सुन रहे हो न बापू Annada patni द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सुन रहे हो न बापू

सुन रहे हो न बापू

अन्नदा पाटनी

कितने दिनों से सोच रही थी कि फोन करूँगी पर हर रोज किसी न किसी कारण रह ही जाता । कभी सोचती कि बात करूँ न करूँ , कहीं उन्हें क्रोध आ गया तो या बात अटपटी लगी तो । अब ग़ुस्सा आए तो आए , बात अटपटी लगे तो लगे , मैं आज उनसे बात कर ही लेती हूँ । फ़ोन मिलाया , उधर से आवाज़ आई ,” हेलो , मैं गौरीशंकर , अच्छा नमिता । बोलो ।” मुझे हिम्मत आई , चलो पहचान तो लिया । कहाँ वह इतने बड़े साहित्यकार और मैं नवोदित लेखिका । उन्होंने घर पर बुलाया , मिलने का समय भी उन्होंने ही तै किया ।

नियत समय पर मैं गौरीशंकर जी के यहाँ पहुँची । उम्र में काफ़ी बड़े है , बड़े स्नेह से मिले । फिर पूछा ,” कुछ नया लिखा है, छपवाना चाहती हो ?”

मैंने कहा,” नहीं नहीं वह बात नहीं है । मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ ।”

“हां हां , बोलो ।” वह तपाक से बोले ।

“मैं आपसे एक काम करवाना चाहती हूँ ।”

“किसी समारोह में मुख्य अतिथि या अध्यक्षता वग़ैरह ?“वह बोले ।

“नहीं नहीं , यह सब कुछ नहीं ।असल में मैं एक प्रार्थना लेकर आपके पास आई हूँ । आपको थोडा अटपटा तो लगेगा पर ध्यान से सुनेंगे तो शायद समझ सकेंगे ।”

वह बोले ,” पहेलियाँ क्यों बुझा रही हो ? जो कहना है वह सीधे सीधे क्यों नहीं बोल देती ।"

" मुझे समझ नहीं आ रहा कि कैसे कहूँ । आप इसे मेरी धृष्टता न समझ बैठें इसलिए आपसे प्रार्थना है कि मेरे दृष्टिकोण को सही रूप में लेने का प्रयास करें । आप बहुत सशक्त लेखक हैं , आपका बुद्धिजीवी समूह में बहुत मान है और बहुत साफ़ सुथरी छवि भी । मेरा दृढ़ विश्वास है कि जो कार्य मैं आपके द्वारा करवाना चाह रही हूँ वह सबको मान्य होगा । "

" ओ हो फिर इतनी लंबी भूमिका ? " वह खीजते हुए बोले ।

मैं बोली ," गांधी के तीन बंदर कितने प्रसिद्ध हैं और किन चीज़ों के प्रतीक हैं , यह सर्व विदित हैं । एक आँख पर हाथ कर कहता है कि बुरा मत देखो , दूसरा कान पर कि बुरा मत सुनो और तीसरा मुँह पर हाथ रख कर कि बुरा मत बोलो । हम छोटे थे तब से हमें ये बंदर बहुत प्यारे लगते थे । जहाँ भी जाते वहीं से इनकी प्रतिमाएँ उठा लाते और कमरों में सज़ा देते । अभी भी उनके प्रति वैसा ही लगाव है पर मन यह देख कर बहुत दुखी होता है कि अब वे केवल अल्मारियों में शो पीस बन कर रह गए हैं । जो नसीहतें ये हमें दे रहे हैं उनकी कोई प्रासंगिकता ही नहीं रह गई है ।"

गौरीशंकर जी बडे ध्यान से सुन रहे थे , अचानक चौंक गए । बोले ," क्या कहना चाह रही हो और मुझ से क्या चाह रही हो ?"

मैं आश्चर्य से बोली ," आपको नहीं मालूम जो आजकल चल रहा है ? आपसे छुपा थोड़े ही है । रिश्वतख़ोरी , भ्रष्टाचार , धोखेबाज़ी , लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों ने पूरे राष्ट्र को अपनी चपेट में ले रखा है । शायद आप कहेंगे, यह कोई नई बात थोड़े ही है । हाँ , आप सही कह रहे हैं , हमें भी आदत हो गई है । जब देश का शासन, प्रशासन ही इन्हें रोकने के लिए ठोस क़दम नहीं उठा पा रहा तो हमने भी लाचारीवश विरोध करना छोड़ दिया है और स्थिति से समझौता कर लिया है । अपने कान और मुँह बंद कर लिए हैं ।”

गौरीशंकर जी ने टोका और मुस्कुराते हुए कहा ," अच्छा , यानी कि तुम गांधी जी के दो बंदरों का उद्देश्य समझ कर कान बंद कर और मुँह बंद कर उन पर अमल कर रही हो ?"

मैं उनका व्यंग्य समझ गई , चिढ़ कर बोली ," उद्देश्य तो तब समझ आता जब कान और मुँह बंद करने का सही अर्थ लगाया जाता , अब इनका अर्थ ही बदल गया है ।कान बंद होने पर भी अब सब सुनाई देता है तो बुरा सुन कर मुँह बंद कर लो और अन्याय और अत्याचार के प्रति कोई प्रतिक्रिया व्यक्त मत करो । समस्या से मुँह मोड़ लेना कोई हल है । आप जानबूझकर कर भी अनजान बन रहे हैं । लेखक होने के नाते तो आपकी दृष्टि बहुत पैनी है फिर मेरा मज़ाक़ क्यों उड़ा रहे हैं । "

"अरे , मज़ाक़ नहीं तुम्हारे चेहरे पर चिंता की रेखाएँ देख , तुम्हें सहज कर रहा हूँ । तुम क्या सोचती हो , मुझे कुछ नज़र नहीं आ रहा ? बल्कि मेरी स्थिति बहुत ही असमंजस की है । मन कुछ कहता है , मस्तिष्क कुछ , दोनों में कुछ ताल मेल नहीं बैठ पा रहा । लेखनी हाथ में लेकर बैठता हूँ पर कुछ लिख नहीं पाता ।”

तभी मैं बीच में बोल उठी ,”अभी मेरी बात ख़त्म नहीं हुई है । कान , मुँह तो बंद कर लिए। अब आँखों का क्या करें । बलात्कार का वह वीभत्स रूप सामने आ रहा है , जिसकी कल्पना करके मन सिहिर उठता है । आँखें बंद करने के बावजूद पूरा दृश्य आँखों के सामने घूमता रहता है ।फिर आँखें बंद करने का फ़ायदा क्या है । अर्थात गांधी जी के तीसरे बंदर का आँखें बंद करने का संदेश भी अब किस काम का ? बुरा देखना किसको अच्छा लगता है । प्रतिदिन बलात्कार की घिनौनी घटनाओं के समाचारों से दिल दहल उठता है । मन आक्रोश से भर जाता है , ख़ून खौलने लगता है । जी करता हैं ऐसे वहशियों का गला दबा दें । कहाँ गई लोगों की संवेदनशीलता जो ऐसी हृदयविदारक घटनाओं के मूक दर्शक बने बैठे हैं ।”

मैंने देखा गौरीशंकर जी के चेहरे पर परेशानी के भाव उभर रहे थे । स्वयं ही बेचैन हो कर बोल पड़े ,”मानसिक विकृति की पराकाष्ठा हो चुकी है ।छोटी छोटी बच्चियों के साथ कुकर्म कर उनकी हत्या कर देना क्या क्षम्य अपराध है पर अपराधियों पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होती । निर्भया केस के बाद लगा था कि शायद अब ऐसे जघन्य अपराधों पर अंकुश लग जाएगा। लेकिन दिन पर दिन अख़बारों में ऐसी ख़बरों की भरमार होती जा रही है । “

“अभी कानपुर व अन्य शहर में हुई वारदातों में लिप्त छोटे बच्चों की हरकतों ने तो हैरत में डाल दिया है ।क्या हो रहा है हमारे देश की नन्हीं फ़सल को ? जिनके अभी दूध के दाँत भी नहीं टूटे है उन मासूमों से इस तरह की अमानवीय दरिंदगी की अपेक्षा की जा सकती है ? जिस देश में क़ानून की धज्जियाँ उड़ रही हों , रक्षक ही भक्षक बन गए हों तो किसे दोष दें और किस से गुहार करें ।” मैंने काफ़ी तेज़ आवाज़ में कहा ।

गौरीशंकर जी गंभीरता से बोले ,”सचमुच यह चिंता का विषय है । मैं मानता हूँ कि हम लेखकों का भी दायित्व बनता है कि हम इस बारे में कुछ करें ।”

तभी मैंने उतावली से कहा ,” हाँ , लेखनी में तो बहुत दम होता है । मैं आपके पास बहुत आशा ले कर आई हूँ । आप गांधीवादी विचारक और चिंतक हैं । आपकी बातें जनसाधारण पर गहरा असर डालती हैं और वे आपको आदर्श पुरुष मानते हैं । अगर साहस है तो कम से कम इतना तो कर दिखाइये कि गांधी जी के तीनों बंदरों को मुक्त कर दीजिए । कब तक बेचारे अपने आँख , कान और मुँह को बंद करे बैठे रहेंगे । वे साधारण बंदर नहीं हैं , उत्तम जीवनशैली के निर्वाहक और प्रतीक हैं । खेद है कि उनमें निहित संदेश कोई समझ ही नहीं पा रहा । बच्चों के लिए वह एक खिलौना मात्र है और बड़ों के लिए ड्राइंग रूम में सजावट और गांधी-प्रेम का एक दिखावा ।”

मेरी बात गौरीशंकर जी ने पूरी तन्मयता से सुनी । कुछ देर ख़ामोश रहे , मानो विचारमग्न हों । फिर धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और गंभीरतापूर्वक बोले,” मुझे मालूम है तुम बहुत क्षुब्ध हो । तुमने मुझसे एक अनुरोध किया है , यदि मैं उसे मान लेता हूँ तो नमिता , वह हमारी हार होगी , मानवता की हार होगी , गांधी की हार होगी ।मैं तुमसे वादा करता हूँ और स्वयं से भी , कि गांधीजी के त्याग और बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा । उनके अनुभव और चिंतन के प्रतीक तीनों बंदरों के संदेशो को पुन: जनमानस में स्थापित करने का संकल्प आज तुम्हारे सामने लेता हूँ । विश्वास रखो ।”

गौरीशंकर जी की ईमानदारी और मानवीय मूल्यों में आस्था देख कर मेरी आँखें नम हो आईं और मैं उन्हें प्रणाम कर घर के लिए रवाना हो गई , एक आश्वासन और दृढ़ विश्वास साथ लिए कि बापू जीवित रहेंगे और उनके तीन प्यारे बंदर भी ।सुन रहे हो न बापू !

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