड़ा और बड़ा हुआ तो खोज-ढूंढकर पराजीवन में हस्तक्षेप की अनेक पुस्तकें पढने लगा--'रवीन्द्रनाथ की परलोकचर्चा', 'The Life after death ' आदि। इसी अध्ययन-क्रम में एक पुस्तक मेरे हाथ लगी--'पीले गुलाब की आत्मा'। इस पुस्तक के लेखक थे--विश्वम्भर मानव। पुस्तक में चाचाजी का उल्लेख देखकर मुझे प्रसन्नता हुई थी। यह भी ज्ञात हुआ था कि इस विधा में उनकी क्षमता और पहुँच क्या थी। प्रौढ़ावस्था की पहली सीढ़ी पर पाँव रखते ही उन्होंने शरीर त्याग दिया था। पितामह की तरह अल्पायु हुए चाचाजी (दोनों की आयु ठीक ५१ वर्ष) को यदि अपेक्षाकृत दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता, तो मेरे वयस्क होने पर इस विद्या का कोई सूत्र वह मुझे ही देते, इसका मुझे पूरा विश्वास है। किन्तु जो हो न सका, उसका खेद भी क्या ? बाबा तुलसीदास कह भी तो गए हैं--'हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।'
लेकिन एक माध्यम बनकर परा-जगत में हस्तक्षेप करने की अपनी प्रबल इच्छा मैंने लम्बे समय तक मन ही दाबाये रखी और सोचता रहा कि जब कभी, कहीं योग्य गुरु मिलेंगे, तो थोड़ी ओझागिरी मैं अवश्य करूंगा।
(क्रमशः)

जब मैंने किशोरावस्था की दहलीज़ लांघी और मूंछ की हलकी-सी रेख चहरे पर उभर आई, तो चाचाजी मेरे प्रश्नों के संक्षिप्त और संतुलित उत्तर देने लगे। उनके पास कथाओं का अंबार था--अनुभूत सत्य से भरी कथाएं--रोमांचक! फिर भी वह आत्माओं से संपर्क के अपने अनुभव बतलाते हुए अपनी वाणी को संयमित रखते। उतना ही बताते, जितना बतलाना उचित समझते। इस विद्या के उनकी गति बहुत थी। उनके निर्देश पर आमंत्रित आत्माएं स्वयं उत्तर दे जाती थीं, पेन्सिल स्वयं खड़ी होकर प्रश्नों के उत्तर कागज़ पर लिख जाती, कोकाकोला के टिन के ढक्कन समस्याओं के समाधान के लिए अक्षरों का स्पर्श करने स्वतः चल पड़ते।उनके पास यह जो गूढ़ विद्या थी, उन्हीं के साथ चली गई। उसे उन्होंने किसी के साथ बांटा नहीं, किसी को दिया नहीं। मैं जिज्ञासु बना उनके आगे-पीछे मंडराता भी रहा, लेकिन उस कच्ची उम्र में वह मुझे इस विद्या के लिए अयोग्य अथवा अपात्र ही मानते रहे। सत्य यह भी है कि मैं उनके संपर्क में कम ही रहा। मैं पटना में, तो वह किसी दूसरे शहर में। छुट्टियों में ही उनसे मिलना हो पाता। कालान्तर में उनका स्थानांतरण तुर्की, मुजफ्फरपुर से आरा के एक जनपद (बभनगावाँ) में हो गया। वहीं रहते हुए, मात्र ५१ वर्ष की आयु में, सन १९७० में उन्होंने परमगति पायी। सच है कि उन्होंने ही मेरे मन में पारलौकिक जीवन के रहस्यों को जानने की तीव्र उत्कंठा, प्रबल आकर्षण और गहरी पिपासा जगाई थी। इस रूप में वे ही मेरे प्रथम गुरु थे। आज यह दस्तावेज़ लिखते हुए मैं उन्हें स्मरण-नमन करता हूँ।

मैं थोड़ा और बड़ा हुआ तो खोज-ढूंढकर पराजीवन में हस्तक्षेप की अनेक पुस्तकें पढने लगा--'रवीन्द्रनाथ की परलोकचर्चा', 'The Life after death ' आदि। इसी अध्ययन-क्रम में एक पुस्तक मेरे हाथ लगी--'पीले गुलाब की आत्मा'। इस पुस्तक के लेखक थे--विश्वम्भर मानव। पुस्तक में चाचाजी का उल्लेख देखकर मुझे प्रसन्नता हुई थी। यह भी ज्ञात हुआ था कि इस विधा में उनकी क्षमता और पहुँच क्या थी। प्रौढ़ावस्था की पहली सीढ़ी पर पाँव रखते ही उन्होंने शरीर त्याग दिया था। पितामह की तरह अल्पायु हुए चाचाजी (दोनों की आयु ठीक ५१ वर्ष) को यदि अपेक्षाकृत दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता, तो मेरे वयस्क होने पर इस विद्या का कोई सूत्र वह मुझे ही देते, इसका मुझे पूरा विश्वास है। किन्तु जो हो न सका, उसका खेद भी क्या ? बाबा तुलसीदास कह भी तो गए हैं--'हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।'

लेकिन एक माध्यम बनकर परा-जगत में हस्तक्षेप करने की अपनी प्रबल इच्छा मैंने लम्बे समय तक मन ही दाबाये रखी और सोचता रहा कि जब कभी, कहीं योग्य गुरु मिलेंगे, तो थोड़ी ओझागिरी मैं अवश्य करूंगा।

(क्रमशः)

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