शौर्य गाथाएँ - 14 Shashi Padha द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शौर्य गाथाएँ - 14

शौर्य गाथाएँ

शशि पाधा

(14)

संकल्प और साहस की प्रतिमूर्ति

( मेजर विवेक बंडराल, सेना मेडल )

सर्दी का हल्का सा आभास दिला रही थी वो सुबह| हम कुछ सप्ताह के लिए अपने छोटे बेटे आदित्य के पास रहने वाशिंगटन डी सी आए हुए थे| इतने वर्ष अमेरिका में रहने के बाद भी मेरा बेटा बिलकुल नहीं बदला था| रात देर तक जागना; घंटों ऊँची आवाज़ में संगीत सुनना, सुबह कई बार अलार्म को बंद करके रजाई में मुँह छिपाना और ऑफिस जाने की जल्दी में सुबह के नाश्ते के लिए ना-नुकर करना|

मैंने उस दिन उसके उठने से पहले ही उसका प्रिय नाश्ता “फौजी ऑमलेट” बनाया था| बिलकुल वैसे ही जैसे सभी फौजी घरों में हर सुबह बच्चों के लिए बनता है| बहुत सारा प्याज, टमाटर, हरी मिर्ची के साथ बना हुआ ऑमलेट और साथ में “मैगी” की टमाटो कैचप| मुझे सदैव एक बात की हैरानी रहती है कि हमारे बच्चे चाहे सात समन्दर पार नए देश, नए परिवेश में रहने आ गए हैं लेकिन फौजी रहन–सहन और फौजी खान-पान भी वो मन की किसी गठरी में बाँध कर ले आए हैं| मैंने यहाँ आकर देखा, कुछ भी तो नहीं बदला| घर के अन्दर हम और हमारा भारतीय फौजी मन, चाहे बाहर का देश अमेरिका ही क्यों न हो !

हमारे लिए विदेश में रहना एकाकीपन की पीड़ा से समझौता करना था| मेरे पति 39 वर्ष तक भारतीय सेना में सक्रीय कर्तव्य निभाने के बाद अब सेवा निवृत्त हो गए थे| सेवानिवृत्ति के दो महीन के बाद ही उन्होंने बच्चों के पास अमेरिका आने का निर्णय ले लिया था| हर दो वर्षों के बाद जगह बदलना, शहर बदलना तो हम सैनिक पत्नियों के जीवन का अभिन्न अंग था, लेकिन इस बार का बदलाव बिलकुल भिन्न था| हम अपने पीछे अपने जीवन का वो महत्वपूर्ण भाग छोड़ आये थे जिसे संजोने में परिश्रम, आस्था और उत्साह के साथ- साथ गौरव की भावना भी थी| खैर, अब यहीँ हमारा घर था |

उस दिन सुबह के नाश्ते के बाद मेरे पति और मैं अपनी-अपनी लैपटॉप लेकर बैठ गए थे| साथ थी, बड़े से मग में गर्म-गर्म हमारी जम्मू स्पैशल ‘देसी चाय’| फौजी जीवन का आराम और सुविधाएँ बस स्मृतियों में ही कहीं रह गया था| नई टैक्नोलोजी ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समाचार पत्र के स्थान पर इ-पेपर हमें थमा दिया था| अंतर्जाल ही हमारा अपने देश में हो रही गतिविधियों से जुड़ने का एक मात्र माध्यम था| मेरे पति ‘भारत रक्षक’ डॉट कॉम पर जाकर भारतीय सेना के विभिन्न अभियानों की जानकारी लेते रहते थे | हम दोनों प्रतिदिन इन्टरनेट पर मिलने वाले लगभग सभी समाचार पत्र पढ़ लेते थे|

उस दिन भी मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ खोल कर बैठी थी| रोज़ की तरह वही समाचार| राजनैतिक उथल-पुथल, घोटाले, भारत-पाक सीमा पर होने वाली मुठभेड़ आदि-आदि| इ-पेपर के किसी एक छोटे से कॉलम में एक समाचार था | कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र में घुसपैठियों के साथ हुई मुठभेड़ में भारतीय सेना का एक अधिकारी और दो जवान शहीद हो गए|

ऐसे दुखद समाचार कितनी बार सुने और पढ़े थे| कितनी बार शहीदों के परिवारों को सूचित करने की जिम्मेदारी भी निभाई थी| किन्तु हर बार वही पीड़ा, वही आशंका मुझे अन्दर से बेध देती है| मेरे अपने दो बेटे हैं लेकिन भारतीय सेना के लाखों सैनिक भी तो मेरे बेटों जैसे ही हैं| जिन्हें मैं जानती हूँ वे भी और जिन्हें मैं नहीं जानती, वो भी| पता नहीं आज किसका नाम पढूँगी| थोड़ा रुक कर मैंने मुठभेड़ के उस समाचार को विस्तार से पढ़ना शुरू किया| पढ़ते-पढ़ते जो नाम आया उसे देखते ही क्षण भर के लिए ह्रदय गति जैसे रुक गई| आँखें तो लैप टॉप के स्क्रीन पर लिखे नाम पर थीं पर द्रवित मन जीवन के कई वर्ष पीछे मुड़ गया |

वर्ष 1989 की ऐसी ही सर्द सुबह थी| मैं जम्मू छावनी में अपने दोनों बेटों के साथ रहती थी| मेरे पति सीमा क्षेत्र में पोस्टेड थे, जहाँ परिवार को साथ रहने की अनुमति नहीं थी| सुबह–सुबह के काम काज ने मुझे व्यस्त रखा था कि कॉल बेल बजी| मैं दरवाज़ा खोलने गई|

“गुड मॉर्निंग आंटी, मेरा नाम विवेक बंडराल है ‘आदि’ है?” वह मेरे छोटे बेटे आदित्य के बारे में पूछ रहा था| मैंने उसे अन्दर आने को कहा| बच्चे नाश्ता कर रहे थे| वही फौजी ऑमलेट और कोल्ड कॉफ़ी| मैंने विवेक को भी नाश्ता करने को कहा| वह भी बच्चों के साथ बैठ गया| पूरे समय तक विवेक थोड़ा सकुचाया, शरमाया सा बैठा रहा| ऊँचे-लम्बे विवेक के व्यक्तित्व की विशेषता और आकर्षण था, उसके चेहरे की एक कान से दूसरे कान को छूती हुई मुस्कराहट, जो अभी-अभी आई मूँछो में छिपी हुई थी |

नाश्ते के बाद मेरा अपना बेटा ‘विवेक’ अपने स्कूटर पर और छोटा बेटा आदित्य विवेक बंडराल के साथ उसके नये–नये मोटर साइकल पर सवार हो कर कॉलेज चले गए|

समय बीतता गया| विवेक बंडराल भी मेरे बेटे जैसा हो गया| आदित्य और उसके एक जैसे शौक थे| लाऊड म्युज़िक, मोटर साइकल पर सैर सपाटा, मूवीज, स्पोर्ट्स और घंटों देर रात तक बाहर खड़े हो कर बातें करना| दोनों के ही आदर्श उनके सैनिक पिता थे| बहुत बार दोनों अपने-अपने पिता की ‘कॉम्बेट ड्रेस’ और बड़े-बड़े ‘डी एम एस’ जूते पहन कर घूमते थे| आदित्य कभी-कभी अपने पापा की ‘पैरा कमाण्डो’ की विशेष वर्दी ‘काली डांगरी’ पहन कर घूमता था| विवेक तो तभी से स्पैशल फोर्सेस में भर्ती होने के लिए प्रेरित हो गया था| विवेक के माता-पिता से मैं कभी मिली नहीं थी किन्तु आदित्य से सुना था कि उसके पिता कर्नल प्रीतम बंडराल अपनी शूरवीरता के लिए सम्मानित हो चुके थे|

मैं माँ थी, जल्दी ही पहचान गई कि दोनों को ही सेना में प्रविष्टि पाने की प्रबल इच्छा थी| कुछ ही दिनों बाद आदित्य और विवेक बंडराल ने साथ–साथ सेना प्रविष्टि की परीक्षा पास की| कालान्तर में विवेक सेना अधिकारी की ट्रेनिंग के लिए चला गया और ‘आदि’ पढ़ने के लिए अमेरिका आ गया|

सैनिक जीवन में नए शहर, नए परिवेश में रहने का स्वभाव सा बन जाता है| मेरे पति भी जम्मू से पठानकोट छावनी में स्थानांतरित हो कर आ गए| फिर से नई जिम्मेदारियाँ, नयी चुनौतियाँ, नए मित्र और नया घर| कुछ समय लगा, किन्तु फिर वो सब अनजाना भी अपना हो गया|

दिसम्बर की एक सुबह हमारे सहायक ने हमें सूचित किया कि कोई लेफ्टिनेंट साहब मिलने आए हैं| सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक आगन्तुक को अन्दर आने से पहले सुरक्षा कर्मियों के प्रश्नों की रेखा को पार करना पड़ता था| नियम था, उसे हम भी नहीं तोड़ सकते थे|

मैंने सहायक भैया से पूछा, ”कौन साहब हैं?” और स्वयं ही कह दिया, “उन्हें अन्दर बिठाओ, मैं अभी आती हूँ|”

सोचा जो घर के अन्दर आ गए है, अच्छी तरह परिचित ही होंगे|

जैसे ही मैं ड्राइंग रूम में गई, पूरी सैनिक वर्दी में सजे ‘विवेक बंडराल’ को देख कर हैरान हो गई| उसने पूरे फौजी ढंग से मुझे सैल्यूट करते हुए कहा, “गुड मॉर्निंग आंटी|”

आंटी कहते ही वो थोड़ा झिझक गया| फिर से कहा, ”मॉर्निंग मैम|”

विवेक निर्णय नहीं कर पा रहा था कि मुझे कैसे संबोधित करे| उसकी झिझक देख मुझे हँसी आई और मैंने प्यार से उसे गले लगाते हुए बधाई दी| विवेक छह फुट से थोड़ा लंबा लग रहा था | मैंने उसे पहली बार सैनिक अधिकारी की वर्दी में देखा था| चेहरे पर उद्देश्य पूर्णता की आभा झलक रही थी| कुछ नहीं बदला था| अभी भी बात करते हुए वही शर्मीली सी मुस्कान| इस बार कुछ और घनी हुई मूँछें भी उसे छुपा नहीं सकीं

“मैम, ‘आदि’ कब आ रहा है?” वो आदित्य से मिलने को बहुत उत्सुक जान पड़ता था|

आदित्य जल्दी आने वाला है, यह सुन कर वह बहुत खुश हो गया| उसने मुझे बताया कि उसे उसके पिता की रेजिमेंट ‘मराठा लाइट इन्फेंट्री” में कमीशन मिली है और आज कल वो अपने माता पिता के पास छुट्टी आया है|

“बेटे! तो तुम्हारे माता–पिता यहाँ पर हैं और हमें पता ही नहीं|” मैंने प्रश्न सूचक दृष्टि से उसकी और देखा|

उसके पिता कर्नल प्रीतम बंडराल भी पठानकोट में पोस्टेड थे| जम्मू में हमारे परिवार कभी नहीं मिल पाए थे| मैंने उसे आदित्य का पता और फोन नंबर दिया और अगले दिन ही उसके माता–पिता को अपने घर आने का निमंत्रण भिजवा दिया|

अब हम दोनों परिवार घनिष्ठ मित्र हो गए| हमारे लिए उनका घर भी अपना घर हो गया, जहाँ हम बिना किसी औपचारिकता से आ–जा सकते थे| इसी बीच आदित्य के आने के बाद दोनों मित्र वही पुरानी मस्ती करते रहे| विवेक की मोटर साइकल और लम्बी-लम्बी सैर| आदित्य हमारे साथ कम, विवेक के साथ अधिक रहता था| उस उम्र में शायद यही ठीक लगता होगा| पता ही नहीं चला और दोनों बच्चों की छुट्टी समाप्त हो गई| आदित्य अमेरिका चला गया और विवेक अपनी पलटन में वापिस|

लगभग दो वर्ष के बाद पुन: हम फिर यायावरी जीवन मार्ग पर चल पड़े| पठानकोट से पहले शिमला और फिर हिमाचल में बसे छोटे से शहर नाहन में आ गए| नाहन में उन दिनों भारतीय सेना की ‘स्पेशल फोर्सेस’ का हैड क्वाटर था| इस हेड क्वाटर में, इस विशेष सैन्य दल का सदस्य बनने के इच्छुक सेना अधिकारियों और अन्य रैंक के सैनिकों का प्रशिक्षण और चयन होता है | सब से पहले तो स्पैशल फोर्सेस में भर्ती होने के लिए ‘वॉलंटियर’ होना पड़ता है और इसके बाद अत्यंत कठिन चयन प्रशिक्षण (probation) लेना पड़ता है| इस प्रोबेशन में तीन महीने तक सैनिक की शारीरिक क्षमता के साथ साथ मनोबल, धैर्य, नेतृत्व आदि कई सैन्य गुणों पर आधारित परीक्षा में सफल होना आवश्यक है | (संक्षेप में मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगी कि पहले से ही सेना में कार्यरत अधिकारी या जवान भी पुन: कठोर प्रशिक्षण और परीक्षा के बाद ही इस स्पैशल फोर्सेस के सदस्य बन सकते हैं | यह चयन इतना कठिन होता है कि प्रशिक्षण के लिए आये हुए आवेदकों में से लगभग 15% से 20% ही स्वीकृत होते हैं और शेष सभी अपनी-अपनी पलटन में वापिस लौट जाते हैं)

वर्ष 1996 में मेरे पति इस हेड क्वाटर के कमान अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए| कोर्स शुरू होने वाला था| उस कोर्स के लिए आवेदन पत्रों को देखते हुए मेरे पति ने एक जाना-पहचाना नाम पढ़ा ‘कैप्टन विवेक बंडराल| हम दोनों को इस बात की प्रसन्नता हुई कि स्पैशल फोर्सेस में एक और कर्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी एवं शूरवीर योधा सम्मिलित होगा|

कुछ दिनों बाद कोर्स आरम्भ हो गया | नियम ऐसे थे कि ना तो विवेक हमसे ज़्यादा मिलजुल सकता था और ना हम उससे कोई सम्पर्क कर सकते थे| वह एक प्रशिक्षार्थी था और अपने ध्येय की पूर्ति के लिए जी जान से परिश्रम कर रहा था| मैंने उसे छावनी में कभी-कभी देखा अवश्य था | वह सदैव ट्रेनिंग में व्यस्त रहता था|

तीन महीने बीत गए और उस कोर्स की परीक्षा में विवेक सफल हो गया| अब वह स्पैशल फोर्सेस के विशेष चिह्न ‘मैरून बैरी’ और ‘बलिदान’ लगाने का अधिकारी था| उस शाम ‘ऑफिसर्स मेस’ में एक पार्टी का आयोजन हुआ| वहाँ विवेक मुझे मिला था|

तपाक से सैल्यूट करते हुए उसने कहा, “गुड इवनिंग मैम” |

मैं उसकी सैल्यूट के फौजी अंदाज़ में छिपी उसकी शर्मीली मुस्कराहट को भाँप कर मुस्कुरा उठी थी| उसे वहाँ देख कर मुझे लगा जैसे मेरा बेटा आदित्य अमेरिका से लौट आया है | औपचारिकता का वातावरण था किन्तु मुझे विवेक को स्पैशल फोर्सेस की स्पेशल लाल टोपी और छाती पर सजे हुए ‘बलिदान’ चिह्न देख कर अपार गर्व हुआ |

कई रिश्तों की डोर ऐसे धागों से बंधी होती है कि उसकी कड़ियाँ कहीं ना कहीं फिर से जुड़ जाती हैं | यायावर होते हुए भी नियति हमें विवेक बंडराल से कहीं न कहीं अवश्य मिला देती थी| ट्रेनिंग के बाद विवेक की नियुक्ति भी 21 पैरा स्पैशल फोर्सेस में हुई | भाग्यवश वो पलटन भी उन दिनों नाहन छावनी में ही स्थित थी| विवेक स्वयं तो विशेष कमांडो ट्रेनिंग में अधिकतर व्यस्त ही रहता था किन्तु उसकी युवा पत्नी शालू से हमारा मिलना जुलना रहता था|

शालू एक मेधावी लड़की थी| हमारी मासिक ‘लेडीज़ मीट’ की हर मीटिंग में वह सक्रिय भाग लेती थी| नई नवेली दुल्हन थी | हर मीटिंग में आकर्षक साड़ी पहन, मंगल सूत्र और मांग में सिन्दूर भर कर जब वो आती तो हर कोई उसे निहारता रह जाता था | शालू बड़ी हँसमुख थी| मुझे याद है कभी-कभी शालू अपने मधुर स्वर में डोगरी गीत सुना कर सब को मोह लेती थी| उस सैनिक छावनी में हमारा विवेक और शालू से बस उतना ही मिलना जुलना होता था जितना बाकी परिवारों से| हाँ, उसके माता-पिता एक बार जब नाहन आये तो हम उनसे मिले और हमें उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा|

वर्ष 1998 में हमारा फिर से स्थानान्तरण हो गया| विवेक उन दिनों शायद किसी कोर्स के लिये गया हुआ था | विदाई समारोह में हम उससे मिल नहीं सके|

चार वर्ष बीत गए| मेरे पति सेना से सेवा निवृत हो गए और हम अमेरिका में अपने बेटों के पास आ गए| देश से दूरी तो हम को उदास करती ही थी, उससे ज़्यादा मलाल हमें सैनिक जीवन शैली से पूर्णतया अलग हो जाने का था| मन बार-बार वहीं लौट जाता था |

और आज लैप टॉप खोलते ही आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हुए सैनिक अधिकारी का नाम पढ़ा ‘मेजर विवेक बंडराल’| समय जैसे थम सा गया | आँखें बार–बार इस नाम को जैसे झुठलाना चाहती थीं| किन्तु सत्य तो सामने था| हमें इस बात का कष्ट हो रहा था कि हम इस दारुण दुःख के समय विवेक के माता-पिता के साथ नहीं थे | हम अपना दुःख भी किससे बाँटते| इतने बड़े देश में भी उस सुबह हम अपने आप को बहुत अकेला, असहाय अनुभव कर रहे थे| देर तक हमने प्रभु से विवेक के माता-पिता और उसकी पत्नी के मन की शान्ति के लिए प्रार्थना की| बहुत देर के बाद अपनी भावनाओं को संयत करके हम विवेक के बलिदान का विवरण पढ़ पाने के लिए साहस जुटा सके|

कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा क्षेत्र में उन दिनों आतंकवादियों ने आतंक का जाल बिछा रखा था| | विवेक की पलटन ‘21 पैरा स्पैशल फोर्सेस’ भी वहीं तैनात थी| 29 अगस्त के दिन विवेक अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ कुपवाड़ा के जंगलों में दहशत मचाते शत्रु के ठिकानों को नष्ट करने जा रहा था तो उनकी टुकड़ी पर छिपे हुए आतंकियों ने गोले बरसाने शुरू कर दिए| इस गोला बारी में विवेक की टुकड़ी का एक सदस्य बुरी तरह घायल हो गया| घायल साथी की रक्षा करना और उसे अपने कैम्प तक लाना सैनिक धर्म का महत्वपूर्ण अंग है | मेजर विवेक स्वयं उस घायल साथी को अपने सुरक्षित स्थान तक लाने के लिए शत्रु के छिपे हुए स्थान की ओर आगे बढ़े | किसी आतंकवादी ने उन्हें देख लिया और उन पर अंधाधुंध गोलाबारी से प्रहार किया| साहसी और कर्तव्यनिष्ठ विवेक ने इस गोला बारी की चिंता नहीं की | वो अपने साथी को सुरक्षित स्थान तक लाने में सफल तो हो गए किन्तु स्वयं उस गोला बारी की चपेट में आ गए| गम्भीर रूप से घायल होते हुए भी उन्होंने उस घुसपैठिये की बन्दूक को उससे छीन लिया और उस हमलावर पर हमला करके उसे वहीं पर समाप्त कर दिया| छाती पर गोली लगने से रक्तस्राव इतना हुआ था कि कुछ ही क्षणों में यह महान योद्धा युद्धस्थल पर ही वीरगति को प्राप्त हो गए|

उस भयानक रात में भारत माँ ने एक और शूरवीर को सदा के लिए खो दिया| विवेक ने एक वीर सैनिक के चरम कर्तव्य को अंत तक निभाया| निष्ठा, शूरवीरता और संकल्प भी उस रात उस योधा के आगे नतमस्तक थे| उनके इस अप्रतिम शौर्य और बलिदान के लिए भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें ‘सेना मैडल’ से सम्मानित किया |

हम पूरा दिन विवेक के विषय में सोचते रहे |बेटे आदित्य को जब यह सूचना दी तो वो बहुत दुखी हुआ| बार–बार यही कहता कि काश वो भी भारतीय सेना में भर्ती होता | दोनों मित्र एक साथ होते तो शायद वो उसे बचा सकता या कभी न कभी आतंकवादियों से बदला लेता| लेकिन होनी तो सब कुछ पहले से ही तय करके बैठी होती है|

आदित्य उन दिनों वाशिंगटन डी सी में ‘मेरीन कोर’ की मेराथान में भाग लेने की तैयारी कर रहा था | मैराथान के दिन उसने जो टीशर्ट पहनी हुई थी उस पर लिखा हुआ था ‘मेरे बहादुर मित्र शहीद मेजर विवेक बंडराल को समर्पित’| मैराथान की समाप्ति के बाद उसे जो मैडल मिला उसे भी उसने श्रद्धांजलि रूप में मेजर विवेक को समर्पित कर दिया | उस दिन मेरे मन में विचार आया हर कोई अपने दुःख को अपने अपने ढंग से झेलता है, और मेरे बेटे ने अपने जीवन की पहली दौड़ को अपने शूरवीर मित्र को समर्पित करके अपनी कृतज्ञता प्रकट की थी| उसके इस समर्पण में हमारे भी श्रद्धा सुमन थे|

कुछ दिनों के बाद हमने मेजर विवेक के माता पिता के साथ फोन द्वारा सम्पर्क किया| उनकी माँ राज तो विह्वलता वश बात करने में असमर्थ थीं किन्तु उनके पिता कर्नल बंडराल से बात हो सकी|

फोन पर बात करते हुए मैंने विवेक के पिता से कहा, “विवेक तो पहले से ही सेना में अधिकारी था| अगर वो स्पैशल फोर्सेस में भर्ती नहीं होता तो शायद परिस्थिति कुछ और होती” |

उन्होंने बड़े संयत स्वर में मुझसे कहा, “मैम, यह होना ही था | विवेक ने जब से जनरल पाधा (मेरे पति) को स्पैशल फोर्सेस की वर्दी में देखा था, तब से ही उसने इस फ़ोर्स में सम्मिलित होने का संकल्प ले लिया था| मुझे गर्व है कि वो अपने जीवन में लिए हुए संकल्प को पूरा कर सका|”

उन्होंने बताया कि विवेक पहले भी दो वर्ष तक अपनी पलटन के साथ कश्मीर घाटी में आतंकवादियों के साथ युद्धरत रहा था| इस बार तो वो सेना के ट्रेनिंग सेंटर ‘माहू’ (मध्यप्रदेश) में पोस्टेड था| उसकी पलटन ‘21 स्पैशल फोर्सेस’ उन दिनों पुन: कश्मीर में घुसे आतंकवादिओं के ठिकानों को नष्ट करने के लिए तैनात थी | विवेक बार-बार अपने वरिष्ठ अधिकारी से यह अनुरोध करता था कि उसे अपनी पलटन में भेज दिया जाए| अभियान की इस घड़ी में वो अपने सैनिक साथियों से दूर नहीं रहना चाहता था| आखिर उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया गया था और विवेक अपने संकल्प की पूर्ति के लिए युद्धभूमि कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा क्षेत्र में चला गया था |

उनके पिता कर्नल बंडराल ने बड़े गर्व से कहा था, “उसके जीवन का यही चरम लक्ष्य था| उसे कोई नहीं रोक सकता था, नियति भी नहीं|”

मेजर विवेक बंडराल तो मेरे बेटे के समान था| उसके इस महा बलिदान के आगे तो हम नतमस्तक हैं ही, किन्तु आज इस आलेख के माध्यम से मैं सैकड़ों वीरों को श्रद्धासुमन अर्पित करती हूँ जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर अब तक भारत माँ की रक्षा के लिए और देश की अखंडता को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है| अदम्य साहस और शौर्य की प्रतिमूर्ति उन शूर वीरों को शत शत प्रणाम ||

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