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व्योमवार्ता/आल्हा कथानक का प्रामाणिक इतिहास: डॉ० सुधा चौहान राज की पुस्तक महोबा, आल्हा ऊदल की महागाथा
अप्रैल 2019 से हर माह कम से कम चार पुस्तकें पढ़ने के संकल्पयात्रा मे बुंदेली इतिहास पर रेडग्रैब बुक्स, इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुस्तक डॉ० सुधा चौहान राज की महोबा : आल्हा ऊदल की महागाथा मिल गई। सत्यनिष्ठा से यह स्वीकार करने मे मुझे कोई संकोच नही है कि मेरी इतिहास मे रूचि कम है पर बचपन मे हर चौमासे आल्हा गा कर सुनाने वाले मोछू चाचा और उनके ढपले की तीखी व नकियाती आवाज हमें सदैव से आल्हा ऊदल के बारे मे जानने की उत्सुकता जगाती थी। एक बार शारदा देवी के दर्शन के लिये मैहर जाने पर वहॉ आल्हा के अब तक अमर होकर प्रतिदिन देवी दर्शन के बारे मे सुना था तो उत्सुकता और बढ़ गई।आज भी पन्ना, दतिया, समथर, कालिंजर, कन्नौज, कुंडा, अजय गढ़, ओरछा, गढ़ा नरेश के अलावा और भी बहुत से राजदरबारों, रियासतों में भी आल्हा गायन होने के प्रमाण मिलते हैं। यह प्रथा मौखिक रूप से ज्यादा विकसित हुई क्योंकि हर कवि एक दूसरे से सुनकर याद करके गाया करते थे, पर इसका आधार आल्हा रायसो था। सौ साल के अंतराल में ही यानी कि सन् 1320 तक यह गायन सारे भारत में गाया जाने लगा। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि युद्ध पर जाने के पहले सेना इसे सुनकर वीर रस मे डूब जाती थी और अपनी जन्मभूमि की आन बान और शान के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर हो जाती थी। इस प्रकार आल्हा-ऊदल सारे देश के वीरों के आदर्श बन गए थे। यह वीरों की वो गाथा है जो सदियों से चली आ रही है और आज 900 सौ सालों बाद भी उसी जोश खरोश और उत्साह के साथ गाया जाता है।
16वीं सदी में रानी दुर्गावती, जो महोबा राजवंश के राजा कीर्तिपाल चंदेल की बेटी थीं, उन्हें आल्हा सुनना बहुत पसंद था इसीलिए उन्होंने अपने कालिंजर के दरबार में बहुत से चारण-भाट आल्हा गायन के लिए रखे था। उन्होंने बहुत सी पुरानी पांडुलिपियों को सहेजकर बुंदेली बोली में लिपि बद्ध कराया था। उन पर इनकी वीरता का बहुत प्रभाव था, इसी कारण उन्होने दलपतशाह की बीरता से प्रभावित होकर उनका वरण किया था और उनसे प्रेम विवाह किया था; उसी का प्रभाव था कि उन्होने अपनी वीरता दिखाते हुए मुगलों से लोहा लिया था। मुगल दिल्ली के आस-पास तो आते जाते थे, पर कभी वह बुंदेलखंड में अपनी जड़ें नहीं जमा पाये। इसीलिए जब आल्हा ऊदल के बाद उनका आक्रमण बुंदेलखंड पर हुआ तो उन्होंने यहां के भवन, इमारत, मंदिर, मठ आदि तुड़वा दिये। दरबारों से कवियों से सारा इतिहास लूटकर सागर में बहा दिया था। उनका कहना था कि इसे पढ़कर भारतीय सैनिकों में अद्भुत जोश आ जाता ।
डॉ० सुधा चौहान के इस शोधपरक पुस्तक से पता चलता है कि आल्हा की प्रामाणिकता- आल्हा उदल का विस्तृत वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। आल्हा ऊदल की प्रमाणिकता इस बात से सिद्ध होती है कि पृथ्वीराज चौहान का इनसे अलग-अलग स्थानों पर पाँच बार युद्ध हुआ है। उस समय तीन महाशक्तियां भारत में राज्य कर रही थीं। दिल्ली में चैहान वंशी राजा पृथ्वीराज, कनवज में राठौर वंशी राजा जयचंद और महोबा में चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव जिनके धर्म भाई दच्छराज और बच्छराज के पुत्र आल्हा ऊदल और मलखान थे। पृथ्वीराज की पुत्री बेला का विवाह चंदेल राजकुमार ब्रह्मदेव के साथ हुआ था। जिसकी अगुवाई आल्हा और ऊदल ने की थी। सन 1191 में सबसे अंतिम युद्ध पृथ्वीराज का आल्हा ऊदल से महोबा के मैदान में हुआ था। उसके बाद अपनी सारी सेना को गंवा कर पृथ्वीराज ने युद्ध जीता था जिसका वर्णन चंदेलकालीन बुंदेलखंड के इतिहास में मिलता है। बेटी के गौने के बाद पृथ्वीराज ने गौरी से आखिरी युद्ध लड़ा था।
इसके लिए सबसे बड़ा प्रमाण पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंदबरदायी का लिखा पृथ्वीराज रासो है, जिसमें इनकी सभी लड़ाइयों का क्रमवार ब्योरा दिया रहेंगे ।
यूं तो सत्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती, वह तो अपने आप में स्वयं ही बड़ा प्रमाण होता है। सन 1130 से ले कर 1192 के कालखण्ड की घटनाओं को समेेटे ऐतहासिक संदर्भों, गजेटियर्स, प्रमाणों व शिलालेखों का संदर्भ देते हुये लेखिका ने पुस्तक के शीर्षक के साथ पूरा न्याय किया है। जो आल्हा कथानक के गायन के प्रति आज भी आमजन को जोड़ते है
इसीलिए तो आज 900सौ सालों बाद भी वह लोंगों के दिलो-दिमाग में हैं। यह तो हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे वीरों का इतिहास सुरक्षित तरीके से संजोकर नहीं रखा गया और मुगलों द्वारा इसे विलुप्त कर दिया गया।
आल्हा गायन एक इतिहास है, वीरों की संस्कृति है, एक राग है, एक आग है, एक जोश है, जो रग-रग में वीरता का जोश जगा देता है। आल्हा उदल आज भी लोगों के दिलों में वास करते हैं। वो आज भी अमर हैं और सदियों तक अमर रहेंगे। भारत के इतिहास के जनप्रिय कथानक को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने हेतु डॉ० सुधा चौहान राज को बधाई ।
(बनारस, 28दिसंबर2019,शनिवार)
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