देस बिराना
सूरज प्रकाश
पहली किस्त
24 सितम्बर, 1992। कैलेंडर एक बार फिर वही महीना और वही तारीख दर्शा रहा है। सितम्बर और 24 तारीख। हर साल यही होता है। यह तारीख मुझे चिढ़ाने, परेशान करने और वो सब याद दिलाने के लिए मेरे सामने पड़ जाती है जिसे मैं बिलकुल भी याद नहीं करना चाहता।
आज पूरे चौदह बरस हो जायेंगे मुझे घर छोड़े हुए या यूं कहूं कि इस बात को आज चौदह साल हो जायेंगे जब मुझे घर से निकाल दिया गया था। निकाला ही तो गया था। मैं कहां छोड़ना चाहता था घर। छूट गया था मुझसे घर। मेरे न चाहने के बावजूद। अगर दारजी आधे- अधूरे कपड़ों में मुझे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल कर पीछे से दरवाजा बंद न कर देते तो मैं अपनी मर्जी से घर थोड़े ही छोड़ता। अगर दारजी चाहते तो गुस्सा ठंडा होने पर कान पकड़ कर मुझे घर वापिस भी तो ले जा सकते थे। मुझे तो घर से कोई नाराज़गी नहीं थी। आखिर गोलू और बिल्लू सारा समय मेरे आस-पास ही तो मंडराते रहे थे।
घर से नाराज़गी तो मेरी आज भी नहीं है। आज भी घर, मेरा प्यारा घर, मेरे बचपन का घर मेरी रगों में बहता है। आज भी मेरी सांस-सांस में उसी घर की खुशबू रची बसी रहती है। रोज़ रात को सपनों में आता है मेरा घर और मुझे रुला जाता है। कोई भी तो दिन ऐसा नहीं होता जब मैं घर को लेकर अपनी गीली आंखें न पोंछता होऊं। बेशक इन चौदह बरसों में कभी घर नहीं जा पाया लेकिन कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने खुद को घर से दूर पाया हो। घर मेरे आसपास हमेशा बना रहा है। अपने पूरेपन के साथ मेरे भीतर सितार के तारों की तरह बजता रहा है।
कैसा होगा अब वह घर !! जो कभी मेरा था। शायद अभी भी हो। जैसे मैं घर वापिस जाने के लिए हमेशा छटपटाता रहा लेकिन कभी जा नहीं पाया, हो सकता है घर भी मुझे बार-बार वापिस बुलाने के लिए इशारे करता रहा हो। मेरी राह देखता रहा हो और फिर निराश हो कर उसने मेरे लौटने की उम्मीदें ही छोड़ दी हों।
मेरा घर. हमारा घर .. हम सब का घर... जहां बेबे थी, गोलू था, बिल्लू था, एक छोटी-सी बहन थी - गुड्डी और थे दारजी...। कैसी होगी बेबे .. .. पहले से चौदह साल और बूढ़ी.. ..। और दारजी.. .. ..। शायद अब भी अपने ठीये पर बैठे-बैठे अपने औजार गोलू और बिल्लू पर फेंक कर मार रहे हों और सबको अपनी धारदार गालियों से छलनी कर रहे हों.. ।
गुड्डी कैसी होगी.. जब घर छूटा था तो वो पांच बरस की रही होगी। अब तो उसे एमए वगैरह में होना चाहिये। दारजी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं उसे इतना पढ़ने भी दिया होगा या नहीं। दारजी ने पता नहीं कि गोलू और बिल्लू को भी नहीं पढ़ने दिया होगा या नहीं या अपने साथ ही अपने ठीये पर बिठा दिया होगा..। रब्ब करे घर में सब राजी खुशी हों..।
एक बार घर जा कर देखना चाहिये.. कैसे होंगे सब.. क्या मुझे स्वीकार कर लेंगे!! दारजी का तो पता नहीं लेकिन बेबे तो अब भी मुझे याद कर लेती होगी। जब दारजी ने मुझे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर धकेल दिया था तो बेबे कितना-कितना रोती थी। बार-बार दारजी के आगे हाथ जोड़ती थी कि मेरे दीपू को जितना मार-पीट लो, कम से कम घर से तो मत निकालो।
बेशक वो मार, वो टीस और वो घर से निकाले जाने की पीड़ा अब भी तकलीफ दे रही है, आज के दिन कुछ ज्यादा ही, फिर भी सोचता हूं कि एक बार तो घर हो ही आना चाहिये। देखा जायेगा, दारजी जो भी कहेंगे। यही होगा ना, एक बार फिर घर से निकाल देंगे। यही सही। वैसे भी घर मेरे हिस्से में कहां लिखा है..। बेघर से फिर बेघर ही तो हो जाऊंगा। कुछ भी तो नहीं बिगड़ेगा मेरा।
तय कर लेता हूं, एक बार घर हो ही आना चाहिये। वे भी तो देखें, जिस दीपू को उन्होंने मार-पीट कर आधे-अधूरे कपड़ों में नंगे पैर और नंगे सिर घर से निकाल दिया था, आज कहां से कहां पहुंच गया है। अब न उसके सिर में दर्द होता है और न ही रोज़ाना सुबह उसे बात बिना बात पर दारजी की मार खानी पड़ती है।
पास बुक देखता हूं। काफी रुपये हैं। बैंक जा कर तीस हजार रुपये निकाल लेता हूं। पांच-सात हज़ार पास में नकद हैं। काफी होंगे।
सबके लिए ढेर सारी शॉपिंग करता हूं। बैग में ये सारी चीजें लेकर मैं घर की तरफ चल दिया हूं। हँसी आती है। मेरा घर.... घर... जो कभी मेरा नहीं रहा.. सिर्फ घर के अहसास के सहारे मैंने ये चौदह बरस काट दिये हैं। घर... जो हमेशा मेरी आँखों के आगे झिलमिलाता रहा लेकिन कभी भी मुकम्मल तौर पर मेरे सामने नहीं आया।
याद करने की कोशिश करता हूं। इस बीच कितने घरों में रहा, हॉस्टलों में भी रहा, अकेले कमरा लेकर भी रहता रहा लेकिन कहीं भी अपने घर का अहसास नहीं मिला। हमेशा लगता रहा, यहां से लौट कर जाना है। घर लौटना है। घर तो वही होता है न, जहां लौट कर जाया जा सके। जहां जा कर मुसाफ़िरी खत्म होती हो। पता नहीं मेरी मुसाफिरी कब खत्म होगी। बंबई से देहरादून की सत्रह सौ किलोमीटर की यह दूरी पार करने में मुझे चौदह बरस लग गये हैं, पता नहीं इस बार भी घर मिल पाता है या नहीं।
देहरादून बस अड्डे पर उतरा हूं। यहां से मच्छी बाजार एक - डेढ़ किलोमीटर पड़ता है।
तय करता हूं, पैदल ही घर जाऊं..। हमेशा की तरह गांधी स्कूल का चक्कर लगाते हुए। सारे बाज़ार को और स्कूल को बदले हुए रूप में देखने का मौका भी मिलेगा। सब्जी मंडी से होते हुए भी घर जाया जा सकता है, रास्ता छोटा भी पड़ेगा लेकिन बचपन में हम मंडी में आवारा घूमते सांडों की वजह से यहां से जाना टालते थे। आज भी टाल जाता हूं।
गांधी स्कूल के आस पास का नक्शा भी पूरी तरह बदला हुआ है। गांधी रोड पर ये हमारी प्रिय जगह खुशीराम लाइब्रेरी, जहां हम राजा भैया, चंदा मामा और पराग वगैरह पढ़ने आते थे और इन पत्रिकाओं के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते थे। पढ़ने का संस्कार हमें इसी लाइब्रेरी ने दिया था।
आगे हिमालय आर्मस की दुकान अपनी जगह पर है लेकिन उसके ठीक सामने दूसरी मंज़िल पर हमारी पांचवीं कक्षा का कमरा पूरी तरह उजाड़ नज़र आ रहा है। पूरे स्कूल में सिर्फ यही कमरा सड़क से नज़र आता था। इस कमरे में पूरा एक साल गुज़ारा है मैंने। मेरी सीट एकदम खिड़की के पास थी और मैं सारा समय नीचे बाज़ार की तरफ ही देखता रहता था। हमारी इस कक्षा पर ही नहीं बल्कि पूरे स्कूल पर ही पुरानेपन की एक गाढ़ी-सी परत जमी हुई है। पता नहीं भीतर क्या हाल होगा। गेट हमेशा की तरह बंद है। स्कूल के बाहर की किताबों की सारी दुकानें या तो बुरी तरह उदास नज़र आ रही हैं, या फिर उनकी जगह कुछ और ही बिकता नज़र आ रहा है।
स्कूल के आगे से गुज़रते हुए बचपन के सारे किस्से याद आते हैं।
पूरे बाज़ार में सभी दुकानों का नकशा बदला हुआ है। एक वक्त था जब मैं यहां से अपने घर तक आँखें बंद करके भी जाता तो बता सकता था, बाज़ार में दोनों तरफ किस-किस चीज़ की दुकानें हैं और उन पर कौन-कौन बैठा करते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता। एक भी परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा है। आये भी कैसे। सभी तो मेरी तरह उम्र के चौदह पड़ाव आगे निकल चुके हैं। अगर मैं बदला हूं तो और लोग भी तो बदले ही होंगे। वे भी मुझे कहां पहचान पा रहे होंगे। ये नयी सब्जी मंडी.. किशन चाचा की दुकान.. उस पर पुराना सा ताला लटक रहा है। ये मिशन स्कूल..। सारी दुकानें परिचित लेकिन लोग बदले हुए। सिंधी स्वीट शाप के तीन हिस्से हो चुके हैं। तीनों ही हिस्सों में अनजाने चेहरे गल्ले पर बैठे हैं।
अपनी गली में घुसते ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी है। पता नहीं इन चौदह बरसों में क्या कुछ बदल चुका होगा इस ढहते घर में .. या मकान में ...। पता नहीं सबसे पहले किससे सामना हो....गली के कोने में सतनाम चाचे की परचून की दुकान हुआ करती थी। वहां अब कोई जवान लड़का वीडियो गेम्स की दुकान सजाये बैठा है। पता नहीं कौन रहा होगा। तब पांच छः साल का रहा होगा। इन्दर के दरवाजे से कोई जवान-सी औरत निकल कर अर्जन पंसारी की दुकान की तरफ जा रही है। अर्जन चाचा खुद बैठा है। वैसा ही लग रहा है जैसे छोड़ कर गया था।
उसने मेरी तरफ देखा है लेकिन पहचान नहीं पाया है। ठीक ही हुआ। बाद में आ कर मिल लूंगा। मेरी इच्छा है कि सबसे पहले बेबे ही मुझे देखे, पहचाने।
अपनी गली में आ पहुंचा हूं। पहला घर मंगाराम चाचे का है। मेरे खास दोस्त नंदू का। घर बिलकुल बदला हुआ है और दरवाजे पर किसी मेहरचंद की पुरानी सी नेम प्लेट लगी हुई है। इसका मतलब नंदू वगैरह यहां से जा चुके है। मंगाराम चाचा की तो कोतवाली के पास नहरवाली गली के सिरे पर छोले भटूरे की छोटी-सी दुकान हुआ करती थी। उसके सामने वाला घर गामे का है। हमारी गली का पहलवान और हमारी सारी नयी शरारतों का अगुआ। उससे अगला घर प्रवेश और बंसी का। हमारी गली का हीरो - प्रवेश। उससे कभी नजदीकी दोस्ती नहीं बन पायी थी। उनका घर-बार तो वैसा ही लग रहा है। प्रवेश के घर के सामने खुशी भाई साहब का घर। वे हम सब बच्चों के आदर्श थे। अपनी मेहनत के बलबूते ही पूरी पढ़ाई की थी। सारे बच्चे दौड़- दौड़ कर उनके काम करते थे। सबसे रोमांचकारी काम होता था, सबकी नज़रों से बचा कर उनके लिए सिगरेट लाना। सिख होने के कारण मुझे इस काम से छूट मिली हुई थी।
अगला घर बोनी और बौबी का है। उनके पापा सरदार राजा सिंह अंकल। हमारे पूरे मौहल्ले में सिर्फ़ वहीं अंकल थे। बाकी सब चाचा थे। पूरी गली में स्कूटर भी सिर्फ उन्हीं के पास था।
ये सामने ही है मेरा घर......। मेरा छूटा हुआ घर .. ..। हमारा घर.. भाई हरनाम सिहां का शहतूतों वाला घर....। गुस्से में कुछ भी कर बैठने वाला सरदार हरनामा .... तरखाण .... हमारे घर का शहतूत...का पेड़..... हमारे घर.. .. हरनामे के घर की पहचान ...। तीन गली पहले से यह पहचान शुरू हो जाती.. ..। हरनामा तरखाण के घर जाना है? सीधे चले जाओ .. आगे एक शहतूत.. का पेड़ आयेगा। वही घर है तरखाण का ....। 14 मच्छी बाज़ार, देहरादून। घर को मोह से, आसक्ति से देखता हूं। घर के बाहर वाली दीवार जैसे अपनी उम्र पूरी कर चुकी है और लगता है, बस, आज कल में ही विदा हो जाने वाली है। टीन के पतरे वाला दरवाजा वैसे ही है। बेबे तब भी दारजी से कहा करती थी - तरखाण के घर टीन के पतरे के दरवाजे शोभा नहीं देते। कभी अपने घर के लिए भी कुछ बना दिया करो।
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