शौर्य गाथाएँ - 15 Shashi Padha द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शौर्य गाथाएँ - 15

शौर्य गाथाएँ

शशि पाधा

(15)

शायद कभी

वर्ष १९७१ के सितम्बर अक्टूबर के महीनों के आस पास भारत की सीमाओं पर पाकिस्तान की सेना का जमाव बढ़ रहा था | गोलाबारी की छुटपुट घटनाएँ भी होती रहती थीं | मेरे पति की पलटन ‘स्पेशल फोर्सस’ को भी सीमाओं पर कूच करने के लिए अग्रिम चेतावनी दे दी गई थी | अक्टूबर का महीना भारतीय परिवारों के लिए विशेष महत्व रखता है | इसी महीने भारतीय पत्नियों के लिए ‘करवा चौथ’ का व्रत आता है जिसे सुहागिन स्त्रियाँ बड़े शौक से मनाती हैं | साथ ही अक्टूबर – नवम्बर में दीवाली का महापर्व भी आता है जिसे सभी भारतीय परिवार बड़े आनन्द और उत्साह से मनाते हैं |

हमारी पलटन की स्त्रियों को भी करवा चौथ तथा दीवाली मनाने का विशेष उत्साह था | उन दिनों सीमाओं के पास लगे क्षेत्रों में स्थित सैनिक छावनियों में स्थाई रूप से सैनिक परिवारों के रहने का आदेश नहीं था | बस कभी –कभी तीन –चार महीनों के लिए कुछ परिवार रहने आते थे | मैं भी पहली बार अपने पति की यूनिट में रहने के लिए गई थी | छोटी सी पहाड़ी के बीचोबीच हमारी यूनिट का कैम्प था | अक्टूबर माह के आरम्भ में ही हमारी पलटन को जम्मू –कश्मीर राज्य में स्थित भार–पाक सीमा की ओर जाने का आदेश मिला | क्योंकि ऐसे अवसरों पर अस्थाई छावनियों में परिवारों के रहने की व्यवस्था नहीं होती, हम सब ने भी अपने-अपने घर लौट जाने की तैयारी कर ली |

मैं जम्मू में अपने माता-पिता के साथ रह रही थी| दिसंबर माह में युद्ध के गहरे बादल मंडराने लगे | बहुत सी सैनिक टुकड़ियाँ अन्य क्षेत्रों से सीमा पर भेजी जा रही थीं | युद्ध कब आरम्भ होगा अथवा पहली गोली किस ओर से चलेगी, इसका कोई निश्चित समय तो नहीं होता | मेरे पति की यूनिट भी लगभग दो महीने से सीमाओं की चौकसी पर तैनात थी |

दो दिसंबर की शाम मेरे पति के मित्र मेजर राठौर मुझसे मिलने आये | उनकी सैनिक टुकड़ी हमारे घर से केवल 35 मील दूर ही तैनात थी अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था | इसीलिये अक्सर वे मिलने आ जाते थे | उस दिन उनके साथ एक अन्य सैनिक अधिकारी भी थे, जिन्हें मैं पह्चानती नहीं थी |

आते ही मुस्कुराते हुए मेजर राठौर ने कहा, ” बहुत दिन हो गए हैं घर का खाना खाए | जो भी है जल्दी से परोस दीजिये| रात होने से पहले ही हमें अपने कैम्प में वापिस लौटना है |”

मैंने उत्सुकता से उनके साथ आये उस अपरिचित अधिकारी की ओर देखा और कहा, “ अच्छा तो यह नए ऑफिसर आए हैं हमारी पलटन में ?”

मेजर राठौर ने परिचय कराते हुए कहा, “ देखा, भूख के मारे इनसे मिलवाना तो भूल ही गया | यह हैं कैप्टन मलिक | यह आर्टिलरी रेजिमेंट के हैं और वालंटियर हो कर हमारी कमांडो यूनिट के साथ काम करने आये हैं | युद्ध के समय यह ओ० पी० (Observation Post ) पर अपना दायित्व निभाते हुए हमारी सैन्य टुकड़ी के साथ रहेंगे | ( अपने पाठकों को मैं सैनिक भाषा में प्रयोग होने वाले ओ ०पी० शब्द से परिचित कराती हूँ | युद्ध के समय सेना की “artillery” (तोप खाना ) यूनिट का विशेष मह्त्व होता है | इस यूनिट के कुछ सैनिक युद्ध क्षेत्र में शत्रु की सीमा के बिलकुल नज़दीक किसी ऊँचे पेड़ पर या ऊँचे टीले पर छिप जाते हैं | इसी स्थान को “ओ० पी०” कहा जाता है | वहाँ बैठे ये सैनिक “ Radio Communication” की सहायता से शत्रु की सीमा के आस पास होती हुई किसी भी हरकत से अपनी ओर की सेना को सूचित करते रहते हैं | जब युद्ध आरम्भ हो जाता है तो वे शत्रु की तोपों का या उनके मोर्चों की स्थिति का सही अंदाज़ करके अपनी ओर की तोपों पर तैनात सैनिकों को गोलाबारी करने का दिशा निर्देश देते रहते हैं ताकि उनके निशाने अचूक हों | युद्ध के समय लम्बी दूरी पर गोला दागने वाली तोपें वास्तविक सीमा क्षेत्र से लगभग १० या २० किलो मीटर की दूरी पर तैनात होती हैं | यूँ कहें कि Observation Post पर बैठे ये सैनिक ही दूरी पर तैनात तोप चालकों के लिए दृष्टि का काम करते हैं )

अब मेजर राठौर ने उनसे परिचय बढ़ाते हुए कहा, ” इन्हें बधाई दो, इनकी अभी अभी शादी हुई है |”

मैंने उन्हें शादी की बधाई दी और बड़े उत्साह से कहा, ” अरे वाह! तब तो मिठाई मंगानी चाहिए आपसे | चलिए कोई बात नहीं | हम मंगवा देते हैं |”

अब वो थोड़े सहज हो गए | मैंने पूछा, “कैसी हैं वो ? कहाँ रहती हैं ?”

उन्होंने कुछ शर्माते हुए कहा, ” वे बहुत अच्छी हैं | अपने माता पिता के पास रह कर अभी वे विश्विद्यालय में पढ़ रही हैं |”

“तो आपको उनके पत्र तो आते होंगे” मैंने उनसे पूछा |

“जी मैम, आते हैं | किन्तु थोड़ी परेशान, थोड़ी नाराज़ रहती हैं वे आज कल |” उन्होंने अपने दिल की बात कुछ यूँ कही |

मेरी प्रश्न सूचक दृष्टि को भाँप कर वे बोले, ” मैम, शादी के सात दिन के बाद ही मुझे पलटन में वापिस लौटने का आदेश मिल गया था | हम लोग गोवा गए हुए थे | वहाँ से सीधे मैं यूनिट वापिस लौट आया | आते–आते केवल उन्हें घर तक पहुँचाने का ही समय मिला |” कह कर वे चुप हो गए |

मैंने उनसे कहा, “ कोई बात नहीं, युद्ध का तो अब तक कोई पता नहीं | पर स्थिति संभलते ही आप फिर से छुट्टी पर जाना और उन्हें खूब सैर कराना |”

मेजर राठौर हम दोनों की बातचीत सुन रहे थे | बड़े संयत स्वर में बोले, ” शशि, मैं इसी वजह से इन्हें आपसे मिलवाने के लिए लाया हूँ | इनकी पत्नी का आग्रह भरा पत्र आया है कि वे इनसे मिलना चाहती हैं | वे चार दिसंबर को दोपहर की बस से जम्मू पहुँचेंगी | हम लोग तो कैम्प में रहते हैं, वहाँ तो वे आ नहीं सकतीं | क्या आप उन्हें बस अड्डे से अपने घर ला सकती हैं ? अनजान शहर में आने से उन्हें डर लग रहा है | आपके घर में दो चार दिन के लिए रह कर वे मलिक से मिल लेंगी | जब तक युद्ध आरम्भ नहीं होता, यह कुछ घंटों के लिए तो आपके घर तक आ ही सकते हैं |”

मेजर राठौर का कैप्टन मलिक के प्रति स्नेह और दायित्व की भावना देखकर मेरा मन भर आया | हम सैनिक परिवारों का आपस में एक विशेष संबंध बन जाता है जो पारिवारिक रिश्तों से भी ऊपर होता है |

मैंने बड़ी खुशी से कहा, ” अरे इसमें क्या मुश्किल | मैं उन्हें बस अड्डे से ले भी आऊँगी| और वे जब तक चाहें यहाँ रहें |”

थोड़ा सोच के मैंने पूछा, “ किन्तु मैं उन्हें पहचानूँगी कैसे ?”

कैप्टन मलिक ने तपाक से अपनी जेब से वालेट निकाला और सुर्ख जोड़े में सजी अपनी दुल्हन का फोटो सामने रख दिया | फोटो बहुत सुन्दर था जिसमें उनकी पत्नी लजाई सी बैठी थीं | मैंने हँसते हुए कहा, ” अरे! वे इन कपड़ों में थोड़ी आयेंगी | खैर, मुझे बस स्टाप पर जो भी भोली- भाली, थोड़ी खोयी-खोयी, किसी को ढूँढती-फिरती कोई लड़की मिलेगी, उसे मैं अपने घर ले आऊँगी |”

शर्माते हुए वे बोले, ” धन्यवाद मैम | वे बेचारी बहुत ही डरी हुई हैं | एक बार मुझसे मिल लेंगी तथा आपका हौंसला देख लेंगी तो निश्चिंत हो कर चली जायेंगी |”

मैंने बड़े स्नेह से उस शाम उन्हें विदा किया | मेरी माँ ने अन्य सैनिकों के लिए मिठाई, नमकीन, पूरियां, अचार आदि की सौगात भिजवाई और उन्हें फिर आने के लिए कहा |

चार दिसंबर को कैप्टन मलिक की नवविवाहिता पत्नी को आना था | मैं उनसे मिलने को बहुत उत्सुक थी | 3 दिसंबर की रात हम बैठे रात का खाना खा रहे थे कि अचानक तोप के गोलों की भयंकर आवाज़ से सारा आकाश भर गया | कुछ ही क्षणों में पाकिस्तान और भारत के लड़ाकू विमानों के बीच आकाश युद्ध छिड़ गया |सायरन की आवाज़ होते ही सारे घर की बिजलियाँ बंद की गईं | चूँकि जम्मू शहर भारत–पाक सीमा क्षेत्र के बहुत पास है, हर घर के आंगन में एक बंकर खोदा गया था | हम भी सायरन की कर्कश आवाज़ सुनते ही अपने बंकर में जा घुसे | जिस बात की केवल आशंका थी वही तोप के धमाकों के रूप में हम सब के घर आ धमकी थी | युद्ध इतना भयंकर रूप ले चुका था कि बाहर आने - जाने का कोई साधन नहीं था |

मुझे अपने पति तथा उनकी यूनिट के अन्य सदस्यों की भी चिंता थी | मेरे पति की कमांडो यूनिट मेरे घर से केवल ६० मील की दूरी पर ही तैनात थी | रात के अँधेरे में छत पर खड़े हो कर मैं भारत–पाक सीमा की दिशा में उठते हुए आग के अंगार देख सकती थी | जब भी कभी लगातार किसी बड़ी तोप का गोला हमारी ओर के सीमा क्षेत्र पर गिरता तो घर की खिडकियाँ और दरवाज़े काँपने लगते | दिन भर पाकिस्तान के सेबर जेट तथा भारत के मिग लड़ाकू विमानों का भीषण युद्ध देखकर मन घबरा जाता था |

हमारा घर जम्मू एयर पोर्ट के पास है अत: सेबर जेट विमान बार –बार उस पर बम फ़ेंक कर नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे थे | मैं उन दिनों बस एक चुप्पी साधे रहती थी | ऐसी स्थिति में केवल सकारात्मक सोच और प्रभु से मौन प्रार्थना ही एकमात्र संबल होता था |

मैं चार दिसंबर की सुबह बहुत बैचैन थी | मैंने कैप्टन मलिक को वचन दिया था कि उनकी पत्नी को अवश्य घर ले आऊँगी | बस अड्डे तक जाने की कोई राह दिखाई नहीं दे रही थी | हर आधे पौने घंटे के बाद ख़तरे का सायरन बजता था और हमें बंकरों में आश्रय लेना पड़ता था | अब करूँ भी तो क्या करूँ? मैंने अपनी जान पहचान के एक पुलिस अधिकारी को अपनी समस्या बताई और उनसे सहायता माँगी | वो मुझे पुलिस की गाड़ी में बस अड्डे तक ले जाने के लिए तैयार हो गए | मैं जब वहाँ पहुँची तो पता चला कि सुबह से कोई भी बस हमारे शहर तक नहीं आई थी | मैं काफी देर तक किसी न किसी बस के आने की प्रतीक्षा करती रही किन्तु पंजाब – हरियाणा से कोई बस नहीं आई |

मुझे आने वाले अतिथि की बहुत चिंता हुई किन्तु उनसे सम्पर्क साधने का भी कोई साधन नहीं था | मेरे पास उनका टेलीफोन नंबर ही नहीं था और ऊपर से सीमाओं पर चलते हुए तोप गोलों की भयंकर ध्वनि से मन वैसे ही विह्वल हो रहा था | अब मैं निराश हो कर घर लौट आई |

यह भयंकर युद्ध १७ दिन तक चला| इस बीच हमें अपनी पलटन की कोई सूचना नहीं मिली | युद्ध समाप्ति के बाद दो दिन बाद ही मेजर राठौर अचानक हमारे घर आ गये | मेरे पति की सैनिक टुकड़ी जम्मू से ज़्यादा दूर थी अत: उन का कोई समाचार नहीं था | आते ही मेजर राठौर को मेरी माँ ठाकुर द्वारे ले गयी और उनका स्वागत तिलक किया |

मुझे देखते ही उन्होंने प्रश्न किया, ” क्या कैप्टन मलिक की पत्नी यहाँ आईं थी ? क्या आप उनसे मिल सकीं ?”

मैंने निराशा भरे स्वर में कहा, “नहीं, मैं उस दिन बस अड्डे पर गई थी किन्तु कोई बस नहीं आई थी | और फिर जम्मू आने वाले सभी यातायात के साधन बंद भी तो कर दिए गए थे | मुझे लगता है वे आ ही नहीं पाई होंगी”

उन्होंने काँपती आवाज़ में मुझसे कहा, “ओह ! तो वे नहीं आईं थीं ? “

मेजर राठौर थोड़ी देर चुप रहे | फिर बड़े दुःख भरे स्वर में बोले.” कैप्टन मलिक नहीं रहे | चार दिसंबर की रात को ही वे शहीद हो गये थे| उस रात वे अपने सैनिकों की टुकड़ी के साथ ‘ओ पी’( Observation Post) पर अपना दायित्व निभा रहे थे | उनके कुशल निर्देश पर भारतीय सेना की तोपों ने शत्रु सेना की तोपों पर अनेक गोले दागे थे | पाकिस्तान की सेना ने उनकी तोपों पर घातक प्रहार करवाने वाली टुकड़ी के छिपने के स्थान का अंदाज़ लगा लिया था और पाकिस्तानी टैंक के गोलों ने उनकी पोस्ट बर्बाद कर दी थी|”

यह सुन कर मैं सुन्न सी हो गयी| केवल २० दिन पहले ही तो इसी जगह वे मुझसे मिलने आये थे | अब वे नहीं रहे ? मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि अपने दुःख को किन शब्दों में कहूँ | ऐसे में कौन किस को सांत्वना दे !

मेरी माँ ने चिंतित हो कर मेजर राठौर से अन्य स्थानों पर तैनात हमारी पलटन के कुशल मंगल के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा, “अभी उनकी कोई खबर नहीं है|” हम सब कुछ देर तक बैठे पलटन के अन्य सदस्यों के सकुशल लौटने की प्रार्थना करते रहे | उस दिन मेजर राठौर भी जल्दी ही लौट गये |

उनके जाने के बाद मैं अपने आप को संभाल नहीं सकी| मैं अपने घर की छत पर जा कर चुपचाप, एकाकी बैठी शून्य में ताकती रही | मुझे कैप्टन मलिक के साथ किये अपने वचन की याद आ रही थी | इस भारी दुःख के बोझ तले कई प्रश्न मेरे अंत:करण को बेधने लगे | क्या उनकी पत्नी यहाँ तक पहुँच पाई थी? क्या रास्ते से ही उनकी बस मोड़ दी गई थी? क्या उन्हें पता था कि उनके पति उनसे मिलने के लिए कितने बैचैन थे ! अगर वे कुछ दिन पहले आ जातीं तो अपने पति से अंतिम बार मिल लेतीं ! क्या उनकी कोई अंतिम चिठ्ठी उनकी पत्नी के पास पहुँच पाई होगी ? मैं उन्हें क्यों नहीं ढूढ़ पाई ?? इतने सारे प्रश्नों की बौछार और अकेली मैं |

युद्ध का दानव भला भावनायों को कहाँ समझता है | तब मैं भी उम्र में इतनी छोटी थी कि मैंने उस समय कैप्टन मलिक की पत्नी को पत्र लिखने का कभी विचार नहीं किया| शायद इस लिए भी कि मैं उन्हें बिलकुल जानती नहीं थी | शायद इसलिए कि सीमा पर तो युद्ध समाप्ति की घोषणा हो चुकी थी किन्तु अभी तक मेरे पति और उनकी यूनिट के अन्य सदस्यों की कोई सूचना नहीं थी | मैं अपने अंत:करण में भावनायों तथा चिंतायों के युद्ध से कितने दिन और संघर्ष करती रही |

इस बात को ४२ वर्ष हो गये हैं| मैं कैप्टन मलिक की पत्नी को कभी नहीं भूल पाई | उनसे मिल तो नहीं पाई पर उनके पति की बातों के द्वारा उन्हें कुछ तो जान पाई थी | कई बार मन में यह विचार आता है कि अगर कभी वे मुझसे मिलें तो मैं 3 दिसंबर की शाम को मेरे घर में आए उनके पति द्वारा उनसे मिलने की उत्कंठा के विषय में उन्हें अवश्य बताऊँ | शायद कभी -----

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