देस बिराना - 2 Suraj Prakash द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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देस बिराना - 2

देस बिराना

किस्त दो

मैं हौले से सांकल बजाता हूं। सांकल की आवाज थोड़ी देर तक खाली आंगन में गूंज कर मेरे पास वापिस लौट आयी है। दोबारा सांकल बजाता हूं। मेरी धड़कन बहुत तेज हो चली है। पता नहीं कौन दरवाजा खोले.... ।

- कोण है.. । ये बेबे की ही आवाज हो सकती है। पहले की तुलना में ज्यादा करुणामयी और लम्बी तान सी लेते हुए....

- मैं केया कोण है इस वेल्ले....। मेरे बोल नहीं फूटते। क्या बोलूं और कैसे बोलूं। बेबे दरवाजे के पास आ गयी है। झिर्री में से उसका बेहद कमज़ोर हो गया चेहरा नज़र आता है। आंखों पर चश्मा भी है। दरवाजा खुलता है। बेबे मेरे सामने है। एकदम कमज़ोर काया। मुझे चुंधियाती आंखों से देखती है। मेरे बैग की तरफ देखती है। असमंजस में पूछती हैं - त्वानु कोण चाइदा ऐ बाऊजी.. ..?

मैं एकदम बुक्का फाड़ कर रोते हुए उसके कदमों में ढह गया हूं, - बेबे.. बेबे.. मैंनू माफ कर दे मेरिये बेबे.... मैं मैं .. ।

मेरा नाम सुनने से पहले ही वह दो कदम पीछे हट गयी है.. हक्की-बक्की सी मेरी तरफ देख रही है। मैं उसके पैरें में गिरा लहक - लहक कर हिचकियां भरते हुए रो रहा हूं - मैं तेरा बावरा पुत्तर दीपू .. ..दीपू । मेरे आंसू ज़ार ज़ार बह रहे हैं। चौदह बरसों से मेरी पलकों पर अटके आंसुओं ने आज बाहर का रास्ता देख लिया है। बेबे घुटनों के बल बैठ गयी है.. अभी भी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही है..। अचानक उसकी आंखों में पहचान उभरी है और उसके गले से ज़ोर की चीख निकली है, - ओये.. मेरे पागल पुत्तरा. तूं अपणी अन्नी मां नूं छड्ड के कित्त्थे चला गया सैं.. हाय हो मेरेया रब्बा। तैनूं असी उडीक उडीक के अपणियां अक्खां रत्तियां कर लइयां। मेरेया सोणेया पुत्तरां। रब्ब तैनूं मेरी वी उम्मर दे देवे। तूं जरा वी रैम नीं कित्ता अपणी बुड्डी मां ते के ओ जींदी है के मर गयी ए...।

वह आंसुओं से भरे मेरे चेहरे को अपने दोनों कमज़ोर हाथों में भरे मुझे स्नेह से चूम रही है। मेरे बालों में हाथ फेर रही है और मेरी बलायें ले रही है। उसका गला रुंध गया है। अभी हम मां-बेटे का मिलन चल ही रहा है कि मौहल्ले की दो-तीन औरतें बेबे का रोना - धोना सुन कर खुले दरवाजे में आ जुटी हैं। हमें इस हालत में देख कर वे सकपका गयी हैं।

बेबे से पूछ रही है - की होया भैंजी .. सब खैर तां है नां....!!

- तूं खैर पुछ रई हैं विमलिये ..अज तां रब्ब साडे उत्ते किन्ना मेहरबान हो गया नीं। वेखो वे भलिये लोको, मेरा दीपू किन्ने चिर बाद अज घर मुड़ के आया ए। मेरा पुत्त इस घरों रोंदा कलप्दा गया सी ते अज किन्ने चिर बाद वल्ल के आया ए। हाय कोई छेत्ती जाके ते इदे दारजी नूं ते खबर कर देवो। ओ कोई जल्दी जा के खण्ड दी डब्बी लै आवे। मैं सारेयां दा मूं मिट्ठा करा देवां। ... आजा वे मेरे पुत्त मैं तेरी नजर उतार दवां .। पता नीं किस भैड़े दी नज्जर लग गई सी।

हम दोनों का रो-रो कर बुरा हाल है। मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा है। इतने बरसों के बाद मां के आंचल में जी भर के रोने को जी चाह रहा है। मैं रोये जा रहा हूं और मोहल्ले की सारी औरतें मुंह में दुपट्टे दबाये हैरानी से मां बेटे का यह अद्भुत मिलन देख रही हैं। किसी ने मेरी तरफ पानी का गिलास बढ़ा दिया है। मैंने हिचकियों के बीच पानी खत्म किया है।

खबर पूरे मोहल्ले में बिजली की तेजी से फैल गयी है। वरांडे में पचासों लोग जमा हो गये हैं। बेबे ने मेरे लिए चारपाई बिछा दी है और मेरे पास बैठ गयी है। एक के बाद एक सवाल पूछ रही है। अचानक ही घर में व्यस्तता बढ़ गयी है। सब के सब मेरे खाने पीने के इंतजाम में जुट गये हैं। कभी कोई चाय थमा जाता है तो कोई मेरे हाथ में गुड़ का या मिठाई का टुकड़ा धर जाता है। मेरे आसपास अच्छी खासी भीड़ जुट आयी है और मेरी तरफ अजीब - सी निगाहों से देख रही है। कुछेक बुजुर्ग भी आ गये हैं। बेबे मुझे उनके बारे में बता रही है। मैं किसी - किसी को ही पहचान पा रहा हूं। किसी का चेहरा पहचाना हुआ लग रहा है तो किसी का नाम याद - सा आ रहा है।

मोहल्ले भर के चाचा, ताए, मामे, मामियां वरांडे में आ जुटे हैं और मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछ रहे हैं। मुझे सूझ नहीं रहा कि किस बात का क्या जवाब दिया जाये। मैं बार-बार किसी न किसी बुजुर्ग के पैरों में मत्था टेक रहा हूं। सब के सब मुझे अधबीच में ही गले से लगा लेते हैं। मुझे नहीं मालूम था मैं अभी भी अपने घर परिवार के लिए इतने मायने रखता हूं।

तभी बेबे मुझे उबारती है - वे भले लोको, मेरा पुत्त किन्ना लम्बा सफर कर के आया ए। उन्नू थोड़ी चिर अराम करन देओ। सारियां गल्लां हुणी ता ना पुच्छो !! वेखो तां विचारे दा किन्ना जेयां मूं निकल आया ए..।

बेबे ने किसी तरह सबको विदा कर दिया है लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं। कोई ना कोई कुण्डी खड़का ही देता है और मेरे आगे कुछ न कुछ खाने की चीज रख देता है। हर कोई मुझे अपने गले से लगाना चाहता है, अपने हाथों से कुछ न कुछ खिलाना ही चाहता है। फिर ऊपर से उनके सवालों की बरसात। मेरे लिए अड़ोस-पड़ोस की चाचियां ताइयां दसियों कप चाय दे गयी है और मैंने कुछ घूंट चाय पी भी है फिर भी बेबे ने मेरे लिए अलग से गरम-गरम चाय बनायी है। मलाई डाल के। बेबे को याद रहा, मुझे मलाई वाली चाय अच्छी लगती थी। बचपन में हम तीनों भाइयों में चाय में मलाई डलवाने के लिए होड़ लगती थी। दूध में इतनी मलाई उतरती नहीं थी कि दोनों टाइम तीनों की चाय में डाली जा सकेध। बेबे चाय में मलाई के लिए हमारी बारी बांधती थी।

बेबे पूछ रही है, मैं कहां से आ रहा हूं और क्या करता हूं। बहुत अजीब-सा लग रहा है ये सब बताना लेकिन मैं जानता हूं कि जब तक यहां रहूंगा, मुझे बार बार इन्हीं सवालों से जूझना होगा। बेबे को थोड़ा-बहुत बताता हूं कि इस बीच क्या क्या घटा। मैंने अपनी बात पूरी नहीं की है कि बेबे खुद बताने लगी है - गोलू तां बारवीं करके ते पक्की नौकरी दी तलाश कर रेया ए। कदी कदी छोटी मोटी नौकरी मिल वी जांदी ए ओनूं। अज कल चकराता रोड ते इक रेडिमेड कपड़ेयां दी हट्टी ते बैंदा ए ते पन्दरा सोलां सौ रपइये लै आंदा ए। अते बिल्लू ने तां दसवीं वीं पूरी नीं कित्ती। कैंदा सी - मेरे तों नीं होंदी ए किताबी पढ़ाई.. अजकल इस सपेर पार्ट दी दुकान ते बैंदा ऐ। उन्नू वी हजार बारा सौं रपइये मिल जांदे हन। तेरे दारजी वी ढिल्ले रैंदे ने। बेशक तैंनू गुस्से विच मार पिट के ते घरों कड दित्ता सी पर तैनूं मैं की दस्सां, बाद विच बोत रोंदे सी। कैंदे सी...। अचानक बेबे चुप हो गयी है। उसे सूझा नहीं कि आगे क्या कहे। उसने मेरी तरफ देखा है और बात बदल दी है। मैं समझ गया हूं कि वह दारजी की तरफदारी करना चाह रही थी लेकिन मेरे आगे उससे झूठ नहीं बोला गया। लेकिन मैं जानबूझ कर भी चुप रहता हूं। बेबे आगे बता रही है - तैंनू असीं किन्ना ढूंढेया, तेरे पिच्छे कित्थे कित्थे नीं गये, पर तूं तां इन्नी जई गल ते साडे कोल नराज हो के कदी मुढ़ के वी नीं आया कि तेरी बुड्डी मां जींदी ए की मर गई ए। मैं तां रब्ब दे अग्गे अठ अठ हंजू रोंदी सी कि इक वारी मैंनू मेरे पुत्त नाल मिला दे। मैं बेबे की बात ध्यान से सुन रहा हूं। अचानक पूछ बैठता हूं - सच दसीं बेबे, दारजी वाकई मेरे वास्ते रोये सी? वेख झूठ ना बोलीं। तैनूं मेरी सौं।

बेबे अचानक घिर गयी है। मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखती है। उसकी कातर निगाहें देख कर मुझे पछतावा होने लगता है - ये मैं क्या पूछ बैठा!! अभी तो आये मुझे घंटा भर भी नहीं हुआ, लेकिन बेबे ने मुझे उबार लिया है और दारजी का सच बिना लाग लपेट के बयान कर दिया है। यह सच उस सच से बिलकुल अलग है जो अभी अभी बेबे बयान कर रही थी। शायद वह इतने अरसे बाद आये अपने बेटे के सामने कोई भी झूठ नहीं बोलना चाहती। वैसे भी वह झूठ नहीं बोलती कभी। शायद इसीलिए उससे ये झूठ भी नहीं बोला गया है या यूं कहूं कि सच छुपाया नहीं गया है।

बेबे अभी दारजी के बारे में बता ही रही है कि मैंने बात बदल दी है और गुड्डी के बारे में पूछने लगता हूं। वह खुश हो कर बताती है - गुड्डी दा बीए दा पैला साल है। विच्चों बिमार पै गई सी। विचारी दा इक साल मारेया गया। कैंदी ए - मैं सारियां दी कसर कल्ले ई पूरी करां गी। बड़ी सोणी ते स्याणी हो गई ए तेरी भैण। पूरा घर कल्ले संभाल लैंदी ए। पैले तां तैनूं बोत पुछदी सी..फेर होली होली भुल गयी..। बस कालेजों आंदी ही होवेगी।

मुझे तसल्ली होती है कि चलो कोई तो पढ़ लिख गया। खासकर गुड्डी को दारजी पढ़ा रहे हैं, यही बहुत बड़ी बात है। अभी हम गुड्डी की बात कर ही रहे हैं कि ज़ोर से दरवाजा खुलने की आवाज आती है। मैं मुड़ कर देखता हूं। सफेद सलवार कमीज में एक लड़की दरवाजे में खड़ी है। सांस फूली हुई। हाथ में ढेर सारी किताबें और आंखों में बेइन्तहां हैरानी। वह आंखें बड़ी बड़ी करके मेरी तरफ देख रही है। मैं उसे देखते ही उठ खड़ा होता हूं - गुड्डी ..! मैं ज़ोर से कहता हूं और अपनी बाहें फैला देता हूं।

वह लपक कर मेरी बाहों में आ गयी है। उसकी सांस धौंकनी की तरह तेज चल रही है। बहुत जोर से रोने लगी है वह। बड़ी मुश्किल से रोते रोते - वीर.. . जी.... वीर जी.. ..! ही कह पा रही है। मैं उसके कंधे थपथपा कर चुप कराता हूं। मेरे लिए खुद की रुलाई रोक पाना मुश्किल हो रहा है। बेबे भी रोने लगी है।

बड़ी मुश्किल से हम तीनों अपनी रुलाई पर काबू पाते हैं। तभी अचानक गुड्डी भाग कर रसोई में चली गयी है। बाहर आते समय उसके हाथ में थाली है। थाली में मौली, चावल और टीके का सामान है। वह मेरे माथे पर टीका लगाती है और मेरी बांह पर मौली बांधती है। उसकी स्नेह भावना मुझे भीतर तक भिगो गयी है। बेबे मुग्ध भाव से ये सब देखे जा रही है। गुड्डी जो भी कहती जा रही है, मैं वैसे ही करता जा रहा हूं। जब उसने अपने सभी अरमान पूरे कर लिये हैं तो उसने झुक कर पूरे आदर के साथ मेरे पैर छूए हैं।

मैं उसके सिर पर चपत लगा कर आशीषें देता हूं और भीतर से बैग लाने के लिए कहता हूं। वह भारी बैग उठा कर लाती है। उसके लिए लाये सामान से उसकी झोली भर देता हूं। वह हैरानी से सारा सामान देखती रह जाती है - ये सब आप मेरे लिए लाये हैं।

- तुझे विश्वास नहीं है?

- विश्वास तो है लेकिन इतना खरचा करने की क्या जरूरत थी? उसने वाकॅमैन के ईयर फोन तुरंत ही कानों से लगा लिये हैं।

- ओये बड़ी आयी खरचे की चाची, अच्छा एक बात बता - तू रोज़ ही इस तरह भाग कर कॉलेज से आती है?

- अगर रोज रोज मेरे वीरजी आयें तो मैं रोज़ ही कॉलेज से भाग कर आऊं।

वह गर्व से बताती है - अभी मैं सड़क पर ही थी कि किसी ने बताया - ओये घर जा कुड़िये, घर से भागा हुआ तेरा भाई वापिस आ गया है। बहुत बड़ा अफसर बन के। एकदम गबरू जवान दिखता है। जा वो तेरी राह देख रहा होगा। पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि हमारा वीर भी कभी इस तरह से वापिस आ सकता है। मैंने सोचा कि हम भी तो देखें कि कौन गबरू जवान हमारे वीर जी बन कर आये हैं जिनकी तारीफ पूरा मौहल्ला कर रहा है। ज़रा हम भी देखें वे कैसे दिखते हैं। फिर हमने सोचा, आखिर भाई किसके हैं। स्मार्ट तो होंगे ही। मैंने ठीक ही सोचा है ना वीर जी....!

- बातें तो तू खूब बना लेती है। कुछ पढ़ाई भी करती है या नहीं?

जवाब बेबे देती है - सारा दिन कताबां विच सिर खपांदी रैंदी ए। किन्नी वारी केया ए इन्नू - इन्ना ना पढ़ेया कर। तूं केड़ी कलकटरी करणी ए, पर ऐ साडी गल सुण लवे तां गुड्डी नां किसदा?

अभी बेबे उसके बारे में यह बात बता ही रही है कि वह मुझे एक डायरी लाकर दिखाती है। अपनी कविताओं की डायरी।

मैं हैरान होता हूं - हमारी गुड्डी कविताएं भी लिखती है और वो भी इस तरह के माहौल में।

पूछता हूं मैं - कब से लिख रही है?

- तीन चार साल से। फिर उसने एक और फाइल दिखायी है। उसमें स्थानीय अखबारों और कॉलेज मैगजीनों की कतरनें हैं। उसकी छपी कविताओं की। गुड्डी की तरक्की देख कर सुकून हुआ है। बेबे ने बिल्लू और गोलू की जो तस्वीर खींची है उससे उन दोनों की तो कोई खास इमेज नहीं बनती।

गुड्डी मेरे बारे में ढेर सारे सवाल पूछ रही है, अपनी छोटी छोटी बातें बता रही है। बहुत खुश है वह मेरे आने से। मैं बैग से अपनी डायरी निकाल कर देखता हूं। उसमें दो एक एंट्रीज ही हैं।

डायरी गुड्डी को देता हूं - ले गुड्डी, अब तू अपनी कविताएं इसी डायरी में लिखा कर।

इतनी खूबसूरत डायरी पा कर वह बहुत खुश हो गयी है। तभी वह डायरी पर मेरे नाम के नीचे लिखी डिग्रियां देख कर चौंक जाती है,

- वीर जी, आपने पीएच डी की है?

- हां गुड्डी, खाली बैठा था, सोचा, कुछ पढ़ लिख ही लें।

- हमें बनाइये मत, कोई खाली बैठे रहने से पीएचडी थोड़े ही कर लेता है। आपके पास तो कभी फ़ुर्सत रही भी होगी या नहीं, हमें शक है। सच बताइये ना, कहां से की थी?

- अब तू ज़िद कर रही है तो बता देता हूं। एमटैक में युनिवर्सिटी में टॉप करने के बाद मेरे सामने दो ऑफर थे - एक बहुत बड़ी विदेशी कम्पनी में बढ़िया जॉब या अमेरिका में एक युनिवर्सिटी में पीएच डी के लिए स्कॉलरशिप। मैंने सोचा, नौकरी तो ज़िंदगी भर करनी ही है। लगे हाथों पीएचडी कर लें तो वापिस हिन्दुस्तान आने का भी बहाना बना रहेगा। नौकरी करने गये तो पता नहीं कब लौटें। आखिर तुझे ये डायरी, ये वॉक मैन और ये सारा सामान देने तो आना ही था ना...। मैंने उसे संक्षेप में बताया है।

- जब अमेरिका गये होंगे तो खूब घूमे भी होंगे? पूछती है गुड्डी। अमेरिका का नाम सुन कर बेबे भी पास सरक आयी है।

- कहां घूमना हुआ। बस, हॉस्टल का कमरा, गाइड का कमरा, क्लास रूम, लाइब्रेरी और कैंटीन। आखिर में जब सब लोग घूमने निकले थे तभी दो चार जगहें देखी थीं।

हँसते हुए कहती है वह - वहां कोई गोरी पसंद नहीं आयी थी?

मैं हँसता हूं - ओये पगलिये। ये बाहर की लड़कियां तो बस एंवेई होती हैं। हम लोगों के लायक थोड़े ही होती हैं। तू खुद बता अगर मैं वहा से कोई मेम शेम ले आता तो ये बेब मुझे घर में घुसने देती?

यह सुन कर बेबे ने तसल्ली भरी ठंडी सांस ली है। कम से कम उसे एक बात का तो विश्वास हो गया है कि मैं अभी कुंवारा हूं।

गुड्डी आग्रह करती है – वीर जी कुछ लिखो भी तो सही इस पर.. मैं अपनी सारी सहेलियों को दिखाऊंगी।

- ठीक है, गुड्डी, तेरे लिए मैं लिख भी देता हूं।

मैं डायरी में लिखता हूं

डायरी ले कर वह तुरंत ही उसमें पता नहीं क्या लिखने लग गयी है। मैं पूछता हूं तो दिखाने से भी मना कर देती है।

***