चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख - 4 - अंतिम भाग Divya Shukla द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख - 4 - अंतिम भाग

चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख

(4)

जब चार पैसे आने लगे तो सास को बहू भी याद आई | वह भी साल में एक दो चक्कर लगा ही लेती | उनको गलती का अहसास होने लगा था | पर कभी सीधे तो कहा नहीं लेकिन उनकी बातों से झलक ही जाता की बड़ी साध से लाई बहू की सेवा से वह संतुष्ट नहीं हैं, रूपा ने कभी न उन्हें आने को कहा न ही आने से रोका ही बल्कि उनकी बीमारी में अपने पास रख कर उनकी दवा भी करवाई | माँ की बीमारी के बहाने कुंवर भी आये | इसी बहाने शायेद वह फिर से आने जाने की राह बनाना चाह रहे थे लेकिन रूपा की बेरुखी से उनकी हिम्मत नहीं पड़ी |

समय पानी की तरह बह रहा था | रूपा की बेटी अब सयानी हो गई थी | कहतें है न बेटी और बेल कब बढ़ गई पता ही नहीं चलता | अब वह बी कॉम कर रही थी |

वह बैंक में नौकरी करना चाहती थी | उसके लिये साथ -साथ तैयारी भी कर रही थी | रूपा ने उसे सब सुविधा दी थी | कोचिंग भी करवा दी थी | उसे लगता उसकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी हो जाय और तब वह उसकी शादी करे |

वह अपने सपने अब अपनी बेटी की आँखों से देखना चाह रही थी | जो कुछ उसे नहीं मिला वह सब बेटी के आंचल में भर देना चाहती थी |

एक दिन दोनों मेरे मिठाई का डिब्बा ले कर आई और रूपा ने बेटी को आँख से ईशारा किया और नेहा मेरे पांव छूने को झुकी | मैने उसे रोकते हुये कहा -

'' नहीं हमारे यहाँ बेटियां पांव नहीं छूती लेकिन यह तो बताओ खुशखबरी क्या है ?''

रूपा ने बताया नेहा को किसी प्राईवेट बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई है | मैने उसे गले लगा लिया | आज मुझे बहुत ख़ुशी हुई रूपा के सारे दुःख सारे कष्ट की साक्षी रही हूँ मै, उसके पाँव के छाले चेहरे की झाइयाँ सब गवाह है,

नेहा अब इक्कीस -बाईस साल की हो रही थी | रूपा अब जब भी आती उसके ब्याह की चिंता करती पर उसे अपनी ही जाति में दामाद चाहिये था | पर उसके पास बेटी ही थी दहेज़ नहीं | वह सिर्फ सादगी से शादी कर सकती थी | उस दिन भी वह बहुत परेशान थी तो मैने उससे कहा वह गाँव जा कर नेहा के पिता के हिस्से की जायजाद मांग ले उस पर उसका और बेटी का ही हक है और बिना मांगे तो मिलने से रही |

उसे भी इस बात से कुछ आशा जगी | इधर उसकी सास भी कभी कभार राशन पानी खुद ही ले कर आ जाती और उसके के रोकने पर कहती ये उसका हक है, रूपा अपने ससुराल गई | अम्मा से बात भी की | वहां काफी कुछ बिक गया था जो बचा

खुचा था उसी में संतोष कर उसे बेचने की बात कर के वापस आ गई | उसे शादी के

लिये पैसे भी चाहिए थे और अब वह लड़का खोजने में लग गई | मेरे समझाने पर वह कहती,-

'' दीदी जमाना खराब है हम किस तरह रहे हैं आप तो सब जानती ही हैं |

अब अकेली औरत जवान लड़की को ले कर कैसे रहे इस पापी दुनिया में | इसी चिंता में हमको अब रात -रात भर नींद नहीं आती | जब नेहा को ब्याह देंगे तभी चैन से सो पायेंगे हम | ''

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रूपा ने बेटी के लिये सुयोग्य वर खोजना शुरू किया | उसने कई बार अख़बार में शादी का विज्ञापन भी दिया | बहुत सारे पत्र भी आये विज्ञापन के जवाब में कई सारे फोन भी आते रहे लेकिन बातचीत के बाद दुबारा कोई फोन नहीं करता शायेद वह लोग भांप जाते अकेली माँ सिवा बेटी के कुछ नहीं दे सकेगी | यहाँ बेटी की पढ़ाई उसके संस्कार, सौन्दर्य किसी गुण की कोई पूछ नहीं | फिर यह भी डर कुछ मिलना मिलाना तो है नही ऊपर से कहीं लड़की की माँ ही कहीं दहेज़ में न चली आये | वह उदास हो जाती और कहती -

'' अब तक तो बीत गई पर अब क्या करें दीदी | आपकी नेहा बिट्टो न जाने क्या लिखा कर लाई हैं भाग्य में, बस यह सुख से बस जायें अपने घर परिवार में |'' .

इतना कहते -कहते उसकी आँखे झरने लगी | मैने बहुत समझाया, मत परेशान हो |

जब समय होगा सब हो जायेगा | तुम देखती रहो एक दिन सब ठीक हो जायेगा |

नेहा के लिये विधाता ने किसी न किसी को तो बनाया ही होगा न | जब समय आयेगा तो वह भी मिल जायेगा |'' .

उस दिन इतवार था जब रूपा नेहा को लेकर सुबह से ही मेरे पास आ गई |

दोपहर के खाने के बाद मै बिट्टो से उसके काम के बारे में बात करने लगी | मुझे जब बहुत लाड़ आता तो उसे बिट्टो ही बुलाती |

मै उससे जितना पूछ रही थी वह उतना ही बोल रही थी | आज वह और दिनों की तरह चहक नहीं रही थी | न जाने क्यों नेहा अनमनी सी थी और रूपा भी चुप थी | कुछ देर बाद रूपा ने बताया नेहा को कोई लड़का पसंद है | उसका चेहरा यह बताते हुये बुझ गया | मानो कोई बड़ा सदमा लगा हो | ''

मैने उसे बहुत समझाया भी -

'' क्या हुआ इसमें कौन सी गलत बात हो गई उसने अगर पसंद किया | अब उसे कोई तुमसे मान मनुहार करके मांग रहा है तो अच्छा ही है न | कम से कम लालची तो नहीं है | वह बेटी की कदर करेगा | बस उसके बारे में सब पता करवाना है | अगर सब ठीक है तो कर दो ब्याह अब बिट्टो रानी का | ''

मैने नेहा से अकेले में बात की |आशीष उसके साथ ही कालेज में था | वह दोनों पढ़ाई के बाद अभी साल भर पहले ही मिले | जब वह किसी काम से बैंक आया | उसे नेहा और उसकी माँ के बारे में सब पहले से पता था | कालेज के जमाने से वह इसे पसंद करता था | पर नेहा के लिये वह सिर्फ उसका अच्छा मित्र ही था | अब जब दुबारा मिले तो अक्सर ही मुलाकात होने लगी | नेहा को वह पसंद था वह कंप्यूटर इंजीनयर था और गुडगाँव में ही उसका आफिस था, मैने रूपा से कहा -

''अब जब ईश्वर ने तुम्हारी परेशानी हल कर दी तो दुविधा किस बात की | बस उसके बारे में ठीक से पता कर के संतुष्ट हो लो | नेहा की ख़ुशी में तुम्हारी भी तो ख़ुशी है न | वरना जबरदस्ती कहीं और कर दोगी बेटी तुम्हारा मान रख लेगी और ब्याह कर भी लेगी पर क्या खुश रहेगी ? तुम इस बात को आराम से सोचना और फिर कोई फैसला करना |''

उसी दिन रात को नेहा का फोन आया धीरे से फुसफुसाते हुये बोली -

'' थैंक यू मौसी माँ मान गई आपकी बात | आप कितनी अच्छी हो आप से एक बात कहनी है बिट्टो लव यू मौसी आज आपकी बिट्टो बहुत खुश है |''

और मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई ये बेटियां भी कितनी प्यारी होती है | ये चिड़ियाँ जब तक रहती है माँ का घर उनकी चहक से गुनगुनाता रहता है | फिर अचानक फुर्र से उड़ जाती है नया नीड़ बनाने को, उस दिन के बाद रूपा से बस दो बार भेंट हुई | एक बार जब वह शादी का कार्ड देने आई | दुबारा बेटी को विदा करने के कुछ दिन बाद आई तो बहुत उदास थी | नेहा की शादी के बाद वह अकेली हो गई थी कहने लगी -

'' अब तन मन दोनों थक गये दीदी अब काम नहीं होता | अब तो उमर भी हो गई है न पचास पार हो जायेगा इस साल जब जांगर नहीं चलेगा तो आप ही के पास आ जायेंगे | आप रखियेगा न हमें ? ''

कह कर फीकी सी मुस्कान तैर गई उसके चेहरे पर मैने समझाया --

'' बेटियां तो जाती ही है अपने घर तुम उदास होगी तो बिट्टो वहां परेशान होगी तुम्हारा जब मन करे मेरे पास आ जाया करो | चाहो तो हमेशा के लिये यहीं आ जाओ अपनी बड़ी बहन के पास | ''

उस दिन शाम को जो वह गई तो आज तीन बरस बाद उसका फोन आया | यही सब सब सोचते हुये न जाने कब मेरी आँख लग गई | रात के अंतिम पहर में सोई पर सुबह अपने वक्त से ही जग गई | आज कई जरुरी काम भी थे पर उन्हें चार बजे तक निपटाना भी था | उसने कहा था न वो आयेगी और फिर शाम सात बजे तक का सारा वक्त उसका |

कुछ काम मैने आज खतम किये बाकी के कल के लिये पेंडिंग कर दिये और चार बजते -बजते घर वापस आ गई, कल से बार-बार यही ख्याल आ रहा था क्या बताना चाहती है ? जरुर उसने अपना घर ले लिया होगा | उसे बड़ी चाह थी, उसके सर पर अपनी छत हो | भले ही एक कमरे का ही हो अपना घर हो | जहाँ से उसे कोई बाहर न कर सके | पर कहाँ से लेगी घर बेटी की शादी के बाद उसके पास इतनी रकम भी तो नहीं थी |

यही सब सोच कर मुझे भी उससे मिलने की उत्सुकता हो रही थी | अब पता नहीं कहाँ अटक गई ये रूपा भी अब तो साढ़े चार बज गये लगता है रास्ता भटक गई ठीक से तो लिखवा दिया था यही सब बड़बड़ाते हुये फोन उठा कर नंबर डायल करने ही जा रही थी की मेरे ठीक पीछे

से आवाज़ आई --

'' किसे फोन करने कर रही है दीदी ?''

लाबी का दरवाज़ा खुला था वो दबे पाँव आकर ठीक मेरे पीछे खड़ी थी, पलट कर देखा तो पल भर को उसे पहचान ही नहीं पाई | उसे देखती ही रह गई, कितना बदल गई थी वह | इस नये रूप में रूपा बहुत सुंदर लग रही थी | चेहरे पर चमक थी तीन साल पहले वाला वो तांबई चेहरा गुलाबी रंगत में बदल गया था | करीने से पहनी हल्की गुलाबी सिल्क की साड़ी, मांग में लाल सिंदूर और माथे पर सुर्ख बिंदी,कलाई भर चूडियाँ गले में सोने का मंगलसूत्र, यह एक नई रूपा थी नये स्वरूप में | मै अवाक् उसे देखती ही रह गई सुखद आश्चर्य था यह | मैने उससे पूछा -

'' रूपा तुम हो अरे कब हुआ ये सब ? कौन है ? कैसे हुआ यह सब ? घर में कौन कौन है ?''

मैने एक साँस में ढेरों सवाल दाग दिये सच तो है सुखद आश्चर्य हुआ --

फिर मैने पूछा --

'' ख़ैर बहुत अच्छा हुआ बस एक बात बताओ ... रूपा तुम खुश हो न ?''

उसके चेहरे पर सलज्ज मुस्कान तैर गई लाज से और मुझे जवाब मिल गया |उसने कहा भी --

'' दीदी हम बहुत खुश हैं ये बहुत अच्छे है | बहुत ध्यान रखते हैं हमारा | अभी आफिस के बाद आयेंगे हमें लेने | हम उनसे आपकी बहुत बातें करते हैं उन्होंने ही कहा हम भी चलेंगे तुम्हारी दीदी से मिलने | हम से बोले तुम पहले चली जाओ और जी भर बातें कर लो अपनी दीदी से | इसलिए हम पहले आ गये | ''

रूपा देर तक बीते तीन बरसों में जो घटा सब सिलसिलेवार बताती रही | वह नानी बन गई है नेहा के डेढ़ साल का बेटा है | लाख मना करने पर भी आशीष और नेहा ने अख़बार में विज्ञापन निकलवाया और राजेन्द्र जी का रिश्ता आया | उनके दो बेटे हैं वही बात कर रहे थे | दोनों घरों के बच्चों ने रिश्ता तय किया और छह महीने पहले सादगी से शादी हो गई |

रूपा के पति का नाम राजेन्द्र गुप्ता है | वह बिक्रीकर विभाग में क्लास 2 अफसर है | पत्नी पांच छह साल पहले गुजर गई थी | दो बेटे हैं बस यही परिवार है | दोनों बेटे बहुत इज्ज़त और स्नेह करते हैं | वह बताती रही और हम सुनते रहे | आज उसके पास बताने को सिर्फ खुशियाँ थी | सुख थे इन्हें बांटते वह बहुत संतुष्ट लग रही थी | समय कब बीत गया पता ही न चला | साढ़े छह बजे राजेन्द्र जी भी आ गये | उनसे मिल कर उन्हें देख लगा वह सुलझे हुये गंभीर व्यक्ति हैं | रूपा खुश रहेगी | चाय नाश्ते के बाद दोनों चलने लगे | तो रूपा की आँख भर आई गले लग कर भेंटने के बाद जब उसके और राजेन्द्र जी के हाथ पर नेग का सिक्का रखा तो रूपा की डबडबाई आँखे बहने लगी, वह राजेन्द्र जी को देख कर बस इतना ही बोल पाई ----

'' सुनिये बस यही हमारा मायका है | ''

उम्र के तीसरे पड़ाव के इस जोड़े को देख कर ये ख्याल आया जिंदगी तेरे कितने रंग ...!

---दिव्या शुक्ला !!

( निकट 2018 )