देस बिराना - 6 Suraj Prakash द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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देस बिराना - 6

देस बिराना

किस्त छह

लौट रहा हूं वापिस। एक बार फिर घर छूट रहा है..। अगर मुझे ज़रा-सा भी आइडिया होता कि मेरे यहां आने के पांच-सात दिन के भीतर ही ऐसे हालात पैदा कर दिये जायेंगे कि मैं न इधर का रहूं और न उधर का तो मैं आता ही नहीं।

यहां तो अजीब तमाशा खड़ा कर दिया है दारजी ने। कम से कम इतना तो देख लेते कि मैं इतने बरसों के बाद घर वापिस आया हूं। मेरी भी कुछ आधी-अधूरी इच्छायें रही होंगी, मैं घर नाम की जगह से जुड़ाव महसूस करना चाहता होऊंगा। चौदह बरसों में आदमी की सोच में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ जाता है और फिर मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा था। दारजी तो बस, अड़ गये - तुझे शादी तो यहीं करतारे की लड़की से ही करनी पड़ेगी। मैं कौल दे चुका हूं। दारजी का कौल सब कुछ और मेरी ज़िंदगी कुछ भी नहीं। अजीब धौंस है। उन्हें पता है, मैं उनके आगे कुछ भी नहीं कह पाऊंगा तो मेरी इसी शराफ़त का फायदा उठाते हुए म़ुझे हुक्म सुना दिया - शाम को कहीं नहीं जाना, हम करतारे के घर लड़की देखने जा रहे हैं। मैंने जब बेबे के आगे विरोध करना चाहा, तो दारजी बीच में आ गये - बेबे को बीच में लाने की ज़रूरत नहीं है बरखुरदार, यह मर्दों की बात है। हम सब कुछ तय कर चुके हैं। सिर्फ तुझे लड़की दिखानी है ताकि तू ये न कहे, देखने-भालने का मौका ही नहीं दिया। वैसे उनका घर-बार हमारा देखा भाला है..। पिछली तीन पीढ़ियों से एक-दूसरे को जानते हैं। संतोष को भी तेरी बेबे ने देखा हुआ है।

यह हुक्मनामा सुना कर दारजी तो साथ जाने वाले बाकी रिश्तेदारों को खबर करने चल दिये और मैं भीतर-बाहर हो रहा हूं। बेबे मेरी हालत देख रही है। जानती भी है कि मैं इस तरह से तो शादी नहीं ही कर पाऊंगा। परसों रात भी मैंने बेबे को समझाने की कोशिश की थी कि अभी मैं इस तरह की दिमागी हालत में नहीं हूं कि शादी के बारे में सोच सकूं और फिर बंबई में मेरे पास अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है, आने वाली को कहां ठहराउंगा, तो बेबे अपने रोने सुनाने लगी - तूं इन्ने चिरां बाद आया हैं। सान्नू इन्नी साध तां पूरी कर लैंणे दे कि अपणे होंदेयां तेरी वोटी नूं वेख लइये।

मैंने समझाया - वेख बेबे, तेनू नूं दा इन्ना ई शौक है तां बिल्लू ते गोलू दोंवां दा वया कर दे। तेरियां दो दो नूंआ तेरी सेवा करन गी।

- पागल हो गया हैं वे पुत्तर, वड्डा भरा बैठा होवे ते छोटेयां दे बारे विच सोचेया वी नीं जा सकदा पुत्तर। तू कुड़ी तां वेख लै। अस्सी सगन लै लवां गे। शादी बाद विच होंदी रऐगी। पर तूं हां तां कर दे। जिद नीं करींदी। मन जा पुत्त।

मैं नहीं समझा पा रहा बेबे को। जब बेबे के आगे मेरी नहीं चलती तो दारजी के आगे कैसे चलेगी।

ठंडे दिमाग से कुछ सोचना चाहता हूं।

मैं बेबे से कहता हूं - ज़रा घंटा घर तक जा रहा हूं, कुछ काम है, अभी आ जाऊंगा, तो बेबे आवाज लगाती है - छेत्ती आ जाईं पुत्तरा।

मैं निकलने को हूं कि गुड्डी की आवाज आती है - वीर जी, मैं भी कॉलेज जा रही हूं। पलटन बाज़ार तक मैं भी आपके साथ चलती हूं।

- चल तू भी। कहता हूं उससे।

- बहुत परेशान हैं, वीर जी?

- कमाल है, यहां मेरी जान पर बन रही है और तू पूछ रही है परेशान हूं। तू ही बता, क्या सही है दारजी और बेबे का ये फैसला....।

- वीर जी, बात सिर्फ आपकी जान की नहीं है, किसी और को भी बली का बकरा बनाया जा रहा है। उसकी तो किसी को परवाह ही नहीं है।

- क्या मतलब? और किस को बलि का बकरा बनाया जा रहा है?

वह रुआंसी हो गयी है।

- तू बोल तो सही, मामला क्या है?

- यहीं राह चलते बताऊं क्या?

- अच्छा, यह बात है, बोल कहां चलना है। लग रहा है मामला कुछ ज्यादा ही सीरियस है।

- इस शहर की यही तो मुसीबत है कि कहीं बैठने की ढंग की जगह भी नहीं है।

- चल, नंदू के रेस्तरां में चलते हैं। वहां फैमिली केबिन है। वहां कोई डिस्टर्ब भी नहीं करेगा।

नंदू कहीं काम से गया हुआ है, लेकिन उसका स्टाफ मुझे पहचानने लगा है..। सब नमस्कार करते हैं। मैं बताता हूं - ये मेरी छोटी बहन है। हम बात कर रहे हैं। कोई डिस्टर्ब न करे!

- हां अब बता, क्या मामला है, और तेरी ये आंखें क्यों भरी हुई हैं, पहले आंसू पोंछ ले, नहीं तो चाय नमकीन लगेगी।

- यहां किसी की जान जा रही है और आप को मज़ाक सूझ रहा है वीर जी।

- तू बात भी बतायेगी या पहेलियां ही बुझाती रहेगी, बोल क्या बात है...।

- कल रात जब आप नंदू वीरजी के घर गये हुए थे तो बेबे और दारजी बात कर रहे थे। उन्होंने समझा, मैं सो गयी हूं, लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। तभी दारजी ने बेबे को बताया - करतारे ने इशारा किया है कि वो सगाई पर पचास हजार नकद, सारे रिश्तेदारों को सगन और हमें गरम कपड़े वगैरह देगा और शादी के मौके पर दीपू के लिए मारूति कार और चार लाख नकद देगा।

- अच्छा तो यह बात है।

- टोको नहीं बीच में। पूरी बात सुनो।

- सॉरी, तो बेबे ने क्या कहा?

- बेबे ने कहा कि हमारी किस्मत चंगी है जो दीपू इन्ने चंगे मौके पर आ गया है। हमारे तो भाग खुल गये।

- तो दारजी कहने लगे - दीपू की शादी के लिए तो हमें कुछ खास करना नहीं पड़ेगा। उसके पास बहुत पैसा है। आखिर अपनी शादी पर खरच नहीं करेगा तो कब करेगा। ये पचास हजार ऊपर एक कमरा बनाने के काम आ जायेंगे। बाकी करतारा शादी के वक्त तो जो पैसे देगा, वो पैसे गुड्डी के काम आ जायेंगे। साल छः महीने में उसके भी हाथ पीले कर देने हैं। उसके लिए भी एक दो लड़के हैं मेरी निगाह में.. ।

यह कहते हुए गुड्डी रोने लगी है - मेरी पढ़ाई का क्या होगा वीर जी, मुझे बचा लो वीर जी, मैं बहुत पढ़ना चाहती हूं। आप तो फिर भी अपनी बात मनवा लेंगे। मेरी तो घर में कोई सुनता ही नहीं।

- मुझे नहीं मालूम था गुड्डी, मामला इतना टेढ़ा है। कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

- जो कुछ भी करना है, आज ही करना होगा, कहीं शाम को सब लोग पहुंच गये लड़की देखने तो बात लौटानी मुश्किल हो जायेगी।

- क्या करें फिर..?

- आप क्या सोचते हैं ?

- देख गुड्डी, तेरी पढ़ाई तो पूरी होनी ही चाहिये। तेरी पढ़ाई और शादी की जिम्मेवारी मैं लेता हूं। तुझे हर महीने तेरी ज़रूरत के पैसे भेज दिया करूंगा। तेरी शादी का सारा खर्चा मैं उठाऊंगा। तू बेफिकर हो कर कॉलेज जा। पढ़ाई में मन लगा। बाकी मैं देखता हूं। दारजी और बेबे को समझाता हूं।

मैं जेब से पर्स निकालता हूं - ले फिलहाल हज़ार रुपये रख। बंबई से और भेज दूंगा, और ये रख मेरा कार्ड। काम आयेगा..।

गुड्डी फिर रोने लगी है - क्या मतलब वीर जी, आप.... आप.. ये सब क्या कह रहे हैं और ये पैसे क्यों दे रहे हैं। आपके दिये कितने सारे पैसे मेरे पास हैं।

- देख, अगर दारजी और बेबे न माने तो मेरे पास यही उपाय बचता है कि मैं शाम होने से पहले ही बंबई लौट जाऊं। इस सगाई को रोकने का और कोई तरीका नहीं है। जिस तरह मेरे आने के दूसरे दिन से ही ये षडयंत्र शुरू हो गये हैं, मैं इनसे नहीं लड़ सकता। मैं यहां अपने घर वापिस आया था कि अकेले रहते-रहते थक गया था और यहां तो ये और ही मंसूबे बांध रहे हैं।

गुड्डी मेरी तरफ देखे जा रही है।

- देख गुड्डी, मेरे आने से एक ही अच्छा काम हुआ है कि तू मुझे मिल गयी है। बाकी सब कुछ वैसा ही है जैसा मैं छोड़ गया था। न दारजी बदले हैं और न बेबे। देख, तू घबराना नहीं। मैं खुद अपने आंसू रोक नहीं पा रहा हूं लेकिन उसे चुप करा रहा हूं - हो सकता है शाम को तू जब कॉलेज से वापिस आये तो मैं मिलूं ही नहीं तुझे।

गुड्डी रोये जा रही है। हिचकियां ले ले कर। उसके लिए और पानी मंगाता हूं, फिर समझाता हूं - तू इस तरह से कमज़ोर पड़ जायेगी तो अपनी लड़ाई किस तरह से लड़ेगी पगली, चल मुंह पोंछ ले और दुआ कर कि बेबे और दारजी को अक्कल आये और वे हमारी सौदेबाजी बंद कर दें।

- आप सचमुच चले जायेंगे वीर जी ...?

- यहां रहा तो मैं न खुद को बचा पाऊंगा न तुझे। तू ही बता क्या करूं ....?

- आपके आने से मैं कितना अच्छा महसूस कर रही थी। आपने मुझे ज़िंदगी के नये मानी समझाये। अब ये नरक फिर मुझे अकेले झेलना पड़ेगा। ऐनी वे, गुड्डी ने अचानक आंसू पोंछ लिये हैं और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया है - आल द बेस्ट वीर जी, आप कामयाब हों। गुड लक.. ..। उसने बात अधूरी ही छोड़ दी है और वह तेजी से केबिन से निकल कर चली गयी है। मैं केबिन के दरवाजे से उसे जाता देख रहा हूं .. एक बहादुर लड़की की चाल से वह चली जा रही है। उसे जाता देख रहा हूं, और बुदबुदाता हूं - बेस्ट विशेज की तो तुझे ज़रूरत थी पगली, तू मुझे दे गयी ......।

मुझे नहीं पता, अब गुड्डी से फिर कब मुलाकात होगी!! पता नहीं होगी भी या नहीं उससे मुलाकात !!

घर पहुंचा तो दारजी वापिस आ चुके हैं। अब तो उन्हें देखते ही मुझे तकलीफ़ होने लगी है। कोई भी मां-बाप अपने बच्चे के इतने दुश्मन कैसे हो जाते हैं कि अपने स्वार्थ के लिए उनकी पूरी ज़िंदगी उजाड़ कर रख देते हैं। इनकी ज़रा-सी जिद के कारण मैं कब से बेघर-बार सा भटक रहा हूं और जब मैं अपना मन मार कर किसी तरह घर वापिस लौटा तो फिर ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं कि पता नहीं अगले आधे घंटे बाद फिर से ये घर मेरा रहता है या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

इनको अच्छी तरह से पता है कि गुड्डी पढ़ना चाहती है, लेकिन उस बेचारी के गले में अभी से घंटी बांधने की तैयारी चल रही है और इंतज़ाम भी क्या बढ़िया सोचा है कि एक बेटे की शादी में दहेज लो और अपनी लड़की की शादी में वही दहेज देकर दूसरे का घर भर दो। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा कि चीज़ें किस तरह से मोड़ लेंगी और क्या बनेगा इस घर का।

मैं यही सोचता अंदर-बाहर हो रहा हूं कि दारजी टोक देते हैं

- क्या बात है बरखुरदार, बहुत परेशान नज़र आ रहे हो? मामला क्या है ?

- मामला तो आप ही का बनाया बिगाड़ा हुआ है दारजी। कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता कि मैं क्या चाहता हूं। मुझे अभी आये चार दिन भी नहीं हुए और.. .. मेरी नाराज़गी आखिर हौले-हौले बाहर आ ही गयी है।

- देख भई दीपेया, हम जो कुछ भी कर रहे हैं तेरे और इस घर के भले के लिए ही कर रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि तेरा घर-बार बस जाये तो हम बाकी बच्चों की भी फिकर करें। अब इतना अच्छा रिश्ता.....!

- दारजी, ये रिश्ता तो न हुआ। ये तो सौदेबाजी हुई। मैं किसी तरह हिम्मत जुटा कर कहता हूं।

- कैसी सौदे बाजी ओये....?

- क्या आप इस रिश्ते में नकद पैसे नहीं ले रहे ?

- तो क्या हुआ, दारजी ने गरम होना शुरू कर दिया है।

- तुझे पता नहीं है, आजकल पढ़ा लिखा लड़का किसी को यूं ही नहीं मिल जाता। समझे.. और तेरे जैसा लड़का तो उन्हें दस लाख में भी न मिलता। हम तो शराफत से उतना ही ले रहे हैं जितना वे खुशी से अपनी लड़की को दे रहे हैं। हमने कोई डिमांड तो नहीं रखी है।

- ये मेरी सौदेबाजी नहीं है तो क्या है दारजी...?

- ओये चुप कर बड़ा आया सौदेबाजी वाला ... दारजी अब अपने पुराने रूप में आने लगे हैं और मेरे सिर पर आ खड़े हुए हैं - तू एक बात बता। कल को गुड्डी के भी हाथ पीले करने हैं कि नहीं। तब कौन से धरम खाते से पैसे निकाल कर लड़के वालों के मुंह पर मारूंगा। बता जरा...?

- गुड्डी की जिम्मेवारी मेरी। अभी वो पढ़ना चाहती है।

- तो उसने आते ही तेरे कान भर दिये हैं। कोई ज़रूरत नहीं है उसे आगे पढ़ाने की। ठीक है संभाल लेना उसकी जिम्मेवारी। आखिर तेरी छोटी बहन है। तेरा फ़रज बनता है। बाकी यहां तो हम कौल दे चुके हैं। शादी बेशक साल दो साल बाद करें। मुझे तो सबका देखना है। उधर गोलू बिल्लू एकदम तैयार बैठे हैं और उन्होंने अपनी तरफ से पहले ही अल्टीमेटम दे दिया है।

उन्होंने अपना आखिरी फैसला सुना दिया है - तू शाम को घर पर ही रहना। इधर-उधर मत हो जाना। सारी रिश्तेदारी आ रही है। चाहे तो नंदू को साथ ले लेना।

इसका मतलब ये लोग अपनी तरफ से मेरे और कुछ हद तक गुड्डी के भाग्य का फैसला कर ही चुके हैं। मैं भी देखता हूं, कैसे सगाई करते हैं संतोष कौर से मेरी...।

उन्हें नहीं पता कि जो बच्चा एक बार घर छोड़ कर जा सकता है, दोबारा भी जा सकता है। मैं अपने साथ दो-चार जोड़ी कपड़े ही लेकर आया था। यहां छूट भी जायें तो भी कोई बात नहीं। गोलू बिल्लू पहन लेंगे। बैग भी उनके काम आ जायेगा। रास्ते में रेडीमेड कपड़े और दूसरा सामान खरीद लूंगा।

पहली बार खाली पेट घर छूटा था, अब बेबे से कहता हूं - बेबे, जरा छेती नाल दो फुलके तां सेक दे। बजार जा के इक अध नवां जोड़ा तां लै आवां। बेबे को तसल्ली हुई है कि शायद मामला सुलट गया है। मैं बेबे के पास रसोई में ही बैठ कर रोटी खाता हूं। भूख न होने पर भी दो-एक रोटी ज्यादा ही खा लेता हूं। पता नहीं फिर कब बेबे के हाथ की रोटी नसीब हो। उठते समय बेबे के घुटने को छूता हूं। पता नहीं, फिर कब बेबे का आशीर्वाद मिले। पूरे घर का एक चक्कर लगाता हूं। रंगीन टीवी तो रह ही गया। नंदू के घर की पार्टी भी रह गयी। हालांकि इस बीच कई यार दोस्त आ कर मिल गये हैं लेनि सबसे एक साथ मिलना हो जाता।

घर से बाहर निकलते समय मैं एक बार फिर बेबे को देखता हूं। वह अब दारजी के लिए फुलके सेक रही है। दारजी अपनी खटपट में लगे हैं। दोनों को मन ही मन प्रणाम करता हूं - माफ़ कर देना मुझे बेबे और दारजी, मैं आपकी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी का यह सौदा नहीं कर सकता। अपने लिए बेशक कर भी लेता, लेकिन आपने इसके साथ गुड्डी की किस्मत को भी नत्थी कर दिया है। मैं इस दोहरे पाप का भागी नहीं बन सकता मेरी बेबे। मैं एक बार फिर से बिना बताये घर छोड़ कर जा रहा हूं। आगे मेरी किस्मत।

और मैं एक बार फिर खाली हाथ घर छोड़ कर चल दिया हूं। इस बार मेरी आंखों में आंसू हैं तो सिर्फ गुड्डी के लिए... वो अपनी लड़ाई नहीं लड़ पायेगी। मैं भी तो अपनी लड़ाई का मैदान छोड़ कर बिना लड़े ही हार मान कर जा रहा हूं। एक ही मैदान से दूसरी बार पीठ दिखा कर भाग रहा हूं ।

***