देस बिराना - 17 Suraj Prakash द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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देस बिराना - 17

देस बिराना

किस्त सत्रह

डिपार्टमेंटल स्टोर का सारा हिसाब-किताब कम्प्यूटराइज्ड होने के कारण मैं हमेशा खाली हाथ ही रहता हूं। यहां तक कि मुझे अपनी पसर्नल ज़रूरतों के लिए भी गौरी पर निर्भर रहना पड़ता है। मैं भरसक टालता हूं लेकिन फिर भी शेव, पैट्रोल, बस, ट्राम, ट्यूब वगैरह के लिए ही सही, कुछ तो पैसों की जरूरत पड़ती ही है। मांगना अच्छा नहीं लगता और बिन मांगे काम नहीं चलता। इस कुनबे के अलिखित नियमों में से एक नियम यह भी है कि कोई भी कहीं से भी हिसाब में से पैसे नहीं निकालेगा। निकाल सकता भी नहीं क्योंकि कैश आपके हाथों तक पहुंचता ही नहीं और न सिस्टम में कहीं गुंजाइश ही है। ज़रूरत है तो अपनी अपनी बीवी से मांगो। बहुत कोफ्त होती है गौरी से पैसे मांगने में। बेशक घर में अलमारी में ढेरों पैसे रखे रहते हैं और गौरी ने कह भी रखा है कि पैसे कहां रखे रहते हैं जब भी ज़रूरत हो ले लिया करूं लेकिन इस तरह पैसे उठाने में हमेशा मुझे क्या किसी को भी संकोच ही होगा। यहां तो न बोलने का इजाज़त है न किसी बात पर उंगली उठाने की।

दिन भर स्टोर में ऐसी-तैसी कराओ, रात में थके हारे आओ। मूड है तो नहाओ, अगर गौरी जाग रही है तो डिनर उसके साथ लो, नहीं तो अकेले खाना भकोसो और अंधेरे में उसके बिस्तर में घुस कर, इच्छा हो या न हो, सैक्स का रिचुअल निभाओ। बात करने का कोई मौका ही नहीं। अगर कभी बहुत जिद कर के बात करने की कोशिश भी करो तो गौरी की भृकुटियां तन जातीं हैं - तुम्हीं अकेले ही तो नहीं खटते डियर, यहां सभी बराबरी का काम करते हैं। मैं भी तो तुम्हारे बराबर ही काम करती हूं, मैंने तो कभी अपने लिए अलग से कुछ नहीं मांगा। तुम्हारी सारी ज़रूरतें तो ठाठ से पूरी हो रही हैं।

मैं उसे कैसे बताऊं कि ये ज़रूरतें तो मैं भारत में भी बहुत शानदार तरीके से पूरी कर रहा था और अपनी शर्तों पर कर रहा था। मैं यहां कुछ सपने ले कर आया था। घर के, परिवार के और एक सुकून भरी ज़िदंगी के, प्यार दे कर प्यार पाने के लेकिन गौरी के पास न तो इन सारी बातों को समझ सकने लायक दिमाग है और न ही फुर्सत।

  • एक अच्छी बात हुई कि देवेन्‍द्र जी ने टीआइएफआर से मेरे बकाया पैसे ले कर अपने किसी परिचित के जरिये का हवाला के जरिये यहीं पर दिलवा दिये हैं। उनके ऑफिस का कोई आदमी यहां आया हुआ है। उसे बंबई अपने घर पैसे भिजवाने थे। उसके पैसे देवेन्‍द्र जी ने वहीं बंबई में दे दिये हैं और वह आदमी मुझे यहीं पर पाउंड दे गया है। फिलहाल मुझे एक हज़ार पाउंड मिल गये हैं और मैं रातों रात अमीर हो गया हूं। हँसी भी आती है अपनी अमीरी पर। इतने पैसे तो गौरी दो दिन में ही खर्च कर देती है। मेरी तो इतने भर से ही काफी बड़ी समस्या हल हो गयी है। पैसों को ले कर गौरी से रोज़ रोज़ की खटपट के बावजूद आज़ मैंने उसे डिनर दिया है। मेरी अपनी कमाई में से पहला डिनर। बेशक कमाई पहले की है। फिर भी इस बात की तसल्ली है कि घर जवांई होने के बावजूद मेरे पास आज अपने पैसे हैं। गौरी डिनर खाने के बावजूद मेरे सैंटीमेंट्स को नहीं समझ पायी। न ही उसने ये पूछा कि जब तुम्हारे पास पैसे नहीं होते तो तुम कैसे काम चलाते हो! क्यों अपनी ये छोटी सी पूंजी को इस तरह उड़ा रहे हो, हज़ार पाउंड आखिर होते ही कितने हैं? लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा।

    आज की डाक में तीन पत्र एक साथ आये हैं। तीनों ही पत्र परेशानी बढ़ाने वाले हैं।

    पहला खत गुड्डी का है।

    लिखा है उसने

    - वीर जी,

    सत श्री अकाल

    कैसे लिखूं कि यहां सब कुछ कुशल है। होता तो लिखने की जरूरत ही न पड़ती। आप भी क्या सोचते होंगे वीर जी कि हम लोग छोटे-छोटे मसले भी खुद सुलटा नहीं सकते और सात समंदर पार आपको परेशान करते रहते हैं। मैं आपको आखरी बार परेशान कर रही हूं वीर जी। अब कभी नही करूंगी। मैं हार गयी वीर जी। मेरी एक न चली और मेरे लिए तीन लाख नकद और अच्छे कहे जा सकने वाले दहेज में एक इंजीनियर खरीद लिया गया हालांकि उसका बाजार भाव तो बहुत ज्यादा था। वीर जी, ये कैसा फैसला है जो मेरी बेहतरी के नाम पर मुझ पर थोपा जा रहा है।

    दारजी को उस गोभी के पकौड़े जैसी नाक वाले इंजीनियर मे पता नहीं कौन से लाल लटकते नज़र आ रहे थे कि बस हां कर दी कि हमें रिश्ता मंज़ूर है जी। आप कहेंगे वीर जी, मेरी मर्जी के खिलाफ मेरी शादी हो रही है और मुझे मजाक सूझ रहा है। हँसूं नहीं तो और क्या करूं वीर जी। मैं कितना रोई, छटपटाई, दौड़ कर नंदू वीरजी को भी बुला लायी लेकिन दारजी ने उन्हें देखते ही बरज दिया - यह हमारा घरेलू मामला है बरखुरदार..। जब आधी-आधी रात को पैसे चाहिये होते हैं तो यही नंदू वीर जी सबसे ज्यादा सगे हो जाते हैं और जब वे मेरे पक्ष में सही बात करने के लिए आये तो वे बाहर के आदमी हो गये।

    मेरा तो जी करता है कहीं भाग जाऊं। काश, हम लड़कियों के लिए भी घर छोड़ कर भागना आसान हो पाता। गलत न समझें लेकिन आप इतने सालों बाद घर लौट कर आये तो सबने आपको सर आंखों पर बिठाया। अगर मैं एक रात भी घर से बाहर गुजार दूं तो मां-बाप तो मुझे फाड़ खायेंगे ही, अड़ोसी-पड़ोसी भी लानतें भेजने में किसी से पीछे नहीं रहेंगे।

    ऐसा क्यों होता है वीर जी, ये हमारे दोहरे मानदंड क्यों। आप को संतोष पसंद नहीं थी तो आप एक बार फिर घर छोड़ कर भाग गये। किसी ने आपको तो कुछ भी नहीं कहा.. लेकिन मुझे वो पकोड़े जैसी नाक वाला आदमी रत्ती भर भी पसंद नहीं है तो मैं कहां जाऊं। क्यों नहीं है मुक्ति हम लड़कियों की। जो रास्ता आपके लिए सही है वही मेरे लिए गलत क्यों हो जाता है। मैं क्यों नहीं अपनी पसंद से अपनी ज़िंदगी के फैसले ले सकती!! आप हर बार पलायन करके भी अपनी बातें मनवाने में सफल रहे। आप बिना लड़े भी जीतते रहे और मैं लड़ने के बावजूद क्यों हार रही हूं। क्या विकल्प है मेरे पास वीर जी!!

    मैं भी घर से भाग जाऊं!! सहन कर पायेंगे आप कि आपकी कविताएं लिखने वाली और समझदार बहन जिस पर आपको पूरा भरोसा था, घर से भाग गयी है। संकट तो यही है वीर जी, कि भाग कर भी तो मेरी या किसी भी लड़की की मुक्ति नहीं है। अकेली लड़की कहां जायेगी और कहां पहुंचेगी। अकेली लड़की के लिए तो सारे रास्ते वहीं जाते हैं। मैं भी आगे पीछे वहीं पहुंचा दी जाऊंगी। मेरे पास भी सरण्डर करने के और कोई उपाय नहीं है। बीए में पढ़ने वाली और कविताएं लिखने वाली बेचारी लड़की भूख हड़ताल कर सकती है, जहर खा सकती है, जो मैं नहीं खाऊंगी। तीन महीने बाद, इसी वैसाखी पर मैं दुल्हन बना दी जाऊंगी। हो सकता है, अब तक आपके पास दारजी का पत्र पहुंच गया हो। आप नंदू वीर जी को फोन करके बता दें कि उनके पास जो चैक रखे हैं उनका क्या करना है। मुझे नहीं पता दारजी ने किस भरोसे से पकौड़े वालों से तीन लाख नकद की बात तय कर ली है। रब्ब न करे इंतज़ाम न हो पाया तो स्टोव तो मेरे लिए ही फटेगा।

    कब से ये सारी चीजें मुझे बेचैन कर रही थीं। आपको न लिखती तो किसे लिखती वीर जी, आप ही ने तो मुझे बोलना सिखाया है। बेशक मैं वक्त आने पर अपने हक के लिए नहीं बोल पायी।

    मेरी बेसिर पैर की बातों का बुरा नहीं मानेंगे।

    आपकी लाडली

    गुरप्रीत कौर

    उसने इतनी चिट्ठियों में पहली बार अपना नाम गुरप्रीत लिखा है। मैं उसकी हालत समझ सकता हूं।

    दूसरा खत नंदू का है, लिखा है उसने -

    प्रिय दीप

    अब तक आपको गुड्डी का पत्र मिल गया होगा। मेरे पास आयी थी। बहुत रोती थी बेचारी कि मैं शादी से इनकार नहीं करती कम से कम मुझे पढ़ाई तो पूरी करने दें। मेरा और मेरे वीर जी का सपना है कि मैं एमबीए करूं। सच मान मेरे वीरा, मैं भी दारजी को समझा-समझा कर थक गया कि उसे पढ़ाई तो पूरी कर लेने दो। आखिर मैंने एक चाल चली। तुमने जो चैक मेरे पास रख छोड़े हैं, उनके बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता। ये पैसे मैं उन्हें ऐन वक्त पर ही दूंगा कि दीपजी ने भेजे हैं.. तो उन्हीं पैसों को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें समझाया कि आखिर दीप को भी तो कुछ समय दो कि वह अपनी बहन के लिए लाख दो लाख का इंतज़ाम कर सके। उसकी भी तो नयी नौकरी है और परदेस का मामला है। कुछ भी ऊंच-नीच हो सकती है। बात उनके दिगाम में बैठ गयी है, और वे कम से कम इस बात के लिए राजी हो गये हैं कि वे लड़के वालों को कहेंगे कि भई अगर शादी धूमधाम से करना चाहते हो तो वैसाखी के बाद ही शादी हो पायेगी। मेरा ख्याल है तब तक गुडडी के बीए फाइनल के पेपर हो चुके होंगे। तब तक वह अपनी पढ़ाई भी बिना किसी तकलीफ के कर पायेगी।

    थोड़ी सी गलती मेरी भी है कि मैंने यहां पर लंदन में तुम्हारी नौकरी, रुतबे, और दूसरी चीजों की कुछ ज्यादा ही हवा बांध दी है जिससे दारजी हवा में उड़ने लगे हैं।

    तू यहां की चिंता मत करना। मैं अपनी हैसियत भर संभाले रहूंगा। गुड्डी का हौसला बनाये रखूंगा। वैसे लड़का इतना बुरा भी नहीं है। कोई आदमी किसी को पसंद ही न आये तो सारी अच्छाइयों के बाद भी उसमें ऐब ही ऐब नजर आते हैं। वैसे भी गुड्डी इस वक्त तनावों से ग़ुज़र रही है और किसी से भी शादी से बचना चाह रही है। अपना ख्याल रखना..मैं यहां की खबर देता रहूंगा। तू निश्चिंत रह।

    तेरा ही

    नंदू

    तीसरा खत दारजी का है।

    बेटे दीप जी

    खुश रहो।

    बाकी खास खबर ये है कि सानू गुड्डी के लिए एक बहुत ही चंगा लड़का ते रजेया कजेया घर मिल गया है। असां सगाई कर दित्ती है। लड़का बिजली महकमे विच इंजीनियर है और उनकी कोई खास डिमांड नहीं है। बाकी बाजार में जो दस्तूर चल रहा है तीन-चार लाख आजकल होता क्या है। लोग मुंह खोल के बीस-बीस लाख मंग भी रहे हैं और देण वाले दे भी रहे हैं। ज्यादा दूर क्यों जाइये। त्वाडे वास्ते भी तो पांच छः लाख नकद और कार और दूसरी किन्नी ही चीजों की ऑफर थी। आखिर देण वाले दे ही रहे थे कि नहीं। अब हम इतने नंगे बुच्चे भी तो नहीं हैं कि कुड़ी को खाली हाथ टोर दें। आखिर उसका भाई भी बड़ा इंजीनियर है और विलायत विच काम करता है। हमें तो सारी बातें देखणी हैं और बिरादरी में अपनी नाक भी ऊंची रखणी है।

    बाकी हम तो एक दो महीने में ही नेक कारज कर देना चाहते थे कि कुड़ी अपने घर सुख सांद के साथ पहुंच जाये लेकन नंदू की बात मुझे समझ में आ गयी है कि रकम का इंतजाम करने में हमें कुछ वकत तो लग सकता है। परदेस का मामला है, और फिर रकम इन्नी छोटी वीं नइं है। बाकी अगर ते त्वाडा आना हो सके तो इस तों चंगी कोई गल्ल हो ही नहीं सकती। बाकी तुसी वेख लेणा। बाकी गौरी नूं असां दोंवां दी असीस।

    तुम्हारा

    दारजी

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