फ़ैसला
(7)
आंख खुली तो फिर दूसरे दिन की सुबह, भास्कर देव नीले आसमान में अपनी स्वर्णिम आभा बिखेरते हुए। एक किरण को शायद आदेशित उन्होंने ही किया होगा। तभी तो वह मेरे कमरे की खिड़की के दराज के रास्ते मुझ तक पहुंच गयी और मुझे नींद से जगा दिया। मैंने अपनी आंखें मलते हुए भास्कर देव को बैठे ही बैठे प्रणाम किया और मन ही मन प्रार्थना की कि हे! अन्धकार को दूर करने की असीम क्षमता वाले भगवान भास्कर क्या आप मेरे पित कहलाने वाले इस पुरुष के शरीर में व्याप्त दुर्गुणों को दूर नहीं कर सकते हो। ऐसा अगर आपने कर दिया तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगी। लेकिन कुछ ही देर में उनकी वह किरण कमरे से दूर चली गयी। शायद वह अपने को ऐसे नीच व्यक्ति से दूर रहना ही चाहती होगी। क्योंकि अभय की इस समय इतनी नीच, कलुषित मानसिकता हो चुकी थी कि अच्छाई उससे दूर ही रहना पसंद करेगी। वैसे तो प्रतिदिन सबेरे नये दिन की शुरुआत होती है और मनुष्य के जीवन में प्रगति और बदलाव आते रहते हैं। उनका जीवन प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। परन्तु मेरे जीवन में अब अन्धकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वहां सिर्फ यातनाओं और पुरुष द्वारा फैलायी हुई गंदगी।
इस तरह मैं हर दिन घुट-घुट जीने के लिए तैयार रहती थी और भगवान से प्रतिदिन सबेरे हाथ जोड़कर विनय करती थी कि हे भगवान किसी तरह इस नारकीय जीवन से मुझे छुटकारा दीजिए। क्योंकि अभय ने मुझे वह सब करने पर मजबूर कर दिया था, जो कि एक वैश्या करती है। वैश्या तो अपनी रोटी और ऐशो आराम के लिए करती है। लेकिन मुझे बेटी को मोहरा बनाकर वही कार्य करने को विवश किया जाता था क्योंकि अभय अब रुपयों का लोभी हो चुका था उसे जिधर से नोट आती दिखती थी वही करने को तैयार हो जाता था। वह चाहे जितना गलत कार्य हो। इन सब कार्यों के लिए उसे तैयार करने वाला मयंक था। वह अभय के बिजनेस को भी हथियाना चाहता था। इसीलिए उसने अभय को शराब की आदत डाली और मेरी आबरू उतारने में भी कामयाब रहा।
धीरे-धीरे इधर कई दिन बीत गये। लेकिन मेरे ऊपर ऐसे ही यातनाओं का सिलसिला वैसे ही जारी रहा। तीन-चार दिन से वे दोनों काफी देर रात को आने लगे थे। जब देर रात में वे आते उनके साथ एक नाबालिग लड़की होती थी। उसे वे कहां से लाते किसी को पता भी नहीं चलता। घर में घुसते ही अभय मेरे ऊपर आर्डर जमाने लगता था और कुछ बिलम्ब होने पर गालियों की बौछार शुरू हो जाती थी। लेकिन अब तो मैं इन सबकी अभ्यस्त हो चुकी थी। उन दोनों दरिन्दों की हां-हुजूरी करती रहती थी। मुझे अब उनसे केवल एक ही डर था कि अगर मैंने इनका अधिक विरोध किया तो ये कहीं मुझे जान से ही ने मार दें। फिर उसके बाद मेरी बेटी का क्या होगा? कहीं उसे भी ये दोनों इसी नक्र में न झोंक दें। बस इसीलिए एक चाभी भरे खिलौने का भांति उनके इशारे पर नाचती रहती थी। मुझे अब अभय का लेशमात्र भी भरोसा नहीं था।
वे दोनों पहले तो बैठकर शराब वे अपनी हलक को तर करते और जब उसका सुरूर सिर चढ़कर बोलने लगता, फिर निर्दयता का इतना गंदा खेल खेलते कि मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। उस लड़की की दर्दनाक चीखों को मेरे कान सहन नहीं कर पाते थे। लेकिन वे दोनों खूंखार दानवों की तरह कली को मसल देते थे। यह भयावह कुकृत्य देखने के लिए वह जबरन मुझे भी वहीं पर रोकते थे। और मेरे जाने के आग्रह करने पर अभय शारीरिक यातनायें मुझे देता था। परन्तु अब तो आंसू पीकर चुप रहने की आदत हो गयी थी। अभय की तो मेरे प्रति संवेदनायें मर चुकी थीं। वह मात्र मुझे भोगने की वस्तु समझने लगा था। उसका वह दोस्त समय-समय पर मेरे औ उसके बीच आग में घी वाला कार्य करता था।
मेरी नजरों में ये दोनों जघन्य अपराधी थे। शायद यही समाज भी कहता। लेकिन दोनों समाज की नजरों में चोरी छुपे अपने इस गन्दे कार्य को अंजाम देते थे। मैं उनके द्वारा दी गयी यातनायें झेल रही थी। उस मयंक द्वारा मेरे साथ किये गये कुकृत्य रह-रहकर मेरी आंखों के सामने पिक्चर की तरह घूम जाते थे। फिर उन्हें देखते मेरे अन्दर घृणा, क्रोध और अपमान का ज्वालामुखी धधकने लगता परन्तु वह लावा बनकर बहने की स्थिति में नहीं आ पाता। उसके बाहर निकलने से पहले ही जिम्मेदारियों और ममत्व के कपाट इस तरह कस जाते कि उसकी ज्वलनशीलता से मेरा सम्पूर्ण अन्तःकरण धधकने लगता था। इतना सब घटित होने के साथ भी मैं स्थिर और शान्त थी आखिर क्यों? इसका कारण मै पहले ही बता चुकी हूं।
इसी प्रकार कितनी शाम और राते बीतीं। जो कि मुझे भी इन दुराचारियों के कुकृत्य का गवाह बना दिया। उन नाबालिग बच्चियों की चीत्कार मेरे कानों को आज भी साफ-साफ सुनायी देती है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि वे मुझसे हाथ जोड़कर कह रही हों कि आप ही मुझको इन आतताइयों से बचा लो। तुम्हारा बहुत बड़ा उपकार मैं जन्म-जन्मान्तर तक मानूंगी। लेकिन मैं उनके लिए एक सहायक की भूमिका नहीं निभा पायी। मेरी असमर्थता ने मेरे हाथों में हथकड़ी लगा रखी थी जिसे शायद उन लड़कियों की आंखों से निकले आंसू रूपी तेजाब में भी वह शक्ति कम पड़ गयी जो उन्हें पिघला न सका और उनका वह तेजाब आंखों के रास्ते कपोलों पर ढुलककर बर्फ की तरह जम गया। मुंह से निकलने वाली चीख ने उस कम रोशनी वाले कमरे में ही दम तोड़ दिया।
उन दोनों निकृष्ट दुराचारियों के कुकृत्य पर विराम लगता दिख नहीं रहा था और मुझे भी उससे मुक्ति का मार्ग नहीं दिखाई दे रहा था। वे दोनों प्रतिदिन अपने उसी रूप में मुझे दिखाई देते, जिनको देखते ही मरे अन्दर भय नये रूप में प्रवेश कर जाता। उस समय कलेजा भय के कारण थरथरा उठता और मैं मूर्तिवत् हो जाती थी। सारा शरीर पसीने से भीग जाता था। क्योंकि ये अपने दुराचार के द्वारा मेरे सामने इतना आतंक फैला चुके थे कि उसकी याद करने मात्र से शरीर कम्पायमान हो जाता था। परन्तु उन्होंने यह कुकृत्य न बन्द करने की जैसे शपथ ही खा ली थी। मेरे इस घर को ही अभय और मयंक ने मिलकर अपने कुकर्मों का अड्डा बना लिया। वहीं ये दोनों बेखौफ अपने इस गन्दे खेल को अंजाम देते। मेरे अतिरिक्त उनके इस कुकर्म का और कोई गवाह तो था नहीं। जो स्वयं भक्त भोगी हुआ करती थी उसको ये दोनों अपने गलत, हथकंडों द्वारा काबू में कर लेते थे। लेकिन अब मुझे इस घर की चाहरदीवारी में बहुत ही घुटन होने लगी थी। और उस कमरे की ओर देखने तक की इच्छा नहीं होती थी।
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