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वैश्या वृतांत - 30 - अंतिम भाग

वैश्या वृतांत

यशवन्त कोठारी

अपराधी बच्चे और शिक्षक की भूमिका

स्वच्छंदता, उच्छृंखला, बदलता सामाजिक मूल्यों तथा राजनीतिक जागरुकता ने छात्रों और अध्यापकों के बीच की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। यही कारण है कि छात्रों, खासकर कम उम्र के बालकों में अपराध मनोवृति बहुत बढ़ती जा रही है। पाश्चात्य सभ्यता की अंधी नकल और सिनेमा आदि के कुप्रभावों ने बालकों में विभिन्न प्रकार की अपराधी प्रवृत्तियां उत्पन्न की हैं और ये प्रवृत्तियां तेजी से बढ़ रही हैं, जो आने वाले समय के खतरे के निशानों को पार कर जाने वाली है। प्रारंभिक सर्वेक्षणों से पता चला है कि इनके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण है शिक्षकों के द्वारा बालकों की उपेक्षा तथा उनका बाल मनोविज्ञान से अनभिज्ञ होना।

बा लक एक पौधे की तरह है,जिसका विकास समाज, वातावरण, शिक्षक और घर के आधार पर होता है। अगर उसे शुरु से ही अपराधी मनोवृति की ओर धकेल दिया जाता है तो यह एक घातक रोग की तरह बालक को अपने में लपेट लेता है। यह आवश्यक है कि बाल अपराधों का मनोवैज्ञानिक विवेचन किया जाये। मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है कि बालक अपने आसपास के वातावरण से बहुत कुछ सीखता है। मस्तिप्क अपरिपक्व होने के कारण वह स्वयं अच्छे और बुरे कार्यों में विभेद करने में असमर्थ रहता है, ऐसी स्थिति में वह गलत रास्ते की ओर बढ़ जाता है और अगर समय पर उसे सही मार्ग नहीं दिखाया जाता तो वह धीरे धीरे इस मार्ग का अनुसरण कर जेल तक पहुंच सकता है।

अगर छात्र के पास पेंसिल नहीं है और उसके माता—पिता उसे पेंसिल दिलाने में असमर्थ हैं तो उसके दिमाग में पेंसिल प्राप्त करने के अन्य तरीके आ सकते हैं। इन्हीं में से एक तरीका चोरी है। हालांकि यह एक मामूली चोरी होगी लेकिन उस छात्र का हौंसला इस कार्य में सफल होने के बाद बढ़ जायेगा। मनोवैज्ञानिक छात्र को इसी वक्त सावधान करने तथा समझाने में विश्वास रखते हैं। स्वाभिमान, ईमानदारी और सच्चाई को अगर छात्र तक पहुचा दिया जाये तो शायद अपराधवृति कुछ कम हो सकेगी।

दोनों पक्षों की पूरी बात सुने बिना अध्यापक द्वारा दिया जाने वाला निर्णय भी छात्रों के मस्तिप्क में हमेशा के लिए कुप्रभाव डालता है। छात्र हमेशा के लिए व्यवस्था, कानून और न्याय से घृणा करने लग जाता है।

वस्तुतः 6—12 वर्प की आयु बालक के विकास की आयु है। उसे नयी—नयी जिज्ञासाएं होती हैं। वह उन्हें समझने की कोशिश करता है लेकिन अपरिपक्व मानसिक विकास के कारण यह कार्य उसे दुखद लगता है। ऐसी अवस्था में वह अपने अध्यापकों या माता—पिता के पास जाता हे। व्यस्तता, अन्यमनस्कता तथा अन्य कारणों से बालक के विकास को सही दिशा नहीं मिल पाती। यह स्थिति उन परिवारों में विशेप है, जहां पर बच्चे नौकरों के भरोसे रहते हैं और उन्हें सप्ताह में एकाध बार ही माता—पिता के दर्शन होते हैं। इन अवस्थाओं से यदि बालक का झुकाव अपराधों की ओर होता है तो वह चिंतनीय तो है लेकिन आश्चर्यजनक नहीं।

वस्तुतः जिस सामाजिक परिवेश, देश, काल और परिस्थितियों से हम गुजरते हैं, उनका हमारे दिलोदिमाग पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। बालक का दिमाग तो एक कोरी किताब की तरह है, जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। पिछले कुछ वर्पो के शिक्षकीय अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि इस समस्या का समाधान काफी हद तक शिक्षक के ही पास है। शिक्षक का नैतिक दायित्व इस संबंध में बहुत बढ़ गया है।

आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षक छात्रों को किताबी ज्ञान के अलावा नैतिक ज्ञान तथा सामयिक निर्देश भी दें।

विकास के काल में सामयिक निर्देश वही कार्य करता है, जो लंबे सफर में सड़क पा लगे मील के पत्थर, लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था कुछ इस प्रकार की है कि छात्र बहुत कम समय तक अपने अध्यापकों के संपर्क में रह पाता है। इस हिसाब से प्राचीन गुरुकुल पद्धति अधिक उपयुक्त थी, फिर भी अगर शिक्षक नैतिक शिक्षा की ओर भी समय दे तो समस्या को आंशिक रुप से सुलझाया जा सकता है। यदि बालक को शुरु से अपराध कार्यो तथा उसके परिणामों से अवगत कराया जाता रहे तो बालक स्वयं को अपराधों से दूर रखने की कोशिश करेगा और यह प्रवृति बाल अपराधों को कम करने में सहायक होगी। नैतिक शिक्षा के साथ बालक को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए भी शिक्षक की आवश्यकता होती है। अनुशासन, न्यायप्रियता तथा ईमानदारी बालक के व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में आवश्यक है। बालक को इतना व्यस्त रखा जाना चाहिए कि उसे अपराधों की ओर मुड़ने का समय ही नहीं मिले। भय से कुछ समय के लिए बालक को अपराधों से मोड़ा जा सकता है लेकिन यह समस्या का स्थायी हल नहीं होगा, ज्योंहि भय का डंडा हटेगा, बालक अपराधों की ओर फिर बढ़ेगा। गलत कार्य के लिए सजा मिलना आवश्यक है। अगर अध्यापक एक बार किसी को गलत सजा दे देता है तो इसके दोहरे नुकसान होते हैं। जिसने गलती की, उसे सजा नहीं मिली, अतः वह बुलंद होकर अपराध करेगा।

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