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ग्रहण का दान

“ग्रहण का दान”

आर 0 के0 लाल

रात चंद्रग्रहण था इसलिए आज सुबह- सुबह ही मोहल्ले की गलियों में भिक्षा मांगने वालों की तेज- तेज आवाजें आनी शुरू हो गईं थी। वे चिल्ला रहे थे " ग्रहण का दान करो, दान करो, भई दान करो, पुण्य का फायदा लो"। भिक्षा मांगने वालों में महिलाएं ही ज्यादा थीं। उनके हाथ में एक सूप भी था जिसमें लोग दान डालते हैं। लगभग सभी के साथ एक दो बच्चे भी थे जो आवाज लगाने में मदद कर रहे थे। एक भिक्षुक तो प्रवचन भी दे रहा था कि ग्रहण के पश्चात किए गए दान से अपार पुण्य प्राप्त होता है। इससे घर ही नहीं पूरे देश में सुख समृद्धि आती है।

उनका शोर सुनकर शर्माजी जल्दी जग गए थे। वे तैयार होकर मॉर्निंग वॉक के लिए घर से निकल ही रहे थे कि उनके पड़ोस में रहने वाली किरायेदार सावित्री की आवाज आयी जो एक भिखारिन को रुकने के लिए बोल रही थी। शर्माजी भी ठहर गए क्योंकि साबित्री उन्हें कुछ ज्यादा ही भाती है और वे उसे प्रातः बेला में एक नजर निहारना चाहते थे। थोड़ी देर में एक बड़ी थाली में दान का समान ले कर सवित्री घर से निकली। शर्मा जी ने देखा कि उसने थोड़ा चावल, कुछ फल, दूध, शक्कर , सफेद फूल, एक सफेद वस्त्र और साथ ही दस रुपए का एक नोट भी रखा था। सावित्री ने भिखारिन को दान दिया और उसके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद मांगा। फिर वह अपने घर के अंदर चली गई।

भिखारिन ने शर्माजी से भी कुछ मांगा परंतु उन्होंने उसकी बात अनसुनी कर दी और आगे बढ़ गए। वे ऐसी वाहियात बातों में विश्वास ही नहीं करते थे, मगर वे ताज्जुब कर रहे थे कि सावित्री इतनी कम आमदनी के बावजूद इतना दान कैसे कर रही थी । सबित्री शर्मा जी के यहां कभी कभी आती और मिसेज शर्मा के काम में हाथ बंटाती। सावित्री और शर्माजी की कभी बात तो नहीं होती थी मगर वे उसके प्रशंसकों में से एक थे।

मॉर्निंग वॉक से लौटकर शर्मा जी ने अपनी पत्नी से बताया कि सावित्री इस जाड़े में भी सबेरे नहा धोकर दान दक्षिणा दे रही थी। मिसेज शर्मा ने उनसे कहा कि आपको उससे कुछ सीखना चाहिए, मगर आप तो कुछ करते ही नहीं। शर्मा जी बोले, यह तो मात्र एक खगोलीय स्थिति है। चंद्रमा चलते-चलते जब पृथ्वी के पीछे आ जाता है तो चंद्र ग्रहण पड़ जाता है।

शर्मा जी बोले, “तुम तो कहा करती हो कि पौराणिक कथा के अनुसार छल से असुर राहू द्वारा अमृत पान कर लेने से कुपित होकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन उसकी मृत्यु नहीं हुई। वह पूर्णिमा के दिन चंद्रमा को ग्रस लेता है। इसलिए चंद्रग्रहण होता है। कुछ भी हो, इसमें अंधविश्वास करने से क्या फायदा। मुझे समझ में नहीं आता कि ग्रहण के बाद लोग दान क्यों देते हैं?

कुछ देर बाद वही भिखारिन शर्मा जी के दरवाजे पर आकर भीख मांगने लगी तो शर्मा जी ने उससे पूछा, आज के दिन तो तुम्हारी बड़ी कमाई हो जाती होगी कितना पा जाती हो? उसने कहा, “कहां बाबूजी आजकल तो ज्यादातर लोग आप ही की तरह हैं, जो कुछ देते ही नहीं। हम लोग मांग-मांग कर थक जाते हैं। इस गली में तो अभी तक सिर्फ आपके पड़ोसी के घर से दान मिला है। सुबह से चक्कर लगा रही हूं। इतना भी नहीं मिला कि अपने बच्चों के भोजन की व्यवस्था कर सकूं”। तभी शर्मा जी की पत्नी एक कटोरी आटा लेकर आई और उस पर पांच रुपए का सिक्का रखकर के उसे दे दिए।

शाम को किसी काम से सावित्री शर्मा जी के घर आई तो शर्मा जी ने हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया कि आप इतना दान क्यों देती हैं, उससे आपको क्या फायदा होने वाला है? सावित्री ने उनसे कहा, “अंकल जाने भी दीजिए, इस सब में क्या रखा है, जो हमसे बन पाता है, दे देती हूं”। मगर शर्मा जी कब मानने वाले थे, वे तो उसे खोद-खोद कर उसके मन की बात उगलवाना चाहते थे।

सावित्री ने अपनी कहानी शुरू करते हुये कहा, “अंकल आज तक जो बात मैंने किसी को नहीं बताई आपको खुल कर बताऊंगी। जीवन में मैंने बहुत कठिनाइयां झेली हैं। किसी चंद्र ग्रहण के दिन ही मुझे एक राहु से यातना मिली थी इसलिए वह दिन भुलाए नहीं भूलता। फिर सावित्री बोली अंकल आप तो जानते ही हैं कि मैं कितनी गरीब हूं। मैं बचपन में ही अनाथ हो गई थी। सिर से मां-बाप का सहारा छिन जाने के बाद मेरे भाई ने मुझे सहारा दिया। हम लोग किसी तरह जी रहे थे, अक्सर खाने को भी तरसते रहते थे। मेरा भाई एक कबाड़ी के साथ जाकर कबाड़ खरीदने में उसकी मदद करता था। शाम को उसको कुल दस रुपए मिलते थे तो वह दो अंडे और दो रोटी लेकर आता। दिन भर के भूखे हम दोनों साथ साथ खाते। वह एक रुपए बचा कर मुझे भी देता। मैं उसे छप्पर में छुपा कर रखती थी कि वक्त जरूरत पर काम आएगा। जब कोई कपड़ा दे जाता तो हम उसे सालों साल पहनते। इसी तरह मैं थोड़ा बड़ी हुई।

एक दिन मेरी झुग्गी में एक समाज सेवक आए थे, जिन्होंने मेरा नाम पास के एक स्कूल में लिखा दिया और कहा कि अब तुम्हें सरकारी मदद मिलेगी। मुझे कोई मदद तो नहीं मिली मगर इतना अवश्य हुआ कि मुझे स्कूल में दिन का खाना मिल जाता जिसे मैं घर ले आती और भाई के साथ मिलकर खाती। सभी बच्चे खाना मिलते ही घर भाग जाते पर मैं स्कूल में ही बैठी रहती और कुछ न कुछ पढ़ती रहती। मुझे पढ़ना बहुत अच्छा लगता था।

सावित्री ने बताया, “मैं बचपन से बहुत खूबसूरत थी। मेरी मां कैसी थी मुझे याद नहीं है, शायद वो भी बहुत खूबसूरत रही हों। मेरी यही खूबसूरती मेरी बर्बादी का सबब बन गई क्योंकि जब मैं थोड़ा बड़ी हुई तो लोगों की गन्दी निगाहें मुझ पर पड़ने लगी। वे मुझे ऐसा घूरते जैसे खा जाएंगे। मेरी तो रूह कांप जाती थी। उन दिनों कई बार सुनाई पड़ता था कि किसी ने लड़की पर तेजाब फेंक दिया और वह बदसूरत हो गई। मेरे मन में भी आता था कि मैं स्वयं तेजाब से अपने को बदसूरत बना लूं मगर कोई ऐसा नहीं कर सकता”।

अब भाई मुझे स्कूल नहीं जाने देता था। वह चाहता था कि मैं किसी के घर में जाकर काम करूं और कुछ पैसे कमा कर लाऊं परंतु इतनी छोटी लड़की को कौन काम देता। फल स्वरुप में कूड़ा बीनने का काम करने लगी। इस काम में मुझे बहुत शर्म लगती इसलिए मैं रोज सुबह अंधेरे में ही उठ जाती, गलियों में चक्कर लगाती और अपने बोरे में शीशी, बोतल, कार्ड-बोर्ड, प्लास्टिक आदि सड़क से उठाकर भरती। उसे लाकर मैं अपने भाई को देती जो कबाड़ी वाले को देकर घर का खर्च चलाता। एक दिन तो मुझे पचास रुपए का नोट भी पड़ा हुआ मिल गया था। उस दिन मैं बहुत खुश थी और सुबह-सुबह ही अंडे खाए थे।

अंकल, उन दिनों मैं भी इन्हीं भिखारियों की तरह ग्रहण लगने के बाद भीख मांगती थी। ग्रहण के दिन मुझे खूब खाने का सामान मिलता। मगर रोज तो ग्रहण नहीं लगता इसलिए मैं शनिवार को शनि देवता के नाम पर फेरी लगाने लगी। छोटी बच्ची के नाते लोग काली तिल डालकर तेल देते और कुछ पैसे भी। फिर उसने कहा, “अंकल मुझे नहीं पता कि ग्रहण क्या होता है? मगर मैं दान देती हूं ताकि जिंदगी भर याद रखूं कि मैंने कभी इस तरह का दान लेकर अपना जीवन यापन किया था”।

कबाड़ बीनते-बीनते जिंदगी में कभी-कभी बच्चों की किताबें भी हाथ लग जाती तो मैं घर पर ही पढ़ाई करती। भाई भी कभी-कभी पुराने अखबार ले आता तो मैं उसे भी पढ़ती। मैंने स्कूल वालों से मिलकर हाई स्कूल की परीक्षा दी और किसी तरह थर्ड डिवीजन में से पास भी कर लिया था। इसी बीच भाई ने किसी लड़की को घर पर लाकर मुझसे कहा कि यह तुम्हारी भौजाई है, अब यहीं रहेगी। मुझे आज तक नहीं पता कि वह लड़की कहां से आई। उसके आते ही मेरा पत्ता साफ होने लगा। जो कुछ भाई कमाता, वह ले लेती। मेरे पैसे भी छीन लेती थी। मैं कुछ कर नहीं सकती थी। सब सहते हुए उसी झुग्गी में पड़ी रहती, अक्सर रोती। कर भी क्या सकती थी सोचती थी सब कर्मों का लेखा है।

बस्ती के तमाम लड़के मुझ पर छींटाकशी करते और छेड़छाड़ करने की कोशिश करते, मगर मेरी हिम्मत किसी की शिकायत करने की नहीं पड़ती। वही कुंदन नाम का एक लड़का भी था जो मेरे पीछे पड़ा रहता था। कई बार मैंने उसे चेतावनी दी थी कि अगर मेरे साथ कोई बदसलूकी की तो मैं शोर मचा दूंगी और तुम्हारी शिकायत भैया से करूंगी। तब भी वह नहीं मानता था। भाई ने भी उसे एक बार मार दिया था इसलिए वह बदला लेना चाहता था। मुझे याद है उस दिन भी चंद्रग्रहण था। सब लोग घर से निकल कर सड़क से ग्रहण का नजारा देख रहे थे। भौजाई से मेरी कुछ कहासुनी हो गई थी इसलिए मैं घर में ही थी। तभी कुंदन घर में आ टपका और बोला मैं अपनी मार का बदला लेकर ही रहूंगा। उसने मुझसे जबरदस्ती की। मैं चीखना चाहती थी मगर उसने मेरा मुंह दबा रखा था। मैं कुछ नहीं कर सकी अपनी आबरू लुटा बैठी, जिस पर हर स्त्री को नाज होता है। यह सब करके तो कुंदन भाग गया और मैं रोती हुई ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि कुंदन का सर्वनाश हो जाए। मैं यह बात किसी को बता नहीं सकी क्योंकि सबसे ज्यादा डर तो मुझे अपनी भौजाई से था। वह बात का बतंगड़ बना देती। हो सकता था कि मुझे घर से ही निकाल देती।

शायद यह मेरी ईश्वर से प्रार्थना का ही फल था कि कुंदन को अपनी करनी का फल जल्दी ही मिल गया । बरसात के दिनों में जब वह मैदान करने गया था तो उसके ऊपर आकाशीय बिजली गिर पड़ी और उसकी वहीं मौत हो गई। यह सुनकर मुझे विश्वास हो गया कि भगवान विष्णु ने उस राहु को मौत के घाट उतार कर दंड दिया है। तभी से मेरे मन में ग्रहण के मौके पर दान देने की बात आई।

अंकल, सभी के दिन बहुरते हैं, मेरा भी दिन बदला। एक दिन मैं अपनी सहेली की शादी देखने गई थी जो किसी समाज सेवी संगठन द्वारा सामूहिक विवाह के रूप में किया जा रहा था। एक साथ बीसों दूल्हे आए थे और एक साथ फेरे लगाए थे। वहीं पर एक व्यक्ति ने मेरे को देखकर स्वयं शादी के लिए प्रस्ताव कर दिया था। उसने मुझसे न मेरी जात पूछी न कोई अन्य विवरण। उसी वक्त मेरी शादी हो गई। श्रृंगार के नाम पर बस मेरी सहेली ने अपनी चुनरी मुझे ओढ़ा दी थी और एक माला मेरे हाथ में थमा दी थी। वह व्यक्ति एक होमगार्ड था जो आज मेरा पति और आपका पड़ोसी है। शादी के बाद मेरे पति के प्रयास से मुझे एक दुकान में सेल्स गर्ल्स के रूप में नौकरी भी मिल गई। अब मुझे केवल छ: हजार महीने मिलते हैं । हम दोनों की कमाई से घर किसी तरह चल जाता है मगर हम ग्रहण के दिन दान देना नहीं भूलते।

आज रोज सुनाई पड़ता है कि जगह जगह पर लड़कियों पर अत्याचार हो रहे हैं, उनके साथ रेप किया जा रहा है और उन्हें मार डाला जा रहा है। इसको लेकर देशभर में प्रदर्शन होता है, लोग उसकी भर्त्सना करते हैं मगर लोगों की हवस नहीं रुक रही है। एक के बाद एक वाकये होते ही रहते हैं। बड़ी संख्या में ऐसी बच्चियां भी है जो मेरी तरह किसी को कुछ बता भी नहीं पाती। यह बातें हमारे समाज पर कितना बड़ा ग्रहण है। समाज को उससे मोक्ष तो मिलना ही चाहिए।

जो चंद्रमुखी लड़की उस ग्रहण का शिकार होती है वही उस कुकृत्य की वेदना समझ सकती है। या तो वह मार दी जाती है या जीवन भर तड़पती रहती है। सारे प्रयासों के बावजूद भी अपने देश में ऐसे राहुओं की संख्या काफी बढ़ गई है जो चुपके से मौके का फायदा उठाने में लगे हैं। उन सब का नाश हो इसलिए मैं दान देकर प्रार्थना करती हूं कि ईश्वर उनको दंड दे ताकि किसी राहु का जन्म ही समाज में न हो और उनसे मोक्ष पाने के लिए किसी बेटी को मुंह न छुपाना पड़े।

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