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संतोष

संतोष

अन्नदा पाटनी

दरवाज़े की घंटी बजी, देखा एक नवयुवती खड़ी थी । माँग में सिंदूर, माथे पर बड़ी लाल बिंदी, होंठों पर लाली, कान में सोने के झुमके, सोने का नेकलेस, सिल्क की साड़ी और पैरों में सैंडल । मुझे ठिठकते देख वह बोली," आंटी नहीं पहचाना, मैं हूँ उषा ।”

क्या उषा, उषा भटनागर ?" मैंने आश्चर्य से पूछा ।

“हाँ आंटी ।"

अरे यह वही उषा थी रूखे बालवाली, सस्ते मुसे हए सलवार क़मीज़ पहने, जो प्लास्टिक की चप्पल फटकाती हुई आती थी । उसके इस नए रूप को देख कर ख़ुशी भी हुई औरअचरज भी । उसने तपाक से मेरे पैर छुए और मैंने उसे गले से लगाते हुए कहा,"अरे, अरे अंदर तो आ।" पह सोफ़े पर आ कर बैठ गई । हँस कर बोली," आप अचरज में पड़ गईं है ना, मेरी कायापलट देख कर ? अभी सब बताती हूँ । आप जानती ही हैं कि किस तरह आपने मुझे आर्थिक मदद दे कर हायर सैकंड्री पास कर वायी । फिर महिला मंडल द्वार संचालित कॉलेज से नि:शुल्क बी. ए करवाया । एक स्कूल में मुझे चपरासी का काम दिलवाया । हमारी आर्थिक स्थिति आपसे छुपी नहीं थी । अब घर में एक टाइम चूल्हा तो जलने लगा । चपरासीगिरी करते करते मैंने एम ए किया और सबके विरोध के बावजूद आपने सिफ़ारिश कर मुझे उसी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी दिलवा दी । अब माँ बाप पर सब मेरी शादी का ज़ोर डालने लगे । भाई तो निकम्मा था, पिता अस्वस्थ होने के कारण कब से बिस्तर पर पड़े थे । घर में कमानेवाली मैं ही थी ।

लड़के देखने का सिलसिला चला । कई रिश्ते आए पर जमे नहीं । पर कई बार वर और परिवार दोनों ही ठीक होते हुए हर बार माँ बाप अस्वीकार कर देते ।

जब कई बार ऐसा हुआ तो मुझे समझ आने लगा कि वे नहीं चाहते कि कहीं रिश्ता हो । अ्गर मेरी शादी हो गई तो घर का ख़र्चा कौन चलायेगा । तब मैंने हार कर अख़बार में विज्ञापन दिया । रिश्ते तो आ रहे थे पर हमारी औक़ात से बाहर ।तभी एक विज्ञापन पर नज़र पड़ी जिसमें साफ़ लिखा था कि लड़का पोलियो होने के कारण थोडा लँगड़ा कर चलता है पर शरीर के सब अंग एकदम नॉर्मल है । वह बैंक में बड़े पद पर कार्यरत है । उसके पिता जी एक स्कूल में प्रिंसिपल हैं ।

मुझे लगा कि लोग ईमानदार हैं और कुछ माँग भी नहीं रहे हैं । एक बार देख आना चाहिए । बिना माँ बाप को बताए भाई के साथ मैं कोटा जाकर देख आई । लड़का तो बहुत सुंदर था । लँगड़ापन तो था पर देखा ऊपर नीचे आराम से चढ़ उतर रहा था । मां भी शालीन लगी । मुझे अनुभव हुआ कि मुझे यहाँ इज़्ज़त ज़रूर मिलेगी । बस उसी समय शादी का मन बना लिया । उन्हें भी लड़की पढ़ी लिखी चाहिए थी अत: उनकी तरफ़ से हाँ हो गई।।

मेरे माँ बाप के विरोध के बाद भी बडी सादगी से शादी हो गई । मेरा जीवन सँवारने में आपका बड़ा हाथ रहा है इसलिए आपको ख़ुशख़बरी देने चली आई।"

मैंने कहा," सचमुच बड़ी ख़ुशी हुई । यह बता तू तो ख़ुश है ना ?"

वह बोली,"हाँ आंटी मैं बहुत आराम से हूं और किसी बात की कमी नहीं है । पर एक बात है जो मैं किसी से नहीं कह सकती सिर्फ़ आपसे कह सकती हूँ । बात यह है कि आंटी, मुझे रात भर नींद नहीं आती और खाना भी नहीं भाता । "

मैंने आश्चर्य से पूछा,"क्या ?? किसी चीज़ की तुझे कमी नहीं है फिर ऐसा क्यों ?"

उषा बोली," आंटी, क्या करूँ, ज़िंदगी भर चटाई बिछा कर नीचे सोई, अब डनलप के मोटे गद्दों पर मुझसे सोया ही नहीं जाता । हमेशा बासी रोटी नमक मिर्च या अचार के साथ खाई । यहाँ दस व्यंजन बनते हैं पर मुझे उनमें स्वाद नहीं आता । नौकरानी के डर से बासी रोटी खा नहीं सकती । बेइज़्ज़ती के डर से पतिदेव से भी कुछ नहीं कह पाती । मन मार कर रह जाती हूँ ।"

मुझे तभी ध्यान आया कि रात के कुछ बासी पराँठे रखे हैं । मैंने नौकरानी को नाश्ते के साथ वह पराँठे और अचार लाने को कहा । उषा तपाक से उठी और पराँठे, अचार हाथ में लेकर ऐसे खाने लगी जैसे जन्नत मिल गई हो । मैं उसके चेहरे पर छाया संतोष देखती रह गई ।

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